आ गए उपचुनाव के नतीजे. जिसे मोदी मैजिक की परीक्षा बताया जा रहा था, उसमें बीजेपी खेत रही. कम से कम मीडिया का तो यही फरमान हुआ है. टीवी स्टूडियो में उपचुनाव पर बहस करते कथित एक्सपर्ट खुशियों के समंदर में उतरा रहे हैं. ये वही एक्सपर्ट हैं, जो बीजेपी ब्रैंड की राजनीति को ज्यादा पसंद नहीं करते हैं. और ये खुले तौर पर बीजेपी की रणनीति में नुक्ताचीनी निकाल रहे हैं. ये बता रहे हैं कि मई 2014 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में बाकी दलों का सूपड़ा साफ करने वाली बीजेपी कैसे इस बार बुरी तरह हारी.
और अपने विश्लेषण के उत्साह में ये तमाम पोल पंडित अब बीजेपी को बिन मांगी सलाह से भी नवाज रहे हैं. इनके बीच कम से कम इस बार विचारों की समानता नजर आ रही है. सभी बीजेपी से कह रहे हैं कि इसे अपने उग्र हिंदुत्व वाली चुनावी रणनीति को तज देना चाहिए. ये कह रहे हैं कि बीजेपी को अगर अपना मई वाला करिश्मा दोहराना है तो विभाजनकारी राजनीति से बाज आना चाहिए. इन विश्लेषकों का तर्क है कि बीजेपी ने लोकसभा चुनाव विकास और अच्छे प्रशासन का नारा देकर लड़ा और जीता. ये समझने के लिए बहुत दिमाग खर्च नहीं करना पड़ेगा कि ये विश्लेषक मिथ्या उगल रहे हैं. इनका आकलन गलतफहमी की जमीन पर पनप रहा है.
बीजेपी को सलाह या फिर खुशफहमी
पहली बात, ये सच बहुत साफ है कि ये विश्लेषक बीजेपी के शुभ चिंतक नहीं हैं. इनमें से कुछ एक तो खुद की खुले तौर पर बीजेपी विरोधी विचारक के रूप में ब्रैंडिंग करते हैं. तो ऐसे में वो बीजेपी को कोई ऐसी सलाह क्यों देंगे, जिससे उसकी विजय पताका फहराए.
दूसरी बात, बीजेपी ने लोकसभा चुनाव खालिस विकास और गवर्नेंस के मुद्दे पर नहीं जीते. ये एक किस्म का मिथक है, जिसे इन पोल पंडितों ने बार बार प्रचारित किया. बीजेपी ने भी कभी खुले तौर पर इसका खंडन नहीं किया.
ऐसे में ये समझ नहीं आता कि ये बीजेपी विरोधी धुरंधर अब उसे समावेशी राजनीति करने की सलाह क्यों दे रहे हैं. दरअसल ये चाहते हैं कि खासतौर पर हिंदी पट्टी या हिंदू बहुल इलाकों में धर्म आधारित मुद्दे जोर न पकड़ें. ये चाहते हैं कि बीजेपी एक उदार और सभी को साथ लेकर चलने वाला राजनीतिक विकल्प बने. और इसी चाहने या इच्छा के तहत वह चाहते हैं कि बीजेपी उनकी सलाह पर चले और अपना चोला बदल ले. ये चाहते हैं कि बीजेपी ऐसी पार्टी बन जाए कि वे उसे वोट दे सकें. सत्ताधारी दल का दामन थाम सकें
मगर इस सोच या ख्वाहिश में एक पेच है. पेच यह कि ये सब तो सलाह देकर सरक लेंगे, मगर मैदान पर असल लड़ाई बीजेपी को लड़नी होगी. और बीजेपी इनके सपनों की पार्टी तो बनने से रही. बीजेपी नरेंद्र मोदी के सपनों की पार्टी है. वह संगठन को अपनी सोच के मुताबिक ढाल रहे हैं. और ऐसा करने में अमित शाह उनकी मदद कर रहे हैं. और ये दोनों ही नेता अपने उदार ख्यालों के लिए तो नहीं ही जाने जाते हैं.
जब उग्र मुलायमियत का मुलम्मा ओढ़ता है
मोदी के आलोचक चाहते हैं कि वह अपनी सत्ता और प्रभाव का इस्तेमाल घृणा फैलाने वाले बयान वीरों मसलन, योगी आदित्यनाथ या फिर लक्ष्मीकांत वाजपेयी को चुप कराने में करें. ये आलोचक चाहते हैं कि सांप्रदायिक सद्भाव बना रहे. ये नहीं चाहते कि बीजेपी लव जेहाद का मुद्दा जोर शोर से उठाए. ये चाहते हैं कि बीजेपी सेकुलर और प्रगतिशील बन जाए. समन्वय का मध्य मार्ग अपनाए. ये चाहते हैं कि बीजेपी कांग्रेस बन जाए. ताकि ये उसे प्यार कर सकें. उसकी सत्ता की धारा में शामिल हो सकें. और ऐसा करने के दौरान उन्हें किसी किस्म का अफसोस न हो. अगर मगर के मुखौटों के पीछे मुंह न ढंकना पड़े.
इनके विश्लेषणों में अचानक से नरेंद्र मोदी या अमित शाह के उदारवादी होने की शुभेच्छा प्रकट होने लगी है. इन्हें लग रहा है कि मोदी और शाह तो ठीक हैं, मगर गोरखपुर के योगी कट्टर हैं. वह उग्र हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं. ये वही उदारवादी हैं, जो कल तक आडवाणी को उदार और सेकुलर और उसके बनिस्बत मोदी को उग्र और सांप्रदायिक बता रहे थे. और उससे भी पीछे लौटें तो ये वही लोग हैं जो आडवाणी को वाजपेयी के मुकाबले कट्टर बताते थे. ये एक पैटर्न है, जिसमें बार बार बताया जाता है कि सत्ताधारी दल में उदारवादियों की राजनीतिक जमीन सिकुड़ती जा रही है और उग्र तत्व उसे हड़पते जा रहे हैं.
और अगर करें यूपी की बात
यूपी में बीजेपी ने धुंआधार सफलता हासिल की. ऐसा तो नहीं था कि उत्तर प्रदेश की जनता अचानक से नींद से जागी और उसने विकास और सुशासन का दामन थामने का फैसला किया. अगर ये जनता का स्थायी भाव होता तो वह 2012 के प्रदेश विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के जाति-धर्म के फॉर्मूले को स्वीकार उसे सत्ता की चाबी न सौंपती. हिंदी पट्टी ने मोदी को सिंहासन सौंपा क्योंकि उसे मोदी की आक्रामक हिंदुत्व और उसके ऊपर चढ़े विकास के मुलम्मे की कलाबाजी रास आई. मोदी एक ऐसे हिंदू नेता के तौर पर उभरे, जो फिजूल की सेकुलर स्टंटबाजी नहीं करता. सपा और कांग्रेस की तरह अल्पसंख्यक कल्याण का बेजा राग नहीं अलापता. मिडिल क्लास की तकलीफों पर उनके सपनों पर ध्यान देता है. और सबसे बड़ी बात नतीजे देता है.
अब चुनावी चाणक्य ये समझ नहीं पा रहे हैं कि जिस यूपी की जनता ने कुछ महीने पहले बीजेपी को इतना बड़ा जनादेश दिया, वह अचानक बिदक क्यों गई. इसका जवाब ये है कि उपचुनावों में जनता को इसकी जरूरत नहीं लगी. उन्हें पता था कि इन चुनावों से सूबे की हालत में कोई बदलाव नहीं आने वाला है. इसकी तस्दीक चुनावों में कम वोटिंग पर्संटेज भी करता है. इसकी तरफ नजर डालिए. स्थानीय सत्ता के लगाव को याद करिए. और पहेली सुलझ जाएगी.
बीजेपी का वोटर इन चुनावों में उतने उत्साह से नहीं निकला क्योंकि ये कवायद बदलाव के लिए नहीं थी. ये तो यथास्थिति में कुछ जुड़ाव घटाव भर की थी. उधर, प्रदेश में शासन की कमान संभालने के बावजूद समाजवादी पार्टी हाशिये पर जाती दिख रही थी. इसलिए उसने इन चुनावों में अपना सब कुछ झोंक दिया ताकि उसकी राजनीतिक प्रासंगिकता बची रहे.
आपका गुब्बारा फोड़ने के लिए माफी चाहता हूं
बीजेपी के आलोचकों को लगता है कि यह दल इन चुनावी नतीजों से सबक लेगा. अपनी विभाजनकारी नीतियों को छोड़ देगा. अपने रवैये में बदलाव लाएगा. अफसोस वे हाथ मसलते रह जाएंगे.
लोकसभा चुनावों में मोदी उग्र हिंदुत्व के महारथी बनकर उभरे. उन्होंने इसे गुजरात मॉडल के विकास की पैकिंग के साथ पेश किया. लेकिन पैकिंग का कितना महत्व है. असल चीज तो अंदर का माल है. हिंदुत्व बीजेपी का स्थायी भाव है. उसकी राजनीति का मूल है. उदारवादी कुछ भी खुशफहमियां पाल लें, सच्चाई यही है कि अब इस ब्रैंड की राजनीति और तीखी होगी. ध्रुवीकरण और भी तत्परता के साथ होगा. और इसके चुनावी नतीजे भी दिखेंगे. शायद तब, जब उसकी सबसे ज्यादा जरूरत हो. नरेंद्र मोदी, अमित शाह और योगी आदित्यनाथ, ये सब एक ही सुर में राग अलाप रहे हैं. बस टीवी स्टूडियो में बैठे आलोचक इन्हें अलग अलग ढंग से सुनने का ढोंग कर रहे हैं.
आप इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के मैनेजिंग एडिटर कमलेश सिंह को ट्विटर पर भी फॉलो कर सकते हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @KAMLESHKSINGH