देखना ही यकीन करना है’, यह जुमला तो आपने सुना ही होगा. इसका मतलब है कि जो दिखता है उस पर यकीन किया जाता है. लेकिन, एक नए अध्ययन में पाया गया है कि ‘‘यकीन करना भी देखना है’’, यानी आप किसी चीज को लेकर अपनी धारणा बनाएंगे, वह आपको वैसा ही दिखेगा खासतौर पर उस वक्त जब हम दूसरों की भावनाओं से जुड़ी कुछ मान्यताएं पहले से ही बना लेते हैं.
अपने पूर्वाग्रहों के मुताबिक सोचते हैं लोग
‘साइकोलोजिकल साइंस’ के नवीनतम संस्करण में आयी एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक अंतरराष्ट्रीय दल की ओर से किए अध्ययन के मुताबिक लोग अपनी उम्मीद और मान्यताओं की बिना पर चेहरे पर उभर रहे भावों को देखते हैं. दरअसल, अध्ययन दल ने पाया कि दूसरों की भावनाओं के बारे में लोग शुरूआती तौर पर अपने पूर्वाग्रहों और मान्यताओं के मुताबिक ही सोचते हैं. सोचने की इस प्रक्रिया के दौरान उनकी भाव-भंगिमा भी काफी अहम भूमिका अदा करती है.
शारीरिक भाव-भंगिमा सम्मिश्रण का काम करती हैं
यूनिवर्सिटी ऑफ ओटागो के प्रोफेसर और सह-लेखक जेमिन हाल्बरस्टाद्ट ने बताया कि एक बार अस्पष्ट या उदासीन चेहरे को गुस्से या खुशी में बयान कर लेने पर हम बाद में भी इसे याद करते हैं और असल में उसी तरह से देखा करते हैं. हाल्बरस्टाद्ट ने बताया कि हम अपनी भावनात्मक अभिव्यक्ति की कल्पना संचार के अस्पष्ट तरीकों के तौर पर करते हैं कि हम कैसा महसूस करते हैं, लेकिन वास्तविक सामाजिक संदर्भ में होने वाली परस्पर क्रिया में शारीरिक भाव-भंगिमा कई तरह की भावनाओं के सम्मिश्रण का काम करती हैं. उन्होंने बताया कि इसका मतलब दो लोगों के बीच एक जैसी भावनाओं को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हो सकती हैं और दोनों जो देखते हैं उस बाबत सही भी हो सकते हैं.