डिफेंस रिसर्च डेवलपमेंट एंड ऑर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) देश की सुरक्षा व्यवस्था के लिए आधुनिक तकनीक और सीमाओं की हिफाजत के लिए एक से बढ़कर एक हथियार बनाता है. हिमालय की गोद में स्थित डीआरडीओ की प्रयोगशाला न सिर्फ भारतीय फौज के लिए संजीवनी की खोज कर रहा है बल्कि वहां अजूबे भी देखने को मिल रहे हैं.
हजारों फीट की ऊंचाई पर लद्दाख के शहर में डीआरडीओ की प्रयोगशाला हरे-भरे गांव की तरह दिखाई देती है. लेह स्थित डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ हाई ऐल्टिट्यूड रिसर्च प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जय जवान और जय किसान के नारे को एक कदम आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में लद्दाख की इसी ऑर्गेनिक प्रयोगशाला का जिक्र किया था.
दिलचस्प बात यह है कि इस ग्रीन प्रयोगशाला में अब तक डीआरडीओ ने गोभी और कद्दू जैसे ऑर्गेनिक 'बम' तैयार किए हैं. दरअसल, इस प्रयोगशाला में हथियार नहीं बनते हैं बल्कि सरहद पर सीमाओं की हिफाजत करने वाले जवानों को बेहतर खुराक मिले, इसके लिए इस प्रयोगशाला में वैज्ञानिक आधुनिक तकनीक से बेहतरीन पैदावार की ईजाद करते हैं.
डीआरडीओ की हरित क्रांति प्रयोगशाला में फूल गोभी, पत्ता गोभी और दूसरी ऐसी कई सब्जियां उगाई जा रही हैं जिनके पीछे आधुनिक तकनीक सैनिकों की जरूरत और लद्दाख के किसानों की बेहतर आय का लक्ष्य रखा गया. सियाचिन जैसी हड्डियां गला देने वाली हजारों फीट की ऊंचाई पर मुश्किल भरे हालात में सैनिकों को रसद के साथ-साथ बेहतर खुराक मिले, इसके लिए भी डीआरडीओ के वैज्ञानिकों ने बिना मिट्टी के पालक और टमाटर की पौष्टिक पैदावार के लिए तकनीकी जांच की है.
लेह स्थित डिफेंस इंस्टिट्यूट ऑफ हाई ऐल्टिट्यूड रिसर्च यानि डीआईएचएआर के निदेशक ओपी चौरसिया ने बताया कि इस प्रयोगशाला में बिना मिट्टी के कम जगह में खेती कैसी हो और हरी सब्जियां कैसे उगे, उसके लिए हमने इस तकनीक को विकसित किया है. चौरसिया का कहना है कि दुर्गम परिस्थितियों में भी इस तकनीक के जरिए फसल 30 दिन में तैयार हो जाती है.
यहां एक से बढ़कर एक फसलों पर रिसर्च की जा रही है. जुकिनी नामक सब्जी जो आमतौर पर पश्चिमी देशों में पाई जाती है, लद्दाख की इस प्रयोगशाला में उगाई जा रही जुकिनी का आकार और चमक बाजार में मिलने वाले जुकिनी से कहीं बेहतर है.
इतना ही नहीं डीआरडीओ की इस प्रयोगशाला में कद्दू तो हैरतअंगेज है. यहां उगने वाले कद्दू का वजन 40 से 50 किलो तक हो सकता है. वैज्ञानिक डॉक्टर दोरजी आंचुक ने आज तक को बताया कि लेह जैसे सफेद रेगिस्तान में जहां सर्दियों में तापमान माइनस 25 के नीचे चला जाता है, वहां ऐसी सब्जियां उगाना अपने आप में चुनौती है.
इस प्रयोगशाला में तरबूज बम भी देखने को मिला. हैरत वाली बात इसलिए है क्योंकि लद्दाख सफेद रेगिस्तान के नाम से जाना जाता है, जहां साल भर मौसम ठंडा होता है और तरबूज सामान्यतः नदियों के किनारे पाया जाता है.
वैज्ञानिक डॉक्टर सेरिंग का कहना है कि यहां की तकनीक उन किसानों को देते हैं जिससे मैदानी इलाकों में किसान जहां एक हेक्टेयर में डेढ़ लाख रुपए कमाते हैं वहीं लद्दाख में इस फसल से 10 से 12 लाख रुपए कमा सकते हैं.
बता दें कि इसी प्रयोगशाला में अब सोलो नामक पौधे को तराशा जाएगा और उससे जड़ी बूटी बनाई जाएगी. इसी पौधे के बारे में पीएम मोदी ने अपने सम्बोधन में बताया था. इस पौधे को लद्दाखी भाषा में सोनू कहा जाता है और इसका वैज्ञानिक नाम रेडियोला है
इसके बारे में डीआरडीओ की प्रयोगशाला के निदेशक डॉक्टर ओपी चौरसिया ने बताया कि इसमें शारीरिक क्षमता को बढ़ाने वाली हाई एल्टीट्यूड सिकनेस से निपटने वाली रेडिएशन और कैंसर से लड़ने समेत हर बीमारियों से लड़ने की क्षमता है. अगर सियाचिन जैसे पहाड़ों में बैठे हमारे फौजियों को इससे बनी दवाई मिले तो उनकी क्षमता कई गुना ज्यादा बढ़ जाएगी.