बात 30 साल पहले की है, यानी 24 जून 1989 को जब एक तोप ने लोकसभा में पूरे विपक्ष को एकजुट कर दिया था. वह भी तब जब विपक्ष का कोई नेता नहीं था. सत्ता पक्ष का एक मंत्री अघोषित रूप से विपक्ष का नेता बन गया था. उसी के बाद विपक्ष के 110 सांसदों में से 106 ने इस्तीफा दे दिया था. यह दिन भारतीय राजनीति और खास तौर पर कांग्रेस के लिए भूचाल लाने वाला साबित हुआ. मामला 1437 करोड़ रुपए के बोफोर्स घोटाले का था. जिसमें स्वीडन की कंपनी एबी बोफोर्स और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार के साथ 155 मिमी के 400 हॉविट्जर तोपों का सौदा हुआ था.
1986 में हुए बोफोर्स डील में दलाली और भ्रष्टाचार का खुलासा 1987 में स्वीडिश रेडियो ने किया. आरोप था कि कंपनी ने सौदे के लिए भारत के नेताओं और रक्षा विभाग के अधिकारी को 60 करोड़ रुपए घूस दिए हैं. इसके बाद देश के मीडिया में भी यह खबर तेजी से फैली. आरोप लगने के बाद कैग ने इसकी जांच की थी. कैग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि हथियारों को मानकों का उलंघन करके खरीदा गया था. इसके साथ कैग ने यह भी बताया कि हथियारों की डिलीवरी में जानबूझकर देरी की गई.
1989 में ही चुनाव होने वाले थे. राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार के दोबारा चुनाव जीतने की पूरी उम्मीद थी, लेकिन अचानक से समय बदला, राजनीति बदल गई. लेकिन विपक्ष के एकसाथ आने से पासा पलट गया. उस समय विपक्ष के पास कोई नेता नहीं था, लेकिन सबने मिलकर एकता दिखाई और सत्ता पक्ष की नाक में दम कर दिया था.
महत्वपूर्ण पद मिलने के बावजूद वीपी सिंह बन गए थे राजीव गांधी के कट्टर आलोचक
अपनी ईमानदार छवि से रत्तीभर भी समझौता न करने वाले तत्कालीन रक्षामंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इस स्कैंडल को सार्वजानिक कर दिया था. कैग की रिपोर्ट और वीपी सिंह के खुलासे के बाद विपक्ष ने मांग की कि राजीव गांधी इस्तीफा दें. बाद में जब राजीव ने इस्तीफा नहीं दिया तो विपक्षी सांसदों ने इस्तीफा दे दिया. इसके बाद विपक्ष की एकजुटता से 404 सीटें जीतकर आई कांग्रेस की पूर्ण बहुमत वाली सरकार की जड़ें तक हिल गई थीं. बोफोर्स घोटाले से लेकर एलटीटीई और श्रीलंका सरकार के बीच गृह युद्ध तक कई मोर्च पर राजीव सरकार बुरी तरह से घिर चुकी थी. सरकार में रक्षा मंत्रालय का कार्यभार संभाल रहे वीपी सिंह ही राजीव गांधी के कट्टर आलोचक बनकर उभरे. क्योंकि राजीव गांधी ने 1987 में वीपी सिंह के मंत्रिमंडल से भी निकाल दिया था.
जनता दल पार्टी बनाई और फिर बाद में सरकार भी
राजीव गांधी की इन सभी कार्रवाई से नाराज विश्वनाथ प्रताप सिंह ने न केवल कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया, बल्कि अपनी लोकसभा की सीट भी छोड़ दी. इस लड़ाई में अरुण नेहरू और आरिफ मोहम्मद खान जैसे कद्दावर कांग्रेसी नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ आ खड़े हुए. 11 अक्टूबर 1988 को जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) का विलय करके जनता दल नामक नया राजनैतिक संगठन तैयार किया गया. जल्द ही, द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (डीएमके), तेलुगु देशम पार्टी (तेदेपा) और असम गण परिषद (अगप) जैसी कई क्षेत्रीय पार्टियां भी जनता दल के साथ आ खड़ी हुईं. इन्हीं पार्टियों को मिलाकर एक गठबंधन तैयार किया गया. जिसे नेशनल फ्रंट का नाम दिया गया. 1989 के लोकसभा चुनाव में नेशनल फ्रंट मजबूती के साथ कांग्रेस के खिलाफ चुनाव में उतारा. नेशनल फ्रंट ने इस चुनाव में कुल 244 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए, जिसमें 143 उम्मीदवार चुनाव जीतने में सफल रहे.
नेहरू और इंदिरा के समय भी नहीं था विपक्ष के नेता
24 जून 1989 की घटना छोड़ दे तो पिछले 70 वर्षों में कभी भी मजबूत विपक्ष नहीं बन सका. हमेशा कमजोर विपक्ष ही दिखाई पड़ा.आज भी देश में विपक्ष जैसी चीज नजर नहीं आती. 2014 के चुनावों के बाद नेता विपक्ष बनाने के लिए भी किसी दल के पास संख्या नहीं थी. विपक्ष के नेता के लिए जरूरी है कि किसी दल के पास कम से कम 10% (55 सांसद) हों. लेकिन कांग्रेस के सिर्फ 44 सांसद ही थे. जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में कभी कोई विपक्षी नेता नहीं रहा. क्योंकि कोई दल 10% की संख्या हासिल नहीं कर सका. इंदिरा गांधी के वक्त भी लंबे समय तक संसद में कोई विपक्षी-नेता नहीं रहा.