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कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार और पेट की गुदगुदी

कैलाश सत्यार्थी जी को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलने की बहुत-बहुत बधाई. पता नहीं क्या बात है कि इस तरह का फील मुझे न तो तब आया, जब प्रोफेसर अमर्त्य सेन को यह पुरस्कार मिला, न तब जब मदर टेरेसा को मिला. पचौरी साहब को मिला, तब तो बिलकुल ही नहीं लगा. लेकिन आपको मिला, तो पेट में गुदगुदी-सी हो रही है.

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कैलाश सत्यार्थी
कैलाश सत्यार्थी

कैलाश सत्यार्थी जी को शांति का नोबेल पुरस्कार मिलने की बहुत-बहुत बधाई. पता नहीं क्या बात है कि इस तरह का फील मुझे न तो तब आया, जब प्रोफेसर अमर्त्य सेन को यह पुरस्कार मिला, न तब जब मदर टेरेसा को मिला. पचौरी साहब को मिला, तब तो बिलकुल ही नहीं लगा. लेकिन आपको मिला, तो पेट में गुदगुदी-सी हो रही है.

वो इसलिए कि आप हमारे बीच के उठने-बैठने वाले आदमी हैं. आपका संगठन जो करता है, वो वर्षों से अखबारों में घटते देखा है. आपके साथ कौन लोग काम करते हैं और कैसे काम करते हैं, यह भी सारे लोग खूब अच्छी तरह से जानते हैं. कहने का मतलब यह कि आप कोई रहस्य के पर्दों में छुपे शख्स नहीं हैं, न ही आप इतने बड़े आदमी बने रहे कि आपके दर्शन दुर्लभ हों. ये तो बिलकुल ऐसे लग रहा है, जैसे बाजूवाले को इतना बड़ा सम्मान मिल गया हो.

लेकिन जब मैं ठहर के सोचता हूं कि मुझे गुदगुदी क्यों हो रही है, तो गहरे कारण समझ आते हैं. पहला तो यह कि हमने महानता की भारी-भरकम परिभाषाएं बना रखी हैं. दूसरा, हमने बड़े काम को अपनी आंख से तौलने के पैमाने खो दिए हैं. बड़ा काम वही है, जो विवादित हो, चर्चित हो, जिसके पीछे मीडिया हो और उसका सेहरा पहनने वाला अदासाज हो. यह जानते हुए भी कि हर जीवन अनमोल है और ऐसे में किसी मजलूम बच्चे को इंसानी जिंदगी मुहैया कराना बहुत बड़ा काम है, हम उसे तौल नहीं पाते. अस्सी हजार बंधुआ मजदूर बच्चों को इंसान की तरह जीने का मौका देना वाकई बड़ा काम है. इसे हम अब समझना चाह रहे हैं, जब दुनिया के सबसे बड़ी गद्दी ने इसे मान लिया.

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लेकिन कोई बड़ी बात नहीं है. भारत सदा से ऐसा ही है. महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ भी तो यही हुआ था. अपनी आत्मकथा जीवन स्मृति में रवींद्रनाथ ने लिखा है कि कैसे पहली बार कोई 20 साल की उम्र में इंगलैंड में एक सज्जन ने उनसे कहा था कि तुम्हारा माथा बहुत ऊंचा है. उन्हें पहली बार अपनी तारीफ सुनने को मिली थी. उससे पहले घर-परिवार में तो उन्हें एक लायबिलिटी ही समझा जाता था. उनकी कविताओं और संवेदनाओं का मोल समझने की हैसियत में गुलाम देश का मध्यम वर्ग नहीं था. आज भी मध्यम वर्ग का चरित्र वही है. क्या पता, जब रवींद्रनाथ को नोबेल मिला, तो बहुतों के पेट में ऐसी ही गुदगुदी हो रही हो, जैसी मुझे आज हो रही है.

(पीयूष बबेले इंडिया टुडे में Principal Correspondent के रूप में कार्यरत हैं.)

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