राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव 10 सितंबर से कार्यकर्ता संवाद यात्रा पर निकलने वाले हैं. इस यात्रा को लेकर आरजेडी ने कार्यकर्ताओं के लिए कुछ दिशा-निर्देश जारी किए हैं. इनमें एक दिशा-निर्देश है- हरे गमछे के स्थान पर पार्टी की हरी टोपी और बैज को प्राथमिकता दें.
आरजेडी के इस दिशा-निर्देश के बाद बिहार में गमछे की सियासत शबाब पर है. कोई इसे प्रशांत किशोर की सियासत का इफेक्ट बता रहा है तो कोई इमेज बदलने की कोशिश. अब सवाल है कि कभी 'तेल पिलावन और लाठी घुमावन' का नारा देने वाली आरजेडी की गमछा पॉलिटिक्स में एंट्री और एग्जिट क्यों हुई? आरजेडी अपनी पहचान रही गमछे की पॉलिटिक्स से अब दूरी क्यों बना रही है?
आरजेडी प्रमुख लालू यादव के मुख्यमंत्री रहते बिहार में चरवाहा विद्यालयों की शुरुआत हुई थी. लाठी और गमछा, इन दोनों का ही चरवाहा समाज की वेशभूषा से अटूट नाता है. लालू यादव की पॉलिटिक्स का आधार वोटबैंक भी यादव, खासकर चरवाहा समाज रहा है. चरवाहा विद्यालय शुरू करना हो या 'तेल पिलावन, लाठी घुमावन' का नारा, लालू यादव की रणनीति ओबीसी के इस सबसे बड़े वोटबैंक को अपने पीछे गोलबंद करने की ही थी. अब पार्टी 'गमछा पॉलिटिक्स' से किनारा कर रही है तो उसके पीछे भी अपनी वजहें हैं.
1- वोटों का नया समीकरण गढ़ने की कवायद
एम-वाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण आरजेडी की ताकत रहे हैं. लेकिन 2005 में नीतीश कुमार की अगुवाई में एनडीए की सरकार आने के बाद आरजेडी का समर्थन अपने कोर वोटबैंक में भी घटा है. यादव पर बीजेपी पहले से ही नजर गड़ाए है, अब प्रशांत किशोर ने कम से कम 40 मुस्लिमों को टिकट देने का ऐलान कर आरजेडी की टेंशन और बढ़ा दी है.
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ने कहा कि बिहार की कुल आबादी में करीब 32 फीसदी हिस्सेदारी वाले यादव-मुस्लिम का एकमुश्त वोट अगर आरजेडी को मिलता तो पार्टी की आज ये दशा नहीं होती. लोकसभा चुनाव में 23 सीटों पर लड़कर चार ही जीत पाने वाली पार्टी के कम से कम 20 उम्मीदवार जरूर जीत गए होते. तेजस्वी भी इसे समझ रहे हैं और यही वजह है कि वह आरजेडी को एम-वाई की पार्टी के टैग से निजात दिलाने, बाकी जातियों को साथ लाकर नया समीकरण गढ़ने की कोशिश में कभी इसे ए टू जेड की पार्टी बताते हैं तो कभी बाप (बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी और गरीब) की. अब गमछा से किनारा भी लठैतों की पार्टी की पहचान हटाने की ही दिशा में प्रयास है.
2- कुशवाहा समाज के साथ खाई पाटने की कवायद
एक दिन पहले आरजेडी ने पटना के प्रदेश कार्यालय में जगदेव प्रसाद का शहादत दिवस मनाया. इस मौके पर लालू यादव ने जगदेव बाबू की सामाजिक न्याय की लड़ाई को ही आगे बढ़ाने का जिक्र किया तो वहीं तेजस्वी यादव ने कुशवाहा-यादव भाई-भाई का नारा दे दिया. तेजस्वी ने कहा कि अब यादव और कुशवाहा नहीं लड़ेंगे. वह ये बताना नहीं भूले कि लोकसभा चुनाव में कुशवाहा समाज को सबसे ज्यादा टिकट आरजेडी ने ही दिया था और लगे हाथ ये वादा भी कर दिया- विधानसभा चुनाव में उन्हें मौका देगी.
यानि तेजस्वी यादव भी यह मान रहे हैं कि पशुपालन से जुड़े यादव, चरवाहा समाज और खेती करने वाले कुशवाहा समाज के बीच लड़ाइयां होती आई हैं और इसी का नतीजा रहा कि सूबे में लव-कुश (कोईरी- कुर्मी) समीकरण ने आकार लिया जिसका समर्थन नीतीश कुमार के साथ माना जाता है. लोकसभा चुनाव नतीजों में कुशवाहा वोट मिलने से उत्साहित आरजेडी अब इस समाज के साथ खाई और पाटने की कवायद में जुट गई है और गमछा पॉलिटिक्स से दूरी भी इसी दिशा में उठाया गया कदम है.
3- इमेज बदलने की कोशिश
आरजेडी फ्रेश चेहरे के साथ इमेज बदलने की कोशिशों में जुटी है. पिछले बिहार चुनाव से पहले पार्टी ने अपने बैनर-पोस्टर पर लालू यादव और राबड़ी देवी की तस्वीर से परहेज किया. चुनावों से पहले तेजस्वी ने जंगलराज के आरोप पर 16 साल की सरकार के समय हुई गलतियों के लिए माफी भी मांगी थी.
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तेजस्वी यादव की रणनीति आरजेडी की जंगलराज वाली इमेज को काट गलतियां स्वीकार कर आगे बढ़ने वाली पार्टी की बनाना चाहते हैं. आरजेडी ने मीसा भारती के सांसद होने के बावजूद अभय कुशवाहा को संसदीय दल का नेता बनाया तो परिवारवाद के आरोप को काउंटर करने की रणनीति थी. अब पार्टी ने गमछा पॉलिटिक्स से किनारा किया है तो इसके पीछे भी इमेज बदलने की कोशिश है.
4- लफुआ कल्चर का टैग हटाने की रणनीति
आरजेडी की पहचान से जुड़ी रही दो चीजें बिहार में लफुआ (लफंगा) कल्चर का प्रतीक मानी जाती हैं- लाठी और गमछा. आरजेडी का कोई आयोजन हो या धरना-प्रदर्शन, ज्यादातर कार्यकर्ता हरा गमछा और लाठी लिए नजर आते थे. ये भले ही शांतिपूर्ण तरीके से ही प्रदर्शन क्यों ना करें, संदेश निगेटिव ही जाता था. आरजेडी की पहचान के साथ लफुआ कल्चर को जोड़ा जाने लगा था और प्रबुद्ध वर्ग के लोग पार्टी से दूरी बनाते रहे.
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आरजेडी अब गमछा की जगह टोपी पहनने की बात कर रही है तो इसके पीछे लफुआ कल्चर का टैग हटाने और प्रबुद्ध वर्ग के मतदाताओं के बीच पैठ बनाने की कोशिश से जोड़कर भी देखा जा रहा है. आरजेडी ने कार्यकर्ताओं के लिए जारी दिशा-निर्देश में अनुशासन की नसीहत भी दी गई है.
4- शहरी वोट पर नजर
आरजेडी ने बिहार के पिछले चुनाव में ग्रामीण इलाकों की सीटों पर तो अच्छा किया लेकिन शहरी और अर्धशहरी सीटों पर एनडीए भारी पड़ गया. शहरी वोटर पर वैसे भी बीजेपी की पकड़ मजबूत मानी जाती है. अब आरजेडी 2025 के चुनाव से पहले गमछा पॉलिटिक्स से किनारा कर रही है तो इसे आगामी चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है. टोपी और बैज के उपयोग की सलाह दी गई है जो शहरी कल्चर से जुड़े हैं.