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ताकि फिर कोई औरत को खिलौना न समझे...

महिला दिवस पर एक खास गुजारिश. चंद दिनों पहले एक गुज़ारिश देश की सबसे बड़ी अदालत से की गई थी. गुजारिश 37 साल से ज़िंदा लाश की तरह जी रही अरुणा को ज़िंदगी से आज़ाद करने की, पर ये तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है. इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आधे हिंदुस्तान की नुमाइंदगी करने वाली औरतों के वजूद पर आज भी चोट की जा रही है.

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गुजारिश
गुजारिश

महिला दिवस पर एक खास गुजारिश. चंद दिनों पहले एक गुज़ारिश देश की सबसे बड़ी अदालत से की गई थी. गुजारिश 37 साल से ज़िंदा लाश की तरह जी रही अरुणा को ज़िंदगी से आज़ाद करने की, पर ये तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है. इस तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आधे हिंदुस्तान की नुमाइंदगी करने वाली औरतों के वजूद पर आज भी चोट की जा रही है.

देश की आबादी में ये पचास फ़ीसदी की हिस्सेदार हैं, यानी ये आधा हिंदुस्तान है. हमने तरक़्क़ी के नाम पर असमानता की जो ख़तरनाक दुनिया अपने चारों तरफ़ बुनी है, वो ख़तरा इन पचास फ़ीसदी औरतों के हिस्से और वजूद पर भी आता है.

अब ग़ौर करने की बात यह है कि अगर जुर्म है, हादसे हैं, वारदात है, तो उसका आधा हिस्सा आबादी के इस आधे हिस्से की क़िस्मत में भी आता है. हमारी आबादी का ये आधा हिस्सा न तो सड़कों पर महफ़ूज़ है, न घरों में, ना दफ्तर में, ना बाजार में. यहां तक कि अस्पताल में भी नहीं.

हिंदुस्तान की सबसे बड़ी अदालत में अब तक कत्ल के ना मालूम कितने ही मामले आए होंगे, लेकिन ये कत्ल का ऐसा मामला है, जिसमें कत्ल से पहले, कत्ल करने के लिए कातिल अदालत से इजाजत मांगता है.{mospagebreak}

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इजाज़त मांगता है कि एक जिंदा इंसान की चल रही सांसों का पूरा हिसाब कानून करे. कानून यह तय करे कि कब तक उसकी सांसें जारी रखनी हैं और कब उसकी सांसों की डोर काट देनी है.

अस्पताल के एक बिस्तर पर महिला की पथराई आंखें शायद कुछ कहना चाहती हैं, पर पता नहीं कि जिंदगी के बार में या मौत के बारे में. पता इसलिए नहीं, क्योंकि ये वह औरत है तो जिंदा, पर लाश की शक्ल में. वह औरत दरअसल एक जिंदा लाश है, जो पिछले 37 सालों से बस यूं ही जिए जा रही है. बस इसी बेबस जिंदगी से निजात दिलाने के लिए उसकी बेनूर और बेरंग जिंदगी से कुछ लोग उसे छुटकारा दिलवाना चाहते हैं, वो भी कानूनी इजाजत से.

देश की सबसे बड़ी अदालत इसके लिए तैयार नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा शानबाग को उसकी बेनूर जिंदगी से निजात दिलाने से साफ मना कर दिया. अरुणा को इच्छा मृत्यु की इजाजत नहीं दी गई, पर ये तस्वीर का सिर्फ एक पहलू है.

अरुणा शानबाग हमेशा से ऐसी नही थी. 37 साल पहले तक वो खुशहाल जिंदगी जी रही थी. 1966 में वो कर्नाटक से मुंबई आई और किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में बतौर नर्स काम करने लगी. बाद में अस्पताल के ही एक डॉक्टर से उसकी शादी भी तय हो गई. मगर शादी से महज महीने भर पहले ही 27 नवंबर, 1973 को अस्पताल के अंदर ही सोहनाल वाल्मीकि नाम के एक वार्ड ब्वाय ने अरुणा के साथ जबरदस्ती की. बाद में पकड़े जाने के डर से उसने लोहे के चेन से अरुणा का गला घोंट दिया और उसे मुर्दा समझ कर वहां से फरार हो गया.{mospagebreak}

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तब अरुणा मरी नहीं थी. अलबत्ता उस दिन के बाद से वो फिर कभी जिंदा भी नहीं कहलाई. वो कोमा में चली गई और आज 37 साल बाद भी कोमा में है. दूसरी तरफ वारदात के फौरन बाद सोहनलाल को पुलिस पकड़ लेती है. अदालत में उसका जुर्म भी साबित हो जाता है और फिर 1974 में उसे सजा भी सुना दी जाती है. सात सात कैद की सजा.

अब ज़रा मज़ाक देखिए. सोहनाल सात साल की कैद काट कर 1981 में जेल से बाहर आ जाता है और फिर से अपनी दुनिया बसाता है. वहीं दूसरी तरफ अरुणा पिछले 37 साल से सोहनाल के दिए ज़ख्म को झेलते हुए उस मुकाम पर पहुंच गई है, जहां उसकी गिनती ना जिंदों में है और ना ही मुर्दों में.

सात साल बनाम 37 साल. है ना अजीब मज़ाक? वैसे यहां सवाल कायदे से ये नहीं होना चाहिए था कि अरुणा को जिंदगी मिले या मौत? बल्कि सवाल ये होना चाहिए था कि अरुणा जैसी औरतों की ऐसी हालत करने के जिम्मेदार लोगों को ऐसी कड़ी सज़ा मिले कि फिर कभी कोई ऐसा करने की हिम्मत ना करे.

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