आज लेखक रवींद्र कुमार पाठक का जन्मदिन है. 16 सितंबर 1974 को जन्में रवींद्र कुमार पाठक ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की और ‘हिन्दी के प्रमुख व्याकरणों का समीक्षात्मक अनुशीलन'' विषय पर शोध किया. राधाकृष्ण प्रकाशन ने उनकी डायरी 'जनसंख्या समस्या' प्रकाशित की है. इस पुस्तक में लेखक ने जनसंख्या-विस्फोट के पीछे स्त्री के अबलाकरण की उस ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-सामाजिक प्रक्रियां को जिम्मेदार माना है, जो उससे उसकी ‘देह’ छीनकर, उसे प्रजनन की घरेलू-बीमार मशीन बनने को अभिशप्त कर देती है. यह प्रक्रिया पितृसत्तात्मक है, अत: जनंसख्या-विमर्श का यह नया रास्ता पितृसत्ता के चरित्र का पर्दाफाश भी है जो स्त्री की बहुविध वंचनाओं-गुलामियों व पीड़ाओं का मूल स्रोत है. विवाह-संस्था और वेश्यावृत्ति. उसके दो हाथ हैं, जिनसे स्त्री को जकड़कर, वह उसे ‘व्यक्ति’ से ‘देह’ में तब्दील कर देती है. जिससे उसके यौन-शोषण के रास्ते प्रजनन की बाध्यता पैदा होती है. जिसका खामियाजा स्त्री अपना सामाजिक जीवन, कैरियर, सम्मान आदि गंवाकर ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और अस्तित्व तक को गंवाकर भुगतती है. स्त्री मां बनती नहीं, बनाई जाती है, क्योंकि मातृत्व-क्षमता और मां बनने की इच्छा में फर्क है. प्रचलित आर्थिक दृष्टि से किए जा रहे जनसंख्या-विमर्श से अलग, यह कृति उस विमर्श की पितृपक्षीय सीमाओं को बखूबी उजागर करती है.
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पुस्तक अंशः जनसंख्या समस्या
जनसंख्या-समस्या का अब तक एक समग्र नजरिए से विवेचना नहीं हो पाया है. मेरा मानना है कि इसका एक पूरा ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय-सांस्कृतिक-आर्थिक-मनोवैज्ञानिक व जीववैज्ञानिक विमर्श हो जाए. तो इससे स्त्री-समस्याओं का एक तरह से मुकम्मल पाठ तैयार हो जाता है. इसका तात्पर्य यह नहीं कि विमर्श इस रास्ते से करना होगा कि जननी बनकर नारी ने ही पुरुष को जन्म दिया और उसी की रचना पुरुष ने अपने वर्चस्व की सामाजिक-आर्थिक व सांस्कृतिक संरचना बनाकर, फिर वैचारिक ढांचा बनाकर उस विषम संरचना को स्थायित्व प्रदान कर अपनी जन्मदात्री मां, स्त्री को हर प्रकार की पीड़ा में डाल दिया है, जैसा कि साहिर लुधियानवी ने महसूस किया है- ‘‘औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया. जब जी चाहा मसला-कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया.’’ पर, नहीं. हमें इस दार्शनिक से लगने वाले रास्ते से विचार करने की जरूरत नहीं. यद्यपि यह रास्ता दार्शनिक है भी नहीं, ठोस यथार्थ पर आधारित है. फिर भी, इस सूत्रवत् पंक्ति में बिना उलझे हम सीधे-सीधे भी पा सकते हैं कि जनसंख्या समस्या का सम्पूर्ण विश्लेषण करना, दरअसल औरत की तमाम समस्याग्रस्त दुनिया में प्रवेश करना है. फिर बिना इस समस्या को हल किए स्त्री की समस्याओं का न यथार्थ हल हो सकेगा, न वह सम्पूर्ण मनुष्य ही बन सकेगी. अब तक के विश्लेषणों में इस अभिप्राय की तस्वीर हम सबने देखी भी है. हम एकदम आदि युग में जाकर देखें तो पाएंगे कि स्त्री की कार्यक्षमता व चुस्ती-फुर्ती पुरुष से कुछ भी कम नहीं थी. वह जंगली जीवन का युग था. दोनों के लिए जीवन की चुनौतियां एवं उस पर खतरे भी समान थे और उनसे निबटने में वे समान रूप से भागीदार भी थे. खाद्य-संग्रह और शिकार में दोनों समान हिस्सेदार थे, अतः समान रूप से उनको प्रतिष्ठा प्राप्त थी. परन्तु, स्त्री की हीनता या गुलामी का बीजारोपण ही उस क्षण हुआ, जब पहली बार स्त्री गर्भवती हुई. उस युग में सम्भोग व गर्भाधान का रिश्ता अटूट था.
प्राकृतिक प्रेरणा या देह की पुकार से नर-नारी मिलते थे और यौन-सम्बन्ध की गली में घुस जाते थे. किन्तु, इस क्रिया में उतरना था कि स्त्री कुछ बंध सी गई- गर्भभार युक्त होकर. इससे बचने का कोई उपाय भी तो न था. गर्भकालीन बोझ शरीर का बना बेडौलपन और गर्भ-निर्माण की प्रक्रिया से हो रही पोषक तत्त्वों की कमी ने स्त्री को अपने सामान्य स्थिति के सापेक्ष न कि आम पुरुष के सापेक्ष अबला या अल्पबला बना दिया. इस अल्पकालिक अल्पबलता और जनित सन्तान के प्रति हुई सहज ममता एवं उसके कारण किए गए लालन-पालन में पड़ने से स्त्री की दैहिक सम्भावना कुछ सीमित हो गई और इसके कारण पुरुष के साथ कन्धे से कन्धा, कदम से कदम मिलाकर चलने में वह कुछ पिछड़ गई. इस प्रक्रिया से स्त्री को प्रायः हर वर्ष गुजरना पड़ता था- क्योंकि देह-सम्बन्ध प्राकृतिक प्रेरणा से चालित था और गर्भाधान से बचे रहने का कोई विज्ञान तब न था.
दूसरी बात, शेष पशुओं की तरह गर्भाधान का मौसम विशेष भी मनुष्य में न था. सालोंभर फ्री लाइसेन्स थी. सबका परिणाम यही होना था कि आर्थिक-सामजिक प्रक्रियाओं में स्त्री बिलकुल पुरुष के बराबर अपनी देह-शक्ति फिर मन-शक्ति से जुड़ने से पिछड़ती रही. ऊपर से गर्भकाल काल में वह पुरुष साथी की ओर से दी गई सुरक्षा की भी मोहताज थी. इन सबसे, स्त्री के अबलापन एवं उसके पुरुष-निर्भर, पुरुष-शासित होने की विचारधारा उदित हुई- जो पुरुष व स्त्री की बुद्धि में जड़ जमाती गई. इस आइडियोलॉजी के परिणामस्वरूप स्त्री की प्रत्यक्ष स्थितियां और भी बदतर होती गईं यानी, जो क्षमता बची रही, उसे भी यह ‘विचार’ नियन्त्रित करता गया. फिर, इस बदतर स्थिति के संगत स्त्री हीनता या स्त्री के दोयम दर्जे की प्राणी सेकेंड सेक्स की आइडियोलॉजी और भी बढ़ी.
सब मिलाकर, ‘पुरुषत्व’ व ‘स्त्रीत्व’ नामक दो मिथ या सांस्कृतिक कोटियां- यानी दो जेंडर स्थापित होते गए. यह ‘जेंडर-’ भेद धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ विकसित हो गया और सामाजिक संरचना, अर्थव्यवस्था, कला-सांस्कृतिक व धार्मिक क्षेत्र ही नहीं, जीवन के लिए भौतिक सुविधाओं का अन्वेषण करनेवाली विज्ञान-तकनीकों तक में छा गया. इस भेद ने ज्ञान के तमाम शास्त्रों व अनुशासनों में अपनी उपस्थिति दर्ज की, क्योंकि पिछड़ चुकी स्त्री शास्त्र-रचना में तनिक भी भागीदार न थी. जब जीवन के हर आयाम में स्त्री पुरुष से हीनतर ठहर चुकी थी. स्त्री-देह को अपनी जागीर मानने और उसकी श्रमशक्ति, प्रजनन-शक्ति व यौनिकता का अपने मनमाफिक उपयोग करनेवाली ‘पितृसत्ता’ विवाह-संस्था व वेश्या तन्त्र के रूप में उदित हो चुकी थी.
मेरा स्पष्ट रूप से मानना है कि स्त्री की देह पर पुरुष के व्यक्तिगत अधिकार की इच्छा का फल है विवाह-संस्था तथा उस पर पुरुषों के सामूहिक अधिकार की इच्छा का फल है वेश्या तन्त्र. अंतर सिर्फ यही है कि दूसरा सिर्फ उससे रिक्रिएशन यानी आनन्द चाहता है. पहली उससे रिप्रोडक्शन यानी सन्तान-जनन आदि भी चाहती है. स्त्री की सारी गुलामियों पीड़ाओं का स्रोत ये ही संस्थाएँ हैं- ‘पितृसत्ता’ के मुख्य स्तम्भ ये ही हैं. इसी ने स्त्री की देह को कब्जे में लेकर उसकी समस्त वैयक्तिक सम्भावनाओं चाहे देह के क्षेत्र में बलिष्ठ, खिलाड़ी, सैनिक आदि बनने की हो या मन के क्षेत्र में प्रतिभा के अनंत रूपों में फैलने की को कुचल दिया है. साथ ही साथ उसे जनसंख्या बढ़ाने के साधन के रूप में धर्मशास्त्रों द्वारा आदर्शीकृत ‘मां’, ‘पुत्रवती’, ‘सन्तान यानी पुत्र उद्देश्य है ब्याह का’ या ‘मां बनना ही स्त्री का ऋण मोक्ष’ आदि नाम-रूपों में करके व्यवहार में उसे वैसा बनाया भी. इस प्रकार हमने पाया कि पुरुष सत्तात्मक विचारधारा व संरचना के उदय के पीछे का पहलू जनसंख्या समस्या है और इसके उदय का ही परिणाम है जनसंख्या वृद्धि.
स्त्री-पुरुष वैषम्य यानी पितृसत्तात्मकता केवल एक सामाजिक समस्या नहीं है, बल्कि ढेर सारी सामाजिक समस्याओं की जननी भी है. फिर इतना ही नहीं है. नारी की दुर्बलता या सामाजिक हीनता से विकास-कार्यक्रम असन्तुलित ही नहीं होते, बल्कि विकास की गाड़ी भी धीमी हो जाती है. डॉ. अमर्त्य सेन ने बड़ी सटीक विश्लेषण कर इसे समझाया है. जनसंख्या समस्या का सबसे घातक परिणाम उन्होंने स्त्री की स्वतन्त्रता का छिन जाना बतलाया है. जिससे कई कार्यों के सम्पादन से वह वंचित रह जाती है. स्त्रियों को लगातार गर्भधारण व शिशुपालन में पड़ी रहकर स्वतन्त्र कार्यक्षमता तो खोना ही पड़ता है, बल्कि कई बार तो प्रसव चक्र से उनकी जिन्दगी भी गम्भीर खतरे में पड़ जाती है. ***** लेखक: रवींद्र कुमार पाठक विधा: डायरी प्रकाशन: राधाकृष्ण प्रकाशन मूल्य: 125/- रुपए पृष्ठ संख्या: 195