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मोदी का हल्ला, लेकिन बढ़त कांग्रेस को

भारतीय जनता पार्टी इस समय अपनी पूरी ताकत नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर उभारने में झेंक रही हैं. मोदी जहां जाते हैं, जो बोलते हैं, वह सुर्खियों में आ जाता है. मोदी तो क्या, उनके राजनीतिक चेले अमित शाह भी उत्तर प्रदेश के प्रभारी बनने के बाद से बेहतर सामाचार सामग्री प्रदाता बनकर उभरे हैं.

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नरेंद्र मोदी
नरेंद्र मोदी

भारतीय जनता पार्टी इस समय अपनी पूरी ताकत नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर उभारने में झेंक रही हैं. मोदी जहां जाते हैं, जो बोलते हैं, वह सुर्खियों में आ जाता है. मोदी तो क्या, उनके राजनीतिक चेले अमित शाह भी उत्तर प्रदेश के प्रभारी बनने के बाद से बेहतर सामाचार सामग्री प्रदाता बनकर उभरे हैं.

लेकिन ठंडे दिमाग से देखा जाए तो मोदी के इस उभार ने बीजेपी को विवादों के अलावा क्या दिया है. वे चुनाव प्रचार समिति के मुखिया भले ही एक महीने पहले बने हों, लेकिन उनका नाम हवा में लंबे समय से तैर रहा है. और इसी दौर में बीजेपी उत्तराखंड की सत्ता कांग्रेस के हाथ खो बैठी. इसके बाद हिमाचल में भी बीजेपी का सूर्यास्त हो गया.

कर्नाटक में मोदी ने खूब प्रचार किया लेकिन नतीजा वही निकला जिसका पहले से अंदाजा था. किसी दक्षिणी राज्य में पहली बार बनी बीजेपी सरकार बुरी तरह चुनाव हारी और कमान कांग्रेस के हाथ चली गई. पार्टी को अपने पैरों पर खड़ा करने वाले लालकृष्ण आडवाणी और मोदी के बीच कड़वाहट इस हद तक बढ़ी की बुजुर्ग नेता ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. बाद में संघ के मान मनव्वल के बाद आडवाणी मान तो गए लेकिन बीजेपी और संघ के इतिहास में पहली बार संघ इतना राजनैतिक दिखा.

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संघ प्रमुख ने बीजेपी और आडवाणी का प्रेम का धागा जोड़ तो दिया, लेकिन इसमें पड़ी गांठ नागपुर के डॉक्टर मिटा नहीं सके. और सबसे बड़ा झ्टका पार्टी को बिहार में लगा, जहां जेडीयू के साथ उसका डेढ़ दशक से पुराना रिश्ता एक झटके में टूट गया. इसी दौर-दौरा में बीजेपी ने झरखंड की अपनी सरकार भी गंवा दी. मोदी को लेकर बीजेपी जितना आगे बढ़ती जा रही है, उसकी जमीन उतनी ही खिसकती जा रही है.

उधर अनगिनत घोटालों के मनके अपने कंठहार में सजा चुकी यूपीए-दो सरकार चले ही जा रही है. उसका कोई सहयोगी जब नाराज होता है, उससे पहले ही कांग्रेस नए सहयोगी को तैयार रखती है. कांग्रेस का रवैया देखने में राजनीतिक सौदेबाजी लग सकता है, लेकिन वह कामयाब तो हो ही रही है. पहले ममता गईं, फिर करुणानिधि. और जब लगा कि कांग्रेस की नैया डोल रही है तो धुर विरोधी सपा और बीएसपी एक साथ उसके साथ आ गए. अब जब सपा आंखें तरेर रही है तो कांग्रेस के पास जेडीयू की संजीवनी मौजूद है.

जेडीयू से कांग्रेस की गलबहियों को सिर्फ वक्त की बात कहना नाइंसाफी होगी. दरअसल यह तो कांग्रेस की दूरगामी रणनीति का हिस्सा है. कांग्रेस शुरू से इस फेर में थी कि एक न एक दिन सेकुलरिज्म का पत्ता चलेगा और जेडीयू बीजेपी से तौबा करेगी. अगर ऐसा नहीं था तो कांग्रेस ने उस पर जान छिडक़ने वाले लालू प्रसाद यादव को यूपीए दो में लाख कोशिशों के बावजूद शामिल नहीं होने दिया, जबकि राजद से एक सीट ज्यादा रखने वाले अजित सिंह केंद्र में नागरिक उड्डयन मंत्री हैं. अगर सब कुछ इसी रफ्तार पर चलता है तो जल्द ही झरखंड में झमुमो की सरकार कांग्रेस के सहयोग से खड़ी हो जाएगी और बदले में कांग्रेस को लोकसभा के लिए राज्य में 10 सीटों पर लडऩे का हक मिल जाएगा.

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यानी कांग्रेस बड़ी खामोशी से अपनी रणनीति पर आगे बढ़ रही है. ऐन चुनाव से पहले खाद्य सुरक्षा अध्यादेश लाकर कांग्रेस ने अपनी रणनीतिक तड़प को उजागर कर दिया है. सबसे मजे की बात है कि बीजेपी ने मोदी का हल्ला मचाकर लोगों के दिमाग से कांग्रेस के घोटालों की याद को ही कमजोर किया है. और बीच-बीच में होने वाले राघवजी जैसे प्रकरण बीजेपी की मुसीबतें बढ़ाने वाले ही साबित होंगे. कांग्रेस चुप्पी में जीत की उम्मीद लगाए बैठी है तो बीजेपी मोदी की हुंकार को विजयनाद मान रही है. अब तक की बाजी में कांग्रेस आगे है. लेकिन कल की नेतागिरी आज के हालात से तय हो यह जरूरी नहीं है. क्योंकि अगर ऐसा होता तो सरकारें बनाने के लिए चुनाव कराने की जरूरत ही नहीं होती. वैसे भी बातों-बातों में सरकार गिर भले ही जाए, लेकिन बनते तो किसी ने नहीं देखी है.

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