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क्लीवेज का हिंदी शब्द खोजते हुए (भाग-2): सूरदास और बिहारी के यहां है 'क्लीवेज' के लिए शब्द

कल ये लिखकर फुरसत हो गया था कि क्लीवेज जैसे किसी स्थूल शब्द की जरूरत भारतीय कवि समाज को नहीं पड़ी. लेकिन लोग उकसाते रहे और मुझे भी तसल्ली नहीं हुई. विद्वज्जनों को दोबारा टटोला. इस बार पाया कि शुरू में उन्होंने इस शब्द के अस्तित्व को इसलिए भी नकार दिया था, क्योंकि यह प्रश्न अचानक उनके सामने आया.

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कल ये लिखकर फुरसत हो गया था कि क्लीवेज जैसे किसी स्थूल शब्द की जरूरत भारतीय कवि समाज को नहीं पड़ी. लेकिन लोग उकसाते रहे और मुझे भी तसल्ली नहीं हुई. विद्वज्जनों को दोबारा टटोला. इस बार पाया कि शुरू में उन्होंने इस शब्द के अस्तित्व को इसलिए भी नकार दिया था, क्योंकि यह प्रश्न अचानक उनके सामने आया.

पढ़िए, क्लीवेज के लिए हिंदी शब्द की तलाश: भाग एक

दूसरी बात यह है कि हिंदी का साहित्य समाज ज्यादातर मामलों में क्रांति और प्रगतिशीलता के पास रहता है, ऐसे में इस तरह के सौंदर्यशास्त्रीय विमर्श उसे कुछ ओछी हरकत लगते हैं. बहरहाल डॉ. विजय बहादुर सिंह ने दूसरी बातचीत में क्लू दिया. उन्होंने कहा कि रीति काल में इसके लिए ‘कुच बिच’ शब्द का प्रयोग हुआ है. और यह प्रयोग शब्दकोष में सजे निर्जीव शब्द की जगह बाकायदा कविता में बहुलता से इस्तेमाल हुआ है.

जब दीपिका ने पूछा, हां मेरी क्लीवेज है, आपको प्रॉब्लम?

इतनी लीड मिलने के बाद गूगल तलाशी करना आसान हो जाता है. और वही मैंने किया. यहां रीति काल के प्रतिनिधि कवि बिहारी की पंक्तियां इस तरह मिलीं, ‘दुरत न कुच बिच कंचुकी, चुपरी सारी सेत. कबि अंकन के अर्थ लौं प्रकट दिखाई देत.’ यहां साड़ी और कंचुकी (चोली) पहने हुए नायिका के (कुच बिच) क्लीवेज कवि को आकर्षित कर रहे हैं.

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जब बिहारी के यहां क्लीवेज का परदादा शब्द मिला तो हौसला और बढ़ा और गूगल रीति काल से भक्ति काल की तरफ बढ़ चला. यहां मां-बेटे के प्यार यानी वात्सल्य रस के जनक महाकवि सूरदास के यहां भी रति श्रृंगार की छटा दिखाई दी. ‘नीबी नाभि त्रिबली रोमवलि कंचुकी कुच बिच हार. मानो सुभग समेट श्रृंग तें धंसी है गंग द्वै धार.’ अष्टछाप के कवि को यहां गोपी के गले में पड़ी हुई माला गंगा की दो धाराओं की तरह क्लीवेज के भीतर उतरते हुए दिखाई दे रही है.

वैसे कुच बिच शब्द श्रृंगारिकता की हदों के पार भी तत्कालीन साहित्य में इस्तेमाल हुआ. भगवान कृष्ण की भक्ति में पूतना वध के प्रसंग में राग असावरी में गाए जाने वाले इस पद में राक्षती पूतना के संदर्भ में भी कुच बिच शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है.

रूप मोहिनी धरि व्रज आई ।
अदभुत साजी सिंगार मनोहर, असुर कंस दै पान पठाई ।। १ ।।
कुच बिच बाँटी लगाई कपट करी, बालघातिनी परम सुहाई ।
बैठी हुती जसोदा मंदिर, हुलरावत सूत श्याम कन्हाई ।। २ ।।

कुच बिच शब्द के ये प्रयोग तो फटाफट मिल गए. इसका मतलब है कि रीति काल में और संस्कृत साहित्य में जरूर ऐसे शब्द होंगे जो विद्वानों को पता होंगे. यहां इतनी कवायद मैं इसलिए कर रहा हूं कि हम उस प्रवृत्ति से बच सकें जो परंपरा में झांके बगैर ही अंग्रेजी शब्दों के सामने लंब लेट हो जाने की है. दूसरी भाषा के शब्दों का कोई निषेध नहीं है, लेकिन एक बार अपने घर में झांक लेने में क्या हर्ज है. वैसे एक बात और कि क्या 300 से 500 साल पहले इस्तेमाल किया शब्द ‘कुच बिच’ सपाट बयानी में काम आ सकता है. मुझे इसमें संदेह है. आम बोलचाल में एक न एक दिन ‘उभार’ शब्द इसकी जगह ले लेगा.

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