मुबारक हो. नए साल में नए आदर्श स्थापित हो रहे हैं. नींव तो पिछले साल ने ही डाल दी थी. दिल्ली के इर्द-गिर्द कुछ जलने की बू सी हवा में तैर रही है. गिराने में जिनको महारत है, उनके दिल तो नहीं जल रहे क्योंकि पत्थर जलता नहीं. कहते हैं शिलाजीत पत्थर का पसीना है. शीला पर जीतने वाले ने बहुतों के तलवों के पसीने निकाल दिए हैं. वह सब जुगत में हैं कि कैसे वह भी आम हो जाएं. आदर्श बना डालें. नए आदर्श की स्थापना वाले पत्थर में अपना नाम खुदवा लें. पांच साल जिनको भ्रष्टाचार ज़रा नहीं साला, वह भी मैदान में कूद गए हैं.
आदर्श के जांच की आंच जब पुराने मुख्य और मंत्रियों तक पहुँच गई, तो जांच आयोग का ही भोग चढ़ा दिया. अध्यादेश फाड़ देने वाले चिरयुवा नेता ने इस इनकार को चीर दिया तो ना हां में बदल गई. नए आदर्श की स्थापना हो गई. केजरीवाल ने पानी मुफ्त किया तो मुफ्त के चन्दन लेकर बड़े लघुनंदन दौड़ पड़े. रहिमन पानी राखिए पर सात सौ लीटर तक फ्री है. नए फ्रीडम मूवमेंट में नए आदर्श स्थापित करने की नई होड़ में जो तोड़-फोड़ मचने वाली है, इसके लिए तैयार रहिए. लोकसभा चुनाव सर पर हैं और शुक्र कीजिए कि आपके बाल सलामत रहें. और उड़ गए तो कोई न कोई पार्टी बाल वापस उगाने को घोषणापत्र में शामिल कर ही लेगी.
आम आदमी पार्टी अपवाद है, क्योंकि इसका अभी तक कोई स्पष्ट वाद नहीं. पर्दा उठा नहीं है, गर्दा दिखा नहीं हैं. पास जाकर सूंघें तो समाजवाद की खुशबू आती है. कईयों को बदबू भी आती होगी पर मैं तो इसे खुशबू ही मानता हूं. गमकौआ समाजवाद. मार्क्स धर्म को अफीम कहते थे. धर्म मार्क्स को अफीमची समझता है. पर दोनों का अपना धर्म है. समाजवाद थोड़ा इधर है, थोड़ा उधर है और पूरा रोमांटिक है. सबको रोटी, सबको कपड़ा, सबको मकान, सबको स्वास्थ्य, सबको शिक्षा, सबको पानी, सबको बिजली. कर लो विरोध! कोई सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का विरोध करने की हिम्मत कैसे करे.
ये चिकने पात वाले होनहार विरवान सिद्धांत जब यथार्थ के खुरदरे धरातल पर उतरते हैं तो उनके अर्श के आदर्श फर्श पर लेट जाते हैं. नेहरु से लेकर लालू-मुलायम तक हमने तो यही देखा है. भूखा रोटी के वादे किए जा रहा है. बिजली जो पैदा नहीं करता वह आधे दाम में कैसे देगा? पर आप के मुखारविंद से घोषणाएं ही नहीं हुईं, अमल भी हो गया. सभी खुश हैं कि भाई कमाल है. सरकार चाहे तो सरकारी पैसे का सदुपयोग कर सकती है. गरीब तो छोड़िए, अमीरों को भी मुफ्त पानी दे रही है. अंग्रेजी में एक कहावत है: देअर इज़ नो फ्री लंच. मुफ्त का भोजन जैसी चीज़ नहीं होती. कोई भी पैसा सरकारी नहीं होता. जो मुफ्त का नहीं है वह मुफ्त की शकल में आए तो अकल ज़रूर लगाएं क्योंकि वह ज्यादा महंगा पड़ता है. साठ सालों तक हमने समाजवाद के रामबाण का इंतज़ार किया. घाव बढ़ता गया, बुखार चढ़ता गया. जब हम कटोरा लिए विश्व बैंक के आगे मिमियाते थक गए तब उस छद्म समाजवाद के मवाद को चीर कर निकालना पड़ा.
सबको रोटी, सबको कपड़ा, सबको मकान. ये आदर्श खोखले नहीं हैं. ये खोखले तब होते हैं जब खोखली व्यवस्थाएं इनका फुग्गा फुलाती हैं. पैसा न कौड़ी, बीच बाज़ार दौड़ा-दौड़ी. संसाधनों का निर्माण करने से पहले उसका बंटवारा. इसके उलट पूंजीवाद संसाधनों का बटोरनवाद है. दोनों वादों के अपने विवाद हैं. दोनों का मिलना संभव नहीं है. अच्छा भी नहीं. सरकार का काम जन कल्याण है वह समाजवाद का रास्ता ले. व्यापार का काम धनार्जन है, वह पूंजीवाद को माने. दोनों के बीच एक लकीर हो जो उन्हें नहीं मिलने दे, तो ये दो वाद बिना मिले भी मिल सकते हैं. सरकार और उसके प्रिय उद्योगपतियों के लिए भले ही मुक्त हो, व्यापार मुक्त नहीं है. कहते हैं लाइसेंस राज चला गया. टेबल के अन्दर झांकिए, वहीं बैठा मिलेगा. आज का पूंजीवाद भी दिखावा है और समाजवाद भी. स्वास्थ्य और शिक्षा सरकार के काम थे, धीरे-धीरे निजी हाथों में जा रहे हैं. जगह-जगह सुरक्षा गार्ड देखकर लगता है नागरिक अपनी सुरक्षा के स्वयं ज़िम्मेदार हैं. जो करना था वह करते नहीं. सरकार व्यापार में व्यस्त है. रेल, हवाई जहाज़, फैक्टरियां चलाने में. खाने में खिलाने में. आपकी पैंट की जेब से पैसे निकालकर आपके शर्ट की जेब में डाल कर वोट खरीदने में.
अरविन्द का समाजवाद अभी परीक्षित नहीं है. उनके लच्छन भी थोड़े विलच्छन हैं. उनकी शक्ति और बुद्धि में वृद्धि हो. क्योंकि इनके पहले के सब समाजवादी वोट लेने में पास हुए, बाकी सब में फेल. ज़रूरी नहीं कि बेवफा थे सब. इतना ज़रूर है कि झूठे निकले. बिजली, सड़क, पानी आज भी मुद्दा है, उन्हीं की बदौलत. फिर से उठाने का मौसम भी आ गया है. जनता फिर उम्मीद से है. उन्हें बिना बेवफा बताए.