scorecardresearch
 

पूर्वांचल है नमो-नमो तो पूरी मोदी सरकार क्यों उतरी प्रचार में?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एकसाथ कराए जाने चाहिए ताकि सरकार को काम करने का वक्त मिले. अलग-अलग समय पर होने वाले चुनावों और उसके पहले की आचार संहिताएं सरकार का कीमती वक्त बरबाद कर देती हैं.

Advertisement
X
मोदी वाराणसी में तूफानी रैलियां करने वाले हैं
मोदी वाराणसी में तूफानी रैलियां करने वाले हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर यह कहते पाए जाते हैं कि देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एकसाथ कराए जाने चाहिए ताकि सरकार को काम करने का वक्त मिले. अलग-अलग समय पर होने वाले चुनावों और उसके पहले की आचार संहिताएं सरकार का कीमती वक्त बरबाद कर देती हैं.

वही प्रधानमंत्री अपनी जनसभाओं में बार-बार दावा कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा को भारी बहुमत से जीत हासिल होने वाली है. भारतीय जनता पार्टी के प्रचार और नेताओं के बयानों को मानें तो मिशन 265 से कहीं आगे जाकर अबकी बार, 300 पार वाले नारे और दावे पार्टी की ओर से किए जा रहे हैं.

वाराणसी के जरिए पूर्वांचल को साधने की तैयारी में मोदी, ये है रणनीति..

यानी उत्तर प्रदेश में अपनी जीत को लेकर भाजपा आश्वस्त है . कोई संदेह नहीं. जीत थाली में रखकर सामने सजा दी गई है. अब न अतिशय प्रचार की ज़रूरत है और न ही गलियों, रैलियों में वक्त बरबाद करने की. भाजपा की मानें तो उनके लिए अब यह सरकार बनाने की शुरुआती तैयारी का वक्त है.

Advertisement

लेकिन स्थिति ऐसी है नहीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है वाराणसी. यहां की सीटों पर जो स्थिति बनी हुई है उसने पार्टी और प्रधानमंत्री दोनों की नींद उड़ा रखी है. मोदी के लिए गुजरात अगर मॉडल है तो बनारस उनकी ज़मीन है. और ज़मीन पर हार ज़मीन खिसकने से कम नहीं है. शायद यही चिंता पार्टी और प्रधानमंत्री को परेशान कर रही है.

भाजपा का बनारस में प्रचार तंत्र खुद इसकी चुगली करता नज़र आता है. सरकार के कामकाज के लिए वक्त की दुहाई देने वाले प्रधानमंत्री का कैबिनेट बनारस में गली गली घूमता नज़र आ रहा है. एक से एक केंद्रीय मंत्री, पार्टी के बड़े नेता, प्रबंधक और जातीय गणित के हिसाब से अनुकूल चेहरे, सबको लाइन बनाकर बनारस में उतार दिया गया है.

ऐसा लग रहा है कि भाजपा दरअसल बनारस में किसी सिकंदर के खिलाफ पूरी सेना लेकर खड़ी है. उसे हार का भय है. उसे अस्तित्व और गढ़ बचाने की चिंता है. अगर ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री सहित कैबिनेट के तमाम नेताओं को बनारस में दर-दर दस्तक देने की क्या ज़रूरत थी. वो दिल्ली में अपना काम करते रहते. प्रदेश और ज़िले के भाजपा नेता अपना प्रचार का काम जारी रखते. सरकार अपना काम करती, पार्टी अपना काम करती.

Advertisement

एक जीते हुए चुनाव के लिए जान लगा देना खुद आत्मविश्वास की कमी का खुलासा करता है. स्मृति ईरानी महिलाओं को साधने में लगी हैं, रविशंकर प्रसाद, धर्मेद्र प्रधान तो छोड़िए, मोदी अपनी पूरी त्रिमूर्ति (मोदी, शाह और जेटली) के साथ मैदान में उतर आए हैं. प्रधानमंत्री रोडशो करेंगे, रैलियां करेंगे, बाकी लोग चौराहों, कोनों पर पूड़ी-सब्ज़ी और चाय की दुकानों तक माहौल बनाने के लिए उतार दिए गए हैं.

यहां प्रश्न केवल कथनी और करनी के फर्क का नहीं है. चिंता का विषय यह भी है कि जब बजट से लेकर नीतियों तक दिल्ली में बहुत कुछ संभालने और तय करने को बाकी है तो फिर पूरी सरकार को बनारस में क्यों झोंका जा रहा है. यह कितना उचित है. पहले के प्रधानमंत्रियों ने भी क्या ऐसा किया है और अगर किया भी है तो एक जमे-जमाए प्रधानमंत्री को इस तरह देश की सरकार को क्षेत्र की लड़ाई में झोंक देना क्या नैतिक और उचित है.

सत्ता सपनों के जादू गढ़कर, सजाकर और दिखाकर हासिल तो होती है. लेकिन सत्ता में आने के बाद सपनों और कथनों के बजाय साकार होती चीज़ें और करनी के आधार पर मूल्यांकन होता है. केंद्र की सरकार का एक क्षेत्र में पूरी तरह उतरकर प्रचार में जुट जाना इसी मूल्यांकन में कमज़ोर पड़ती सत्ता का संकेत है.

Advertisement

मोदी खुद बता रहे हैं कि लहर खो चुकी है, अब ज़मीन बचाना ज़रूरी है.

Advertisement
Advertisement