पंजाब के किसानों की अगुवाई में नए कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन का मुख्य मुद्दा मंडियां और मिडिलमैन यानी बिचौलिए भी हैं. आंदोलन करने वाले वे किसान हैं जो गेहूं और धान की खेती में फंसे हुए हैं. लेकिन जिन प्रगतिशील किसानों ने इस ट्रेंड को तोड़ते हुए सफलता की कहानी लिखी है, वह दिखाती है कि फसलों की विविधता इस समस्या का स्थायी समाधान हो सकती है. मालवा क्षेत्र के किसान ड्रैगन फ्रूट, अंजीर, स्ट्रॉबेरी और मिर्च जैसी फसलें उगाकर खेती का नया अध्याय लिख रहे हैं.
इंडिया टुडे की टीम ने मानसा जिले की यात्रा की और पाया कि ये किसान कुछ अलग कर रहे हैं और दूसरों को प्रेरित भी कर रहे हैं, लेकिन इन्हें अपनी उपज बाजार में लाने और बेहतर मुनाफा कमाने के लिए सरकार की मदद की जरूरत है.
लोकप्रिय हो रही स्ट्रॉबेरी और शिमला मिर्च की खेती
सर्दियों की शुरुआत में पंजाब के मालवा क्षेत्र के अंदरूनी इलाकों में यात्रा के दौरान पॉली शीट्स (पॉलीथिन की चादर) से ढंके खेतों में एक अनोखा दृश्य दिखाई देता है और यह जिज्ञासा भी पैदा करता है. स्ट्रॉबेरी और मिर्च की खेती करने वाले किसान फसलों को ज्यादा ठंड से बचाने के लिए उन्हें इन शीट्स से ढंक देते हैं. लेकिन इसमें बहुत ज्यादा लागत की जरूरत होती है. किसानों को ये विशेष पाली शीट जयपुर से मंगवानी पड़ती है जो 2500 रुपये प्रति क्विंटल की कीमत पर आती है. मानसा और बठिंडा के बीच हाईवे पर स्थित ग्राम भैनी बाघा के प्रगतिशील किसानों की स्ट्रॉबेरी और मिर्च की खेती ने उन्हें सुर्खियों में ला दिया है.
52 साल के लक्खा सिंह 12 दिनों तक नये कृषि कानूनों के खिलाफ धरना दे रहे अपने साथी किसानों के साथ दिल्ली बॉर्डर पर थे, लेकिन अब वे वापस लौट आए हैं और अपने खेतों में हैं. लक्खा एक प्रगतिशील किसान हैं. उन्होंने मिर्च की खेती में काफी पैसा लगाया है. दो साल पहले उन्होंने अपनी उपज सीधे खरीदार को बेची और प्रति एकड़ 60 हजार रुपये कमाए. उपज की खरीद उनके दरवाजे से हुई. ये कमाई उससे 20 हजार रुपये ज्यादा थी जो वे पहले गेहूं से कमाते थे.
हालांकि, इस सीजन में उन्हें कोरोना महामारी के कारण हुए लॉकडाउन के दौरान नुकसान उठाना पड़ा. लेकिन आने वाले मार्च में जब उनकी फसल तैयार होगी, उन्हें बेहतर रिटर्न की उम्मीद है. मिर्च की फसल को वे गेहूं के लिए एक विकल्प के रूप में देखते हैं, जहां मंडी और बिचौलिये कहीं नहीं हैं. पिछले सीजन की तुलना में इस सीजन दोगुनी फसल उगाने के लिए उन्होंने दो एकड़ जमीन लीज पर ली है.
लक्खा सिंह ने इंडिया टुडे को बताया, "हम किसान हैं, हमारे लिए कोई चुनौती बड़ी नहीं है, हमने पत्थर की दीवारें, वॉटर कैनन और आंसू गैस के गोले सब झेल लिए, लेकिन नये कानूनों के खिलाफ अपने साथियों की लड़ाई में मजबूती से खड़े रहे."
उन्होंने कहा, "दो साल पहले मैंने खुद से कहा था कि अब मंडियों का चक्कर लगाना बहुत हुआ. फिर मैंने अपने चार एकड़ जमीन में गेहूं की जगह मिर्च की खेती शुरू की. हमने इससे अच्छा मुनाफा कमाया. मेरी पूरी मिर्च मेरे दरवाजे से ही बिक गई और बिना किसी बिचौलिए के तुरंत पूरा भुगतान हो गया."
लक्खा का कहना है, "लेकिन एक समस्या है. कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं की कमी के कारण हम अपनी फसल रख नहीं सकते, इसलिए अगर उपज की कीमत कम होती है तो हमें अच्छा रिटर्न नहीं मिलेगा. हम चाहते हैं कि सरकार सब्जियों के लिए बेस प्राइस तय करे ताकि यह ज्यादा लाभदायक हो सके. इससे ज्यादा से ज्यादा किसान गेहूं-धान की जगह ऐसी विविध फसलों को उगाने के लिए प्रेरित होंगे."
आकर्षित हो रहे युवा
नई-नई और विविध फसलों की खेती युवा किसानों को भी आकर्षित कर रही है. 32 साल के जसबीर सिंह स्ट्रॉबेरी की खेती करते हैं. उन्होंने अपने मोबाइल फोन पर हिमाचल प्रदेश में एक स्ट्रॉबेरी किसान का एक वीडियो देखा, जिसने उन्हें स्ट्रॉबेरी की खेती के लिए प्रोत्साहित किया. जसबीर ने यूट्यूब पर वीडियो देखकर स्ट्रॉबेरी की खेती के बारे में सीखा और पिछले सीजन में उन्होंने दो एकड़ में इसका प्रयोग किया. इससे उन्हें अच्छा लाभ मिला और उनकी स्ट्रॉबेरी 350 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिकी. इस सफलता से उत्साहित होकर उन्होंने दो एकड़ जमीन और लीज पर ली. इस बार उन्होंने स्ट्रॉबेरी की फसल का रकबा दोगुना कर दिया.
अपनी सफलता के बारे में बात करते हुए जसबीर सिंह ने इंडिया टुडे से कहा कि स्ट्रॉबेरी के पौधे को सर्दियों के दौरान ठंढ़ से बचाने के लिए विशेष देखभाल की जरूरत होती है. एक बार फल पकने के बाद इसे तुरंत बेचना होता है क्योंकि इसे हम स्टोर नहीं कर सकते. उन्होंने बताया, "इस साल मैंने अपनी स्ट्रॉबेरी की पैकेजिंग करने की योजना बनाई है और उन्हें प्री-ऑर्डर किया है ताकि खरीदारों को बेहतर कीमत पर अपनी उपज बेच सकूं."
जसबीर का कहना है कि अगर सरकार हमें मार्केटिंग में मदद करे तो ये मेरे जैसे किसानों के लिए बेहतर होगा. अच्छी बात ये है कि गेहूं या धान के उलट स्ट्रॉबेरी खेत में ही बिक जाती हैं.
ड्रैगन फ्रूट और अंजीर
नई फसलें उगाने में प्रगतिशील किसानों की सफलता की कहानियां कई अन्य लोगों को भी प्रेरित कर रही हैं जो गेहूं और धान के पारंपरिक फसलों की खेती में फंसे हैं.
भदादा गांव के 24 वर्षीय अमनदीप सिंह ने अपने पिता और चाचाओं को मंडियों में अपना गेहूं-धान बेचने के लिए संघर्ष करते देखा. इसने उन्हें नई फसलों की खेती के लिए प्रेरित किया. तीन साल पहले दोस्तों के साथ गुजरात घूमने के दौरान वे उन किसानों से मिले, जो अमेरिका में लोकप्रिय ड्रैगन फ्रूट की खेती कर रहे थे. ड्रैगन फ्रूट की खेती के लिए उन्हें घर के बुजुर्गों की अनुमति मिलने में कुछ समय लगा. पौधों को सहारा देने के लिए उन्हें लकड़ी के 100 खंभे लगाने पड़े, जिससे गांव वालों में बड़ी उत्सुकता पैदा हुई. आज उनके पास 800 खंभों पर 3000 से अधिक पौधे हैं, जिनमें 12 अलग-अलग किस्म के ड्रैगन फ्रूट हैं.
अमनदीप ने इंडिया टुडे को बताया कि एक बार रोपाई होने के बाद यह 25 साल तक फल देता रहता है. ये लंबे समय के लिए सुरक्षित निवेश है जो आपको गेहूं और धान के चक्र से बाहर ला सकता है. ड्रैगन फ्रूट प्रति एकड़ में हर साल 40 क्विंटल की उपज देता है जो 200 रुपये प्रति किलो के हिसाब से बिकता है. इस तरह एक किसान प्रति एकड़ 8 लाख रुपये तक कमा सकता है.
अमनदीप बिना किसी बिचौलिए के अपनी उपज खुद ही बेचते हैं. स्टोर चेन और व्यापारी उनकी फसल खरीदने के लिए उनसे संपर्क करते हैं, इसलिए वे अपनी उपज बेचने के लिए ट्रांसपोर्ट के झंझट से भी मुक्त हैं. भविष्य में वे अपनी मार्केटिंग टीम शुरू करना चाहते हैं ताकि अपने ब्रांड के तहत ड्रैगन फ्रूट का निर्यात कर सकें.
बेहतर रिटर्न, बिचौलियों से मुक्ति
खैरा कलां गांव के एक और किसान सुल्तान सिंह ने 2018 में अंजीर की खेती शुरू की थी. अब वे इससे काफी मुनाफा कमा रहे हैं. उनके एक एकड़ खेत में 400 अंजीर के पौधे हैं जो 20 साल तक पांच से छह किलो फल देते रहेंगे. एक समय था जब सुल्तान सिंह हर साल बम्पर गेहूं और धान उगाने के बावजूद कर्ज में डूबे हुए थे. लेकिन आज वे अपने अंजीर के बागान से प्रति एकड़ दो लाख रुपये कमाते हैं. अब वे एक और एकड़ जमीन में इसे बढ़ाना चाहते हैं.
सुल्तान सिंह ने बताया, "मैं अगले दो साल में गेहूं और धान की खेती से पूरी तरह से बाहर निकलना चाहता हूं. ये फल बेहतर रिटर्न देते हैं और आपको अपनी उपज बेचने के लिए बिचौलियों की ओर नहीं देखना पड़ता कि वे हमारी फसल खरीदने हमारे पास आएं. हमने एक कंपनी के साथ करार किया है, जिसे हम सीधे बेचते हैं."
आत्मविश्वास से लबरेज सुल्तान सिंह ने बताया, "मुझ पर 7 लाख रुपये का कर्ज था जो अब कम हो गया है और मैं जल्द ही बैंक कर्ज से मुक्त हो जाऊंगा."
नए प्रयोग को सरकारी मदद की जरूरत
नई फसलों ने उन किसानों को बेहतर लाभ पहुंचाया है जिन्होंने खेती के नए तरीकों को अपनाया है. लेकिन दुख की बात ये है कि सरकारों ने लगातार इसके फायदे को नजरअंदाज किया है. अकेले पंजाब में किसान लगभग 60 लाख हेक्टेयर भूमि पर गेहूं और धान उगाते हैं और केंद्र सरकार पीडीएस सप्लाई के लिए 70 हजार करोड़ रुपये की लागत से ये उपज खरीद लेती है. हालांकि, पिछले वर्षों में सरकार ने फसल विविधीकरण पर बहुत ध्यान नहीं दिया है. वैकल्पिक फसलें उगाने वाले किसानों के लिए केंद्र सरकार मात्र 100 करोड़ रुपये खर्च करती है. थोड़ी हैरानी की बात है कि किसानों को गेहूं-धान के चक्र से बाहर निकालने की कोशिशों में कमी आई है.
ये भी पढ़ें