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मैंने आज तक औरतों को दंगा करते नहीं देखा: किरण बेदी

दिल्ली गैंगरेप के बाद यह बहस बेहद चर्चित हो चुकी है कि सजा उम्र नहीं, अपराध के मुताबिक तय हो. इंडिया टुडे माइंड रॉक्स समिट-2013 में इस पर बात की देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी, एक्टर और एक्टिविस्ट गुल पनाग और एकेडमीशियन निष्ठा गौतम ने. सबकी राय, उन्हीं के शब्दों में.

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किरण बेदी
किरण बेदी

सेशन टॉपिक: उम्र नहीं क्राइम के हिसाब से तय हो सजा
संदर्भ: दिल्ली गैंग रेप
स्पीकर: किरण बेदी, गुल पनाग, निष्ठा गौतम

सबसे पहले उस बहादुर लड़की ज्योति को सलाम. जो उस शाम जिंदगी से भरपूर होकर अपने बालों में तीन रंग की लड़ी लगाकर फिल्म लाइफ ऑफ पाई देखने गई थी. मगर कुछ दरिंदों ने उसकी जिंदगी छीन ली. उनमें से एक इस वक्त जुवेनाइल होम में बैठा आराम की या तथाकथित सुधार की जिंदगी जी रहा है. क्योंकि उस घिनौने अपराध को करते वक्त कागजों पर उसकी उम्र 18 साल से कुछ महीने कम थी.

दिल्ली गैंगरेप के बाद यह बहस बेहद चर्चित हो चुकी है कि सजा उम्र नहीं, अपराध के मुताबिक तय हो. इंडिया टुडे माइंड रॉक्स समिट-2013 में इस पर बात की देश की पहली महिला आईपीएस अधिकारी किरण बेदी, एक्टर और एक्टिविस्ट गुल पनाग और एकेडमीशियन निष्ठा गौतम ने. सबकी राय, उन्हीं के शब्दों में.

खतरनाक बाल अपराधियों को फांसी नहीं तो उम्रकैद हो: किरण बेदी

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मैं हिंदी में बोलूंगी क्योंकि दिल की बात अपनी जबान में ही निकलती है. मैं कुछ ऐसी चीजें बताऊंगी,जिससे आपका व्यू बने.

मां की फरमाइश पर बनाया औरतों का दारू सॉन्ग: हार्ड कौर

1919 में एक जेल कमेटी बनी थी. उसमें एक ब्रिटिशर था कार्टर, उसने कहा कि बच्चों का शोषण हो रहा है, हमें बच्चों की एज का अंतर करना चाहिए. उनके अपराध की अलग श्रेणी होनी चाहिए.

पहली बार स्टेट ऑफ मद्रास में 1921 में जुवेनाइल एक्ट बना. यूनाइटेड नेशंस में इसकी चर्चा बहुत बाद में शुरू हुई. वहां काम बहुत सुस्त रफ्तार से चलता है.  आज 2013 है. 1985 में स्टैंडर्ड बन रहा था जुवेनाइल क्राइम में. इसके आधार पर 2001 में जुवेनाइल एक्ट बना. इसमें दो पैरामीटर थे. फिजिकल और मेंटल मैच्योरिटी के.

इंडिया का कानून क्या कहता है
7 साल तक कोई जुर्म नहीं
7-12 साल तक जुर्म हो, क्या वजह रही जुवेनाइल बोर्ड जांचेगा.
12-18 कैटिगरी में सोशल जस्टिस के लिए 3 साल की सुधार गृह सजा है.

दूसरे देशों में क्या है प्रोसेस
यूएस में 13-15 की एज ग्रुप का अपराधी अगर बड़ा क्राइम करता है, तो उसे वयस्क अपराध की श्रेणी में रखा जाता है. इंडिया में भी ऐसा होना चाहिए. अब बात आती है रिफॉर्म की. उसके लिए सरकार को ठोस पहल करनी चाहिए. लॉ जस्टिस के आड़े नहीं आना चाहिए.

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मेरा मानना है कि जज को ऐसे अपराधियों को अगर फांसी नहीं तो कम से कम उम्र कैद देनी चाहिए, ताकि मरें वो जेल में ही.

रेप और मर्डर के जघन्य मामलों में न मिले उम्र की छूट: गुल पनाग

जुवेनाइल जस्टिस केयर एंड प्रोटेक्शन एक्ट 2001 इस सोच के साथ बना था कि नाबालिगों के पास सही फैसला लेने और भविष्य का सोचने की पूरी क्षमता नहीं होती. मगर इसमें भी अलग-अलग श्रेणी का फेर है. यह दिमागी मैच्योरिटी की बात है. मुझे लगता है कि किसी भी मसले में सजा इस तरह की होनी चाहिए कि लगे न्याय हुआ है.

मैं तो फुटबॉल खेलना चाहता था: लिएंडर पेस

बात होती है सुधार की. मुझे एक रिपोर्ट याद आती है, जिसके मुताबिक एक नाबालिग अपराधी ने छह साल की बच्ची से रेप किया. उसे टुकड़े-टुकड़े कर काट डाला. तीन साल बाद वह जेल से आ गया और पीड़ित परिवार के पास जाकर बोला, मैं वापस आ गया हूं और अब तुम्हारी दूसरी बेटी के साथ भी यही करूंगा. अब आप बताइए कानून ने कितना सुधार दिया उस लड़के को.

यूएस में एक कंसेप्ट है, लेजिस्टेटिव वेबर. जिसमें रेप मर्डर जैसे अपराध में अगर अपराधी की नीयत स्थापित हो चुकी है तो सजा देते वक्त उसकी उम्र का ख्याल नहीं किया जाता.

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एक क्रिमिनल को कभी ऐसा नहीं लगना चाहिए कि वह क्राइम करेगा और उम्र के चलते बाहर आ जाएगा और उसका रिकॉर्ड भी बेदाग रहेगा.

फिर सहमति से सेक्स की उम्र 16 क्यों है: निष्ठा गौतम
 नाबालिग अपराधों में से 60 फीसदी 16 से 18 के एज ग्रुप ने किया है. इसमें एक और आंकड़ा जोड़ लीजिए. तो 12-16 के भी तीस फीसदी लोग हैं. तो आपको इस उम्र पर गंभीरता से सोचना होगा. आप सहमति से सेक्स के लिए 16 साल की उम्र का नियम बना रहे हैं. मगर जब कोई रेप करता है तो उसके लिए 18 का नियम है. ये कहां का न्याय है.

आज हम यहां खड़े हैं क्योंकि एक बहादुर लड़की ज्योति ने इस घिनौने अपराध को सहा और मरने से पहले बयान दिया. सच का रास्ता खोल दिया. अब हमारी बारी है. मसला सिर्फ फांसी का नहीं है. जरूरत समाज को बदलने की है. क्योंकि सब वहीं से शुरू होता है, वहीं पर खत्म होता है.

सवाल जवाब राउंड

घिनौने अपराध के लिए ईव टीजिंग जैसे हल्के शब्द का इस्तेमाल?

किरण बेदी: मैंने मुजफ्फर नगर दंगों में देखा. बेटियां स्कूल नहीं जा पा रही थीं. मैंने कभी औरतों को दंगा करते नहीं देखा. तो दंगा लगे मगर पुरुषों के लिए. लड़कियों के हाथ में कमान हो, बंदिश न हो उनके लिए. इस तरह से माइंड सेट बदलेगा. कि हम औरतों पर ज्यादा भरोसा करते हैं, तब चीजें बदलेंगी. मैं भले ही दोनों जेंडर को बराबर मानूं, मगर पुलिस अफसर के तौर पर अनुभव अलग रहे. मैं अस्सी के दशक में जब भी पाबंदी लगाती थी तो पुरुषों पर लगाती थी.

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पहली जिम्मेदारी है पेरंट्स की, बराबरी से ट्रीट करें, दूसरी टीचर्स की, कि बराबरी का पाठ, उसकी समझ पढ़ाएं. आज हम आपके सामने बैठे हैं, क्योंकि हम बराबरी के जरिय़े आए हैं. आप इंडिया टुडे ग्रुप में देखिए, ये हुआ है. यहां बेटियां संभाल रही हैं सब कुछ. कब होगा जब गुलाब चंद एंड संस की जगह गुलाब चंद एंड डॉटर्स आएगा.

सवाल औरतों को नहीं बच्चियों को भी बचाने का भी है. सवाल पितृ सत्तात्मक व्यवस्था का है.

गुल पनाग: सबसे पहले पुरुष प्रधान सोच को मिटाना है. हम सब जानते हैं. उसकी शुरुआत घर, स्कूल समाज से होगी, सब जानते हैं. मगर आपका जस्टिस सिस्टम ही पुरुष प्रधान है. तब क्या होगा. लॉ को क्रिमिनल और विक्टिम के हिसाब से देखना होगा, जेंडर के हिसाब से नहीं.

हमारे समाज में महिलाओं पर अत्य़ाचार हुआ है. उनके लिए कदम उठाए जाने चाहिए. मगर मैं आरक्षण के झुनझुने के खिलाफ हूं. मसला ये है कि हमें दूसरे दर्जे का नागरिक न समझा जाए. ये वही देश है, जहां औरतों को सती प्रथा के नाम पर जिंदा जलाया जाता था. इसे रोका गया एक कानून के जरिए और ये कानून अंग्रेजों ने आकर बनाया.

समाज पितृ सत्तात्मक हो सकता है, मगर न्याय व्यवस्था ऐसा कैसे कर सकती है. जरूरत सेक्सिस्ट सोच को बदलने की है और उसके गुनहगारों को सजा देने की है. एक दिन मां कहेगी अपने बेटे से कि तू बड़े होकर मेरा बेटी की तरह ख्याल रखना.

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