देश के 68वें स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी राष्ट्र के नाम अपने संदेश में सामाजिक सद्भाव को प्रमुखता दी. अपने संदेश में राष्ट्रपति ने सभी देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की बधाई दी और कहा कि देश के शासन में ऐसे रचनात्मक चिंतन की जरूरत है जो त्वरित-गति से विकास में सहयोग दे और सामाजिक सौहार्द का भरोसा दिलाए. उन्होंने कहा कि राष्ट्र को पक्षपातपूर्ण उद्वेगों से ऊपर रखना होगा.
राष्ट्रपति ने अपना संदेश अंग्रजी भाषा में दिया. हिंदी में पढ़ें राष्ट्रपति का पूरा संदेश-
प्यारे देशवासियों,
हमारी स्वतंत्रता की 67वीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर मैं आपका और दुनियाभर में सभी भारतवासियों का हार्दिक अभिनंदन करता हूं. मैं हमारी सशस्त्र सेनाओं, अर्ध-सैनिक बलों तथा आंतरिक सुरक्षा बलों के सदस्यों को विशेष बधाई देता हूं. हाल ही में ग्लासगो में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने वाले और सम्मान पाने वाले सभी खिलाड़ियों को भी मैं बधाई देता हूं.
मित्रों...
स्वतंत्रता एक उत्सव है, आजादी एक चुनौती है. आजादी के 68वें वर्ष में, हमने तीन दशकों के बाद एक उल्लेखनीय शांतिपूर्ण मतदान प्रक्रिया के द्वारा एक दल के लिए स्पष्ट बहुमत सहित एक स्थिर सरकार को चुनते हुए अपनी व्यक्तिगत तथा सामूहिक स्वतंत्रताओं की शक्ति को पुन: व्यक्त किया है. मतदाताओं द्वारा डाले जाने वाले मतों की संख्या पिछले चुनावों के 58 प्रतिशत की तुलना में बढ़कर 66 प्रतिशत हो जाना, हमारे लोकतंत्र की ऊर्जस्विता को दर्शाता है. इस उपलब्धि ने हमें नीतियों, परिपाटियों तथा प्रणालियों में सुधार करते हुए शासन की चुनौतियों का मुकाबला करने का अवसर प्रदान किया है जिससे हमारी जनता की व्यापक आकांक्षाओं को परिकल्पना, समर्पण, ईमानदारी, गति तथा प्रशासनिक क्षमता के साथ पूर्ण किया जा सके.
शिथिल मस्तिष्क गतिविहीन प्रणालियों का सृजन करते हैं जो विकास के लिए अड़चन बन जाती हैं. भारत को शासन में ऐसे रचनात्मक चिंतन की जरूरत है जो त्वरित-गति से विकास में सहयोग दे तथा सामाजिक सौहार्द का भरोसा दिलाए. राष्ट्र को पक्षपातपूर्ण उद्वेगों से ऊपर रखना होगा. जनता सबसे पहले है.
मित्रों, लोकतंत्र में जनता के कल्याण हेतु हमारे आर्थिक एवं सामाजिक संसाधनों के दक्षतापूर्ण एवं कारगर प्रबंधन के लिए शक्तियों का प्रयोग ही सुशासन कहलाता है. इस शक्ति का प्रयोग, राज्य की संस्थाओं के माध्यम से संविधान के ढांचे के तहत किया जाना होता है. समय के बीतने तथा पारितंत्र में बदलाव के साथ कुछ विकृतियां भी सामने आती हैं जिससे कुछ संस्थाएं शिथिल पड़ने लगती हैं. जब कोई संस्था उस ढंग से कार्य नहीं करती जैसी उससे अपेक्षा होती है तो हस्तक्षेप की घटनाएं दिखाई देती हैं. यद्यपि कुछ नई संस्थाओं की आवश्यकता हो सकती है परंतु इसका वास्तविक समाधान, प्रभावी सरकार के उद्देश्य को पूरा करने के लिए मौजूदा संस्थाओं को नया स्वरूप देने और उनका पुनरुद्धार करने में निहित है.
सुशासन वास्तव में, विधि के शासन, सहभागितापूर्ण निर्णयन, पारदर्शिता, तत्परता, जवाबदेही, साम्यता तथा समावेशिता पर पूरी तरह निर्भर होता है. इसके तहत राजनीतिक प्रक्रिया में सिविल समाज की व्यापक भागीदारी की अपेक्षा होती है. इसमें युवाओं की लोकतंत्र की संस्थाओं में सघन सहभागिता जरूरी होती है. इसमें जनता को तुरंत न्याय प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है. मीडिया से नैतिक तथा उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा होती है.
हमारे जैसे आकार, विविधताओं तथा जटिलताओं वाले देश के लिए शासन के संस्कृति आधारित मॉडलों की जरूरत है. इसमें शक्ति के प्रयोग तथा उत्तरदायित्व के वहन में सभी भागीदारों का सहयोग अपेक्षित होता है. इसके लिए राज्य तथा इसके नागरिकों के बीच रचनात्मक भागीदारी की जरूरत होती है. इसमें देश के हर घर और हर गांव के दरवाजे तक तत्पर प्रशासन के पहुंचने की अपेक्षा की जाती है.
प्यारे देशवासियों, गरीबी के अभिशाप को समाप्त करना हमारे समय की निर्णायक चुनौती है. अब हमारी नीतियों को गरीबी के उन्मूलन से गरीबी के निर्मूलन की दिशा में केंद्रित होना होगा. यह अंतर केवल शब्दार्थ का नहीं है उन्मूलन एक प्रक्रिया है जबकि निर्मूलन समयबद्ध लक्ष्य. पिछले छह दशकों में गरीबी का अनुपात 60 प्रतिशत से अधिक की पिछली दर से कम होकर 30 प्रतिशत से नीचे आ चुका है. इसके बावजूद, हमारी जनता का लगभग एक तिहाई हिस्सा गरीबी की रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहा है. निर्धनता केवल आंकड़ा नहीं है.
निर्धनता का चेहरा होता है और वह तब असहनीय हो जाता है जब यह बच्चे के मन पर अपने निशान छोड़ जाता है. निर्धन अब एक और पीढ़ी तक न तो इस बात का इंतजार कर सकता है और न ही करेगा कि उसे जीवन के लिए अनिवार्य- भोजन, आवास, शिक्षा तथा रोजगार तक पहुंच से वंचित रखा जाए. आर्थिक विकास से होने वाले लाभ निर्धन से निर्धनतम् व्यक्ति तक पहुंचने चाहिए.
पिछले दशक के दौरान, हमारी अर्थव्यवस्था में प्रतिवर्ष 7.6 प्रतिशत की औसत दर से वृद्धि हुई. हालांकि पिछले दो वर्षों के दौरान यह वृद्धि 5 प्रतिशत से कम की अल्प दर पर रही परंतु मुझे वातावरण में नवीन ऊर्जा तथा आशावादिता महसूस हो रही है. पुनरुत्थान के संकेत दिखाई देने लगे हैं. हमारा बाह्य सेक्टर सशक्त हुआ है.
वित्तीय स्थिति मजबूत करने के उपायों के परिणाम दिखाई देने लगे हैं. कभी-कभार तेजी के बावजूद, महंगाई में कमी आने लगी है. तथापि, खाद्यान्न की कीमतें अभी भी चिंता का कारण बनी हुई हैं. पिछले वर्ष खाद्यान्न के रिकॉर्ड उत्पादन से कृषि सेक्टर को 4.7 प्रतिशत की अच्छी दर से बढ़ने में सहायता मिली. पिछले दशक में, रोजगार में लगभग प्रति वर्ष 4 प्रतिशत की औसत दर से वृद्धि हुई. विनिर्माण सेक्टर फिर से उभार पर है. हमारी अर्थव्यवस्था के 7 से 8 प्रतिशत की उच्च विकास दर से बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो चुका है, जो समतापूर्ण विकास के लिए पर्याप्त संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अत्यंत आवश्यक है.
प्यारे देशवासियों, अर्थव्यवस्था विकास का भौतिक हिस्सा है. शिक्षा उसका आत्मिक हिस्सा है. ठोस शिक्षा प्रणाली किसी भी प्रबुद्ध समाज का आधार होती है. हमारी शिक्षण संस्थाओं का यह परम कर्तव्य है कि वे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करें और युवाओं के मस्तिष्क में मातृभूमि से प्रेम, सभी के लिए दया, बहुलवाद के लिए सहनशीलता, महिलाओं के लिए सम्मान, दायित्वों का निर्वाह, जीवन में ईमानदारी, आचरण में आत्मसंयम, कार्य में जिम्मेदारी तथा अनुशासन के बुनियादी सभ्यतागत मूल्यों का समावेश करें. बारहवीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक हम अस्सी प्रतिशत की साक्षरता दर प्राप्त कर चुके होंगे. परंतु क्या हम यह कह पाएंगे कि हमने अच्छा नागरिक तथा सफल पेशेवर बनने के लिए, अपने बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा कौशल प्रदान किए हैं?
प्यारे देशवासियों, हमारे विचार हमारे वातावरण से प्रभावित होते हैं. 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवती तादृशी' अर्थात् 'जैसे आपके विचार होते हैं, वैसा ही फल मिलता है.' स्वच्छ वातावरण से स्वच्छ विचार उपजते हैं. स्वच्छता आत्म-सम्मान का प्रतीक है. ईसा पूर्व चौथी सदी ईसवी में मेगस्थनीज, पांचवीं सदी ईसवी में फाह्यान और सातवीं सदी ईसवी में ह्वेनसांग जैसे प्राचीन पर्यटक जब भारत आए तो उन्होंने यहां पर योजनाबद्ध बस्तियों और बेहतरीन शहरी अवसरंचनाओं सहित कुशल प्रशासनिक तंत्रों का उल्लेख किया था. अब हमें क्या हो गया है? हम अपने वातावरण को गंदगी से मुक्त क्यों नहीं रख सकते? महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ की स्मृति के सम्मान स्वरूप 2019 तक भारत को स्वच्छ राष्ट्र बनाने का प्रधानमंत्री का आह्वान सराहनीय है, लेकिन यह लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है जब प्रत्येक भारतीय इसे एक राष्ट्रीय मिशन बना ले. यदि हम थोड़ा सा भी ध्यान रखें तो हर सड़क, हर मार्ग, हर कार्यालय, हर घर, हर झोपड़ी, हर नदी, हर झरना और हमारे वायुमंडल का हर एक कण स्वच्छ रखा जा सकता है. हमें प्रकृति को सहेज कर रखना होगा ताकि प्रकृति भी हमें सहेजती रहे.
मेरे प्यारे देशवासियों, प्राचीन सभ्यता होने के बावजूद, भारत आधुनिक सपनों से युक्त आधुनिक राष्ट्र है. असहिष्णुता और हिंसा लोकतंत्र की मूल भावना के साथ धोखा है. जो लोग उत्तेजित करने वाले भड़काऊ जहरीले उद्गारों में विश्वास करते हैं उन्हें न तो भारत के मूल्यों की और न ही इसकी वर्तमान राजनीतिक मन:स्थिति की समझ है. भारतवासी जानते हैं कि आर्थिक या सामाजिक, किसी भी तरह की प्रगति को शांति के बिना हासिल करना कठिन है. इस अवसर पर महान शिवाजी के उस पत्र को याद करना उपयुक्त होगा जो उन्होंने जजिया लगाए जाने पर औरंगजेब को लिखा था.
शिवाजी ने बादशाह से कहा था कि शाहजहां, जहांगीर और अकबर भी इस कर को लगा सकते थे 'परंतु उन्होंने अपने दिलों में कट्टरता को जगह नहीं दी क्योंकि उनका मानना था कि हर बड़े अथवा छोटे इंसान को ईश्वर ने विभिन्न मतों और स्वभावों के नमूनों के रूप में बनाया है.' शिवाजी के 17वीं शताब्दी के इस पत्र में एक संदेश है, जो सार्वभौमिक है. इसे वर्तमान समय में हमारे आचरण का मार्गदर्शन करने वाला जीवंत दस्तावेज बन जाना चाहिए.
हम, इस संदेश को ऐसे समय में भूलने का खतरा नहीं उठा सकते जब बढ़ते हुए अशांत अंतरराष्ट्रीय परिवेश ने हमारे क्षेत्र और उससे बाहर खतरे पैदा कर दिए हैं, जिनमें से कुछ तो पूरी तरह दिखाई दे रहे हैं और कुछ अभूतपूर्व उथलपुथल के बीच से धीरे-धीरे निकल कर बाहर आ रहे हैं. एशिया और अफ्रीका के कुछ हिस्सों में कट्टरवादी लड़ाकों द्वारा धार्मिक विचारधारा पर आधारित भौगोलिक सत्ता कायम करने के लिए राष्ट्रों के नक्शों को दोबारा खींचने के प्रयास किए जा रहे हैं. भारत इसके दुष्परिणामों को महसूस करेगा, खासकर इसलिए क्योंकि यह उन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है जो उग्रवाद के सभी स्वरूपों को खारिज करते हैं.
भारत लोकतंत्र, संतुलन, अंतर एवं अंत:धार्मिक समरसता की मिसाल है. हमें अपने पंथनिरपेक्ष स्वरूप की पूरी ताकत के साथ रक्षा करनी होगी. हमें अपनी सुरक्षा तथा विदेश नीतियों में कूटनीति की कोमलता के साथ ही फौलादी ताकत का समावेश करना होगा, इसके साथ ही समान विचारधारा वाले तथा ऐसे अन्य लोगों को भी उन भारी खतरों को पहचानने के लिए तैयार करना होगा जो उदासीनता के अंदर पनपते हैं.
प्यारे देशवासियों, हमारा संविधान हमारी लोकतांत्रिक संस्कृति की परिणति है, जो हमारे प्राचीन मूल्यों को प्रतिबिम्बित करता है. मुझे यह देखकर कष्ट होता है कि इस महान राष्ट्रीय विरासत पर अविवेकपूर्ण ज्यादती का खतरा बढ़ता जा रहा है. स्वतंत्रता का हमारा अधिकार निरंतर पल्लवित हो रहा है और मेरी कामना है कि सदैव ऐसा रहे परंतु जनता के प्रति हमारे कर्तव्य का क्या होगा? मैं कभी-कभी सोचता हूं कि क्या हमारा लोकतंत्र बहुत अधिक शोरगुल युक्त हो गया है? क्या हम विचारशीलता एवं शांतिपूर्ण चिंतन की कला को खो चुके हैं? क्या अब समय नहीं आ गया है कि हम अपने खूबसूरत लोकतंत्र को बनाए रखने तथा मजबूती प्रदान करने वाली अपनी संस्थाओं की श्रेष्ठता और गौरव को पुन:स्थापित करें? क्या संसद को एक बार फिर से गंभीर विचार मंथन और अच्छी बहस से निर्मित कानूनों की एक महान संस्था नहीं बन जाना चाहिए? क्या हमारी अदालतों को न्याय का मंदिर नहीं बनना चाहिए? इस सब के लिए सभी भागीदारों के सामूहिक प्रयास अपेक्षित होंगे.
68 वर्ष की आयु में एक देश बहुत युवा होता है. भारत के पास 21वीं सदी पर वर्चस्व कायम करने के लिए इच्छाशक्ति, ऊर्जा, बुद्धिमत्ता, मूल्य और एकता मौजूद है. गरीबी से मुक्ति की लड़ाई में विजय पाने का लक्ष्य तय किया जा चुका है, यह यात्रा केवल उनको ही विकट लगेगी जिनमें विश्वास का अभाव है. एक पुरानी कहावत है, 'सिद्धिर्भवति कर्मजा' अर्थात् 'सफलता कर्म से ही उत्पन्न होती है.'
अब समय आ गया है कि हम कार्य में जुट जाएं.
जय हिंद!