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नौकरशाही: कम नियंत्रण के अच्‍छे नतीजे

हमारी नौकरशाही में सुधार के मुद्दे पर चर्चा किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती, क्योंकि यह चर्चा सरलतम मान्यताओं पर टिकी होती है. विडंबना यह कि चर्चा में ज्‍यादातर ध्यान अति लालफीताशाही पर दिया जाता है, जिसमें भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा होता है, लेकिन कार्यक्षमता के मुद्दे पर ज्‍यादा ध्यान नहीं दिया जाता.

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हमारी नौकरशाही में सुधार के मुद्दे पर चर्चा किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाती, क्योंकि यह चर्चा सरलतम मान्यताओं पर टिकी होती है. विडंबना यह कि चर्चा में ज्‍यादातर ध्यान अति लालफीताशाही पर दिया जाता है, जिसमें भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दा होता है, लेकिन कार्यक्षमता के मुद्दे पर ज्‍यादा ध्यान नहीं दिया जाता.

और एक भ्रम यह है कि सुधार का मतलब है कुछ नए नियम बना देना, ज्‍यादा निगरानी रखना, नए संस्थागत डिजाइन तैयार करना और काम के बदले प्रोत्साहन देना. लेकिन यह इस कहानी का सिर्फ एक छोटा-सा हिस्सा है. इसमें इस बात को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि ज्‍यादा  निगरानी से व्यवस्था की कार्यक्षमता घट जाती है. इस तरह की धारणा में इस बात को भी भुला दिया जाता है कि किस तरह नौकरशाही का आचरण सामाजिक-आर्थिक संरचना में अंतर्निहित है.

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पहला, विकास और नौकरशाही में सुधार के बीच का संबंध काफी जटिल है. यह कोई संयोग नहीं है कि भारत से ऊपर स्थान रखने वाले सभी देशों की प्रति व्यक्ति जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट-सकल घरेलू उत्पाद) भी ऊपर है. इससे हमें क्या पता चलता है, कमी कहां रह रही है.

हमें दोनों ही तरीके से सोचने की जरूरत है. आम धारणा के विपरीत, भारत अपने राज्‍य पर पर्याप्त खर्च नहीं करता. क्षमता के किसी भी मानदंड पर और किसी भी अंतरराष्ट्रीय तुलना में भारत का अपने राज्‍य ढांचे पर किया जाने वाला खर्च बहुत कम है. विभाग दर विभाग, न्यायपालिका से लेकर सांख्यिकीविदों, खाद्य निरीक्षकों से लेकर नगर के योजनाकारों तक सभी की क्षमता बहुत कम है.

आम तौर पर सभी कानूनों के साथ खर्च का एक वित्तीय आकलन भी जुड़ा होता है. लेकिन हम कभी भी नई जिम्मेदारियां थोपने के प्रशासनिक नतीजों के बारे में सवाल तक नहीं करते. हम भले ही ज्‍यादातर विभागों में कर्मचारियों की संख्या जरूरत से ज्‍यादा होने का खूब रोना रोते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि भारतीय राज्‍य में कर्मचारियों की कमी है, उसमें साधनों की कमी है और पर्याप्त प्रशिक्षण का अभाव है.

इस विडंबना का चित्रण बहुचर्चित उपन्यास राग दरबारी में बखूबी किया गया है. कभी-कभी तो काम का बोझ इतना ज्‍यादा होता है कि सारे काम ही ठप हो जाते हैं. विकास से कुछ ऐसे संसाधन पैदा होते हैं, जिनके बल पर राज्‍य अपनी क्षमता के निर्माण में खर्च कर सकता है.

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दूसरा, भ्रष्टाचार और नौकरशाही के बीच का संबंध भी काफी जटिल है. उदाहरण के लिए देखें तो बिहार और ओडीसा की समस्या यह नहीं है कि वहां तमिलनाडु या आंध्र प्रदेश से ज्‍यादा भ्रष्टाचार है बल्कि सचाई यह है कि गरीब राज्‍यों में बुद्धिमानी से भ्रष्ट होने के अवसर कम हैं.

ज्‍यादातर भ्रष्टाचार उन योजनाओं से जुड़ा होता है, जो गरीबों के लिए बनाई जाती हैं जबकि हरियाणा या तमिलनाडु जैसे राज्‍यों में यही पैसा अचल संपत्ति के क्षेत्र, दूरसंचार, सड़क, या नई शब्दावली सरकारी-निजी साझेदारी से उगाह लिया जाता है. संक्षेप में कहें तो इन राज्‍यों में भ्रष्टाचार ऐसे क्षेत्रों से जुड़ा होता है, जो गरीबों को कम प्रभावित करने वाले होते हैं.

दूसरे पहलू से सोचें तो यह राजनीतिकों को विकास करने के लिए प्रोत्साहन देता है. राज्‍यों में और उनकी नौकरशाही के कामकाज में काफी अंतर है. इसकी बड़ी वजह है राजनीतिकों को मिलने वाला लाभ.

तीसरा, भारतीय राज्‍य के साथ एक वास्तविक समस्या है तीन अलग-अलग रास्तों में इसका सामाजिक स्थान. साफ कहें तो सत्ता की शक्ति तक पहुंच को सामाजिक लामबंदी के साधन के रूप में देखा जाता है और इस तरह यह सत्ता के हर तरह के इस्तेमाल को विधिसम्मत बना देता है.

दूसरी बात, यहां के पदानुक्रम वाले समाज में सत्ता की ताकत का आकर्षण बहुत बढ़ जाता है, क्योंकि यह आपको दूसरे से ज्‍यादा ताकतवर बनने का अवसर देता है. जब आप सत्ता की ताकत का इस्तेमाल करते हुए किसी व्यक्ति के लिए कुछ करते हैं तो आपको एक आंतरिक सुख मिलता है. लेकिन आपके अंदर यह भावना नहीं आती कि आप किसी को कुछ दे रहे हैं तो कुछ ले भी रहे हैं.

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तीसरी बात, राज्‍य के भीतर सामाजिक पदानुक्रम एक व्यक्ति को दूसरे से छोटा या बड़ा बनाता है. दुनिया में ऐसा कहां है, जहां जातियों की तरह के पुराने रिवाज चल रहे हैं कि कौन किसकी मौजूदगी में कुर्सी पर बैठ सकता है. आप यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि निचले स्तर का अधिकारी दूसरों के साथ बराबरी का आचरण करे, जब उसने खुद ही इसका अनुभव न किया हो.

ऐसा कब हुआ है जब निचले स्तर के अधिकारी को खुद फैसले करने का अधिकार दिया गया हो. फिर यह कोई ताज्‍जुब की बात नहीं कि उसे नियमों की जानकारी तो होती है, लेकिन राज्‍य के लक्ष्यों का उसे कोई इल्म नहीं होता. आइएएस को तैयार करने पर तो पूरा ध्यान दिया जाता है, लेकिन निचले स्तर के अधिकारियों को पेशेवर होने की पहचान देने पर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया जाता.

अमेरिका के भ्रष्टाचार विरोधी उपायों पर एक उम्दा  अध्ययन, दि परस्यूट ऑफ एब्साल्यूट इंटेग्रिटी, बताता है कि अच्छे नियमों और प्रोत्साहन की अपेक्षा पेशेवर होने का भाव उत्पादकता और ईमानदारी लाने में कहीं ज्‍यादा प्रभावकारी होता है. राज्‍य की नौकरशाही में सुधार लाने के लिए सामाजिक क्रांति की जरूरत है.

नौकरशाही के साथ समस्या, खासकर आइएएस के मामले में, विचारों की कमी की नहीं है. नौकरशाही के प्रशिक्षण के लिए एक आसन सुझव इस तरह हैः उन्हें कार्यक्रमों को समझ्ने के लिए विदेशों में न भेजें, बल्कि मध्यकालीन शासकों से प्रेरणा लें. उन्हें आम नागरिक के रूप में एक एनजीओ चलाने को कहें, छोटा कारोबार शुरू करने को कहें, अपने आप पासपोर्ट के लिए आवेदन करने को कहें और उनके इन अनुभवों के बाद उनसे नियम बनाने के लिए कहें. आइएएस के प्रशिक्षण में अमूर्तता ही ज्‍यादा है, जबकि व्यावहारिकता बहुत कम.

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चौथी बात, इसका भी एक कारण है कि राज्‍य के सुधारों पर बहुत कम जोर दिया जाता है. साफ कहें तो भारत में बड़े कारोबार के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है. उसके पास व्यवस्था का अपने ढंग से इस्तेमाल करने लिए संसाधन हैं और सरकरी नियमों का खर्च वह बर्दाश्त कर सकता है जबकि छोटे कारोबार को सारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.

लेकिन नतीजा यह है कि नौकरशाही में वास्तविक सुधार के लिए बड़ा कारोबार कभी भी गंभीर लॉबी नहीं रहा. यह सिर्फ अपने वास्ते छूट लेने के लिए ही लॉबिंग करता है. इसने कभी भी सरकार पर नौकरशाही में सुधार के लिए सामूहिक दबाव नहीं डाला.

और फिर राज्‍य में वैचारिक स्पष्टता का होना बेहद जरूरी है. जब तक राजनैतिक स्पष्टता नहीं होगी तब तक नौकरशाही में प्रभावी सुधार नहीं हो सकता. यह समस्या कभी नहीं रही कि नौकरशाह राजनीतिकों को बिगाड़ देते हैं, जो राजनीतिक ऐसा कहता है, वह अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है. समस्या तब होती है जब राजनीतिक नौकरशाहों के कंधों पर बंदूक रखकर निशाना साधना चाहते हैं

और इसके बदले में नौकरशाह आत्मरक्षा की एक व्यवस्था बना लेते हैं. नौकरशाही का स्वभाव यह है कि उसका अपना कोई निर्णय नहीं होता, इसीलिए सारी जिम्मेदारी राजनीतिक तबके पर आती है. संक्षेप में कहें तो एक अच्छी नौकरशाही के लिए आपको एक स्पष्ट राजनैतिक नेतृत्व की जरूरत होती है.

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नौकरशाही लक्ष्यों को साधन समझ लेती है, नियमों को नतीजा समझ्ती है और नियंत्रण को कार्यकुशलता समझ लेती है, क्योंकि हम यह सवाल अक्सर नहीं पूछते कि राज्‍य किसके लिए है. राज्‍य को बेतरतीबी से जितना अधिक काम दिया जाता है, उतनी ही इसकी प्राथमिकताओं और काम में गड़बड़ी होती है.

अगर लक्ष्यों का सवाल ही स्पष्ट नहीं है तो जिस स्तर पर फैसले लिए जाते हैं, वहां तो और भी भ्रम की स्थिति होगी. हम आज भी दुनिया में सबसे ज्‍यादा केंद्रीकृत राज्‍यों में से एक हैं. अगर हम सचमुच गंभीरता से नौकरशाही और समाज में सुधार चाहते हैं तो हमें अपने राज्‍य और समाज में सत्ता के आबंटन के बारे में सवाल करना होगा. केवल औपचारिक सुधार नौकरशाही के खिलाफ नौकरशाही की एक और कसरत भर होगी.

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