कुमार अनुपम हमारे दौर के एक बेहद प्रतिभाशाली कवि हैं. मानव जीवन की संवेदना और शहर की आपाधापी के बीच वह सृजन का ऐसा राग बुनते हैं, जिसमें जीवन का हर पहलू समाहित हैं. उनकी कविताओं में समय है, तो रिश्ते भी, घटनाएं हैं, तो दर्शन भी, राजनीति है, तो इतिहास भी. वे अपने परिवेश के प्रति बेहद सजग हैं, और शब्दकौशल में अद्भुत. ऐसा संभवतः वह इसलिए कर पाते हैं कि कवि होने के साथ-साथ वह एक कलाकार भी हैं.
7 मई, 1979 को उत्तर प्रदेश के बलरामपुर में जन्में अनुपम की रुचि चित्रकला, कला-समीक्षा और लोक विधाओं में भी खासी है. 'बारिश मेरा घर है' नाम से उनका कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुका है. चंद्रकांत देवताले के साथ 'कविता-समय एक' के नाम से एक और संकलन प्रकाशित है. केंद्रीय साहित्य अकादमी में कार्यरत कुमार अनुपम अपने कवि कर्म के लिए साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार, भारत भूषण अग्रवाल स्मृति कविता पुरस्कार, कविता समय सम्मान, 2011 और से नवाजे जा चुके हैं.
यह संयोग ही है कि आज ही विश्व साहित्य की एक महान शख्सियत गुरुदेव रबींद्रनाथ ठाकुर का भी जन्मदिन है. इसलिए इससे बेहतर तोहफा क्या हो सकता है, 'साहित्य आजतक' पर पढ़ें कुमार अनुपम की ये पांच श्रेष्ठ रचनाएं, उनके जन्मदिन पर विशेषः
1.
हु्सेन के नाम
'माँ कभी नहीं मरती' -
तुमने बचपन में अदेखी
अपनी माँ को जन्म दिया फिर से
इस तरह
'मदर' की अमरता साबित हुई
पंढरपुर की सड़क पर
जो औरत है
कमर पर बच्चे को वत्सलता से सँभालती बहुविधि
सर पर थामे हुए गठरी
उसे तुमने ही बनाया 'भारतमाता'
उन्मत्त साँड़ का सामना करती हुई शक्तिमयी
यह दृश्य
हमारे समय के लिए
अब अपरिचित नहीं है
उसी साँड़ के ककुद पर
संतुलित करते हुए नई रौशनी भरी लैंप
तुमने जीने की कला सीखी
और यायावरी की राह ली
यह बुद्ध की ही राह तो थी
हुसेन!
तुम्हारी साइकिल पर टँगे हैं
इंदौर के गुजिश्ता दिन
और
लालटेन और छाता
उस साइकिल से सटी
खड़ी है 'गजगामिनी'
और तुम्हारी
विश्व की वह सबसे सुंदर स्त्री
वह दलित संघर्ष भरी लड़की 'मायावती'
जिसे तुम्हारे कैनवस से अभी बाहर आना था
और हाँ
'स्पाईडर एंड द लैंप' की 'पंच देवियाँ'
जिनमें एक के हाथ में झूल रही मकड़ी
मुझे जाने क्यों
तुम्हारे कट्टर कलाविरोधी ही लगते हैं
अपनी औकात में लटकते हुए
हुसेन
तुम्हारे आख्यान
किवदंतियों की तरह मकबूल हो गए हैं
कला से जगत तक आक्षितिज
जिस पर
अब बाजार भी फिदा है
लेकिन
एक अतृप्ति जो आनुवंशिक थी तुम्हारे भीतर
उसके खिलाफ भी लड़ते रहे आजीवन
एक अपनी सी लड़ाई
और कला को विजय दिलाई
हुसेन
कर्बला से
तुम्हारे अश्व लौट रहे हैं
अपनी शक्ति से भरे
वे थके नहीं हैं
उन्हें तय करनी है
तुम्हारे कैनवस के नामालूम फैलाव
की अभी अनंत यात्रा...
2.
पुनर्जन्म
मरता हूँ प्रेम में पुनः पुनः जीता हूँ
अगिनपाखी-सा स्वतःस्फूर्त
जैसे फसल की रगों में सिरिजता तृप्ति का सार
जैसे फूल फिर बनने को बीज
लुटाता है सौंदर्य बारबार
सार्थक का पारावार साधता
गिरता हूँ
किसी स्वप्न के यथार्थ में अनकता हुआ
त्वचा से अंधकार
और उठता हूँ अंकुर-सा अपनी दीप्ति से सबल
इस प्राचीन प्रकृति को तनिक नया बनाता हूँ
धारण करता हूँ अतिरिक्त जीवन और काया
अधिक अधिक सामर्थ्य से निकलता हूँ
खुली सड़क पर समय को ललकारता सीना तान
बजाते हुए सीटी।
3.
माँ और पिता की एक श्वेत-श्याम तसवीर
घर में एक ही तसवीर है श्वेत-श्याम
जिसमें लक्ष्मण झूले पर पिता
गलबाँही डाले माँ के साथ हैं
नुकीले नहीं लगभग गोल नोक-कॉलरवाली
कमीज पहने हैं पिता किसी रंग की
जो तसवीर में श्वेत लग रही है
साँवली पृथ्वियों-टँकी साड़ी
पहने हैं माँ
जो अब फैशन या चलन में नहीं है
ऐसे उम्र में है यह युगल
जब साँवलापन
गोराई को भी मात करता है
स्मिता पाटील-सी सांद्रता लिए माँ
पिता शत्रुघ्न सिन्हा-सी जुल्फें उड़ाते
हिंदी फिल्मों के कोई पात्र लग रहे हैं
प्रेम की ओट किए
तना है पृष्ठभूमि में ऋषिकेश का वितान
गालों की ललाई को छुपाती
अपनी ही पुतलियों की सलज्ज रोशनाई में माँ
पिता की ओर झुकती हुई डूबी है जितना
कैमरा उसे
कैप्चर नहीं कर सका होगा
कदीम कस्बे की बंदिशें तमाम
बही जा रही हैं टुकड़ा भर गंगा की तरह
दोनों के बीचोबीच से हरहर
यह तसवीर अब धरोहर है
इसी श्वेत-श्याम तसवीर में से
चुनती रहती है माँ
कुछ रंग बिरंगे पल अकसर
पिता से बिछड़ जाने के बाद।
4.
वे अब वहाँ नहीं रहते
चिट्ठियाँ जिनका तलाश रही हैं पता
वे अब वहाँ नहीं रहते
अखबारों में भी नहीं उनका कोई सुराग
सिवा कुछ आँकड़ों के
लेकिन अब भी
सुबह वे जल्दी उठते हैं
म्यूनिसिपलिटी के नलके से लाते हैं पूरे दिनभर का पानी
हड़बड़ाहट की लंबी कतार में लगकर
बच्चों का टिफिन तैयार करती पत्नी
की मदद करते हैं
अखबार पढ़ने के मौके के दरम्यान
चार लुकमे तोड़ते हैं भागते भागते
देखते हैं दहलीज पर खड़ी पत्नी का चेहरा
बच्चों को स्कूल छोड़ते हैं
और नौकरी बजाते हैं दिनबदिन
ऑफिस से निढाल घर की राह लेते हैं
कि एक धमाका होता है सरेराह... फिर... कुछ नहीं...
वे अपनी अनुपस्थिति में लौटते हैं।
5.
मैं एक शब्द लिखता हूँ
मैं एक शब्द लिखता हूँ ऐन उसके पहले
वे तय कर देते हैं उसका अर्थ
कई बार तो मेरे सोचने से भी पूर्व
वे खींच देते हैं दो पंक्तियाँ
और कहते हैं
उतार लो इनमें आज का पाठ
सुलेख लिखो सुंदर और कोमल लिखो अपने दुख
हमारे संताप रिसते हैं निब के चीरे से
कागज की छाती पर कलंकित
अचानक प्रतिपक्ष तय करती एक स्वाभाविक दुर्घटना घटती है
कि स्याही उँगलियों का पाते ही साथ
पसर जाती है
माँ का आँसू अटक जाता है
पिता की हिचकियाँ बढ़ जाती हैं
बहनें सहमकर घूँट लेती हैं विलाप
भाई एक धाँय से पहले ही होने लगते हैं मूर्च्छित
आशंकाओं के आपातकाल में
निरी भावुकता ठहराने की जुगत में जुट जाते हैं सभी
कि माफ करें बख्शें हुजूर क्षमा करें गलती हुई
पर वे ताने रहते हैं कमान-सी त्यौरियाँ
फिलहाल मेरे हाल पर फैसला
एक सटोरिया संघसेवक पर मुल्तवी करता है
जबकि उस जाति में पैदाइश से अधिक नहीं मेरा अपराध
जिस बिरादरी का ‘सर’ बना फिरता है वह
मसलन,
यह नागरिकता के सामान्यीकरण का दौर है
यह स्वतंत्रता के सामान्यीकरण का दौर है
यह अभिव्यक्ति के सामान्यीकरण का दौर है
यह ऐसा दौर है जब
जीवन का अर्थ कारसेवा घोषित किया जा रहा
मैं एक शब्द लिखता हूँ
और जिंदा रहने की नागरिक कवायद में
जीता हूँ मृत्यु का पश्चात्ताप संगसार होता हूँ बार-बार
और मैं एक और शब्द लिखता हूँ...