मुफ़्ती मोहम्मद सईद कश्मीर की सियासत में एक अलग पहचान रखते थे. तीखी नाक, घने सफेद बाल, भारी भौंहें और गहरी आंखों वाले सईद, बिल्कुल वैसे ही दिखते थे जैसे एक वकील का चेहरा होता है और वो एक समय में वकील भी रह चुके थे. अपने लंबे राजनीतिक करियर में उन्हें कई नामों से पुकारा गया. कुछ तारीफ में, तो कुछ तंज में. वजह थी उनकी तेज महत्वाकांक्षा और बार-बार पाला बदलने की आदत.
कभी नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता रहे सईद ने कई बार पार्टी बदली और आखिर में कांग्रेस में पहुंचे. उनके इन यूटर्न्स पर कई मज़ेदार नारे भी बने. लेकिन शिया मौलवी के बेटे सईद को सिद्धांतों से ज़्यादा अपनी महत्वाकांक्षा प्यारी थी. 1987 में जब वो कांग्रेस में थे, तब उन पर मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (MUF) का अंदर से समर्थन करने का आरोप लगा- ऐसा माना गया कि वो कश्मीर की सियासत में किंगमेकर बनना चाहते थे. जब ये मौका नहीं मिला, तो उन्होंने 1989 के लोकसभा चुनावों से पहले वीपी सिंह की अगुवाई वाले 'जन मोर्चा' का दामन थाम लिया. यही फैसला बाद में उन घटनाओं की शुरुआत बना, जिसने सरकार को घुटनों पर ला दिया.

मूल रूप से अनंतनाग के बिजबेहड़ा इलाके से आने वाले मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कांग्रेस से इस्तीफा देने की सीधी वजह 1987 में उत्तर प्रदेश के मेरठ में हुए दंगे को बताया. लेकिन असल में ये एक सोची-समझी रणनीति थी- वो पास के मुज़फ्फरनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे. 1989 में जब वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने सबको चौंका दिया. उन्होंने सईद को गृहमंत्री बनाया- आज़ाद भारत के इतिहास में ये पहली बार हुआ जब कोई मुसलमान इस पद पर पहुंचा.

जब दिसंबर के पहले हफ्ते में दिल्ली में नई सरकार ने शपथ ली, तब कश्मीर पहले से ही बेकाबू हालात की कगार पर था. टारगेट किलिंग की कई घटनाओं ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं, सरकारी कर्मचारियों और कश्मीरी पंडितों के बीच खौफ फैला दिया था (पार्ट 3 देखें). श्रीनगर की सड़कों पर कई आतंकी संगठन, खासकर जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF), खुलेआम हमले कर रहे थे.
8 दिसंबर को भारत के गृहमंत्री की बेटी रुबैया सईद लाल डेड मेडिकल कॉलेज (जो 14वीं सदी की संत लल्लेश्वरी के नाम पर है) से अपनी क्लास के बाद नौगाम स्थित अपने घर के लिए निकलीं. जैसे ही वो मिनी बस में चढ़ीं, JKLF के पांच आतंकी भी उसी बस में सवार हो गए. उन्होंने बस को हाईजैक किया और उसे पंपोर के पास नटिपोरा इलाके में ले गए, जो केसर के खेतों के लिए जाना जाता है.

वहां रुबैया को बस से नीचे उतरने को कहा गया और फिर उसे एक नीली मारुति कार में बिठा लिया गया. उसके बगल की सीट पर बैठा था JKLF का कमांडर-इन-चीफ यासीन मलिक (देखें पार्ट 2) और अशफाक माजिद वानी. आखिर में रुबैया को सोपोर के एक उद्योगपति के घर में ले जाकर छुपाया गया.
सरकार ने रुबैया की रिहाई के लिए नेशनल सिक्योरिटी गार्ड्स (NSG) के पूर्व प्रमुख वेद मारवाह को जिम्मेदारी सौंपी. अपनी किताब Uncivil Wars: Pathology of Terrorism in India में मारवाह लिखते हैं, 'गृहमंत्री की बेटी के साथ कोई सुरक्षा नहीं थी. जब तक आतंकियों ने एक लोकल अखबार के ऑफिस में फोन करके अपनी मांगें नहीं बताईं, तब तक किसी को- यहां तक कि उसके परिवारवालों को भी- कुछ पता नहीं था. राज्य में ऐसा कोई मामला पहले कभी नहीं हुआ था और सब लोग हैरान थे.'

राज्य के पूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अपनी किताब My Frozen Turbulence in Kashmir में उस वक्त के हालात का जिक्र करते हुए लिखा, 'पांच दिन तक देश पर डर और बेचैनी का माहौल छाया रहा. राज्य और केंद्र की सरकारें अंधेरे में टटोल रही थीं… करीब 20 मुस्लिम संगठनों ने इस किडनैपिंग की निंदा की. पाकिस्तान के कुछ नेताओं ने भी इसे गैर-इस्लामिक बताया… लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ.'
12 दिसंबर को JKLF ने फिर धमकी दी कि अगर उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो वे बंधक की जान ले लेंगे. आखिरकार, सरकार ने उनकी शर्त मान ली और पांच खतरनाक आतंकियों को रिहा कर दिया गया. कुछ ही घंटों बाद रुबैया सईद भी घर लौट आईं. वेद मारवाह लिखते हैं, 'आतंकियों ने शहर पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया था, इसमें कोई शक नहीं था. उन्होंने ताकतवर भारतीय सरकार को घुटनों पर ला दिया था और उन्हें अपनी जीत का जश्न मनाने से कोई नहीं रोक सकता था.'

खुशी का शहर, बगावत का दिन
13 दिसंबर 1989 को श्रीनगर की सड़कों पर मानो उबाल आ गया. राजौरी कदल में हज़ारों नौजवान जमा हुए और 'हम क्या चाहते? आजादी!' और 'जो करे खुदा का खौफ, उठा ले कलाशनिकोव!' जैसे नारे गूंजने लगे. रिहा किए गए आतंकी, जिन्हें जस्टिस एम. एल. भट के घर से चुपचाप निकाला गया था, हीरो की तरह जुलूस में ले जाए गए. कुछ ही समय में ये आतंकी गायब हो गए- माना गया कि वे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की तरफ निकल गए. ये वो पल था जिसने आतंक को और हौसला दिया और रूबैया सईद की किडनैपिंग को कश्मीर के आतंकवाद की दिशा बदलने वाला टर्निंग पॉइंट बना दिया.

हिंसा का एक अंतहीन चक्र
JKLF के सामने भारत सरकार का इस तरह झुकना कश्मीर के इतिहास का एक बड़ा टर्निंग पॉइंट माना जाता है. इसके बाद दो साल तक कश्मीर में खून-खराबा, विरोध और अराजकता फैली रही, जिसे कई लोग 1980 के दशक के फिलिस्तीनी इंकलाब से जोड़कर देखते हैं. आतंकी संगठनों और अलगाववादी नेताओं ने सड़कों पर कब्जा कर लिया. अपहरण और हत्याएं आम हो गईं. जवाब में सरकार ने सख्त तलाशी अभियान, बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां और भारी दमन शुरू किया. इसके चलते मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोप भी लगे. इस हिंसा और बदले की इस जंग में कश्मीरी पंडितों ने घाटी छोड़ दी. पाकिस्तान में कई ट्रेनिंग कैंप खुल गए. 1990 में जब आतंक चरम पर था, तब ISI ने करीब 10,000 कश्मीरी युवाओं को ट्रेनिंग दी थी.

बेगुनाहों का खून और कश्मीर में फैली हिंसा
बेगुनाहों का खून बहता रहा. 6 अप्रैल 1990 को कश्मीर विश्वविद्यालय के उपकुलपति डॉ. मुशीर उल हक और उनके निजी सचिव अब्दुल घनी जारगर को जम्मू और कश्मीर स्टूडेंट्स लिबरेशन फ्रंट (JKSLF) नामक संगठन ने किडनैप कर लिया. चार दिन बाद AK-47 राइफलों से गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई. जगमोहन के अनुसार, इस पूरी घटना के पीछे कई रहस्यमय थ्योरी थीं, जिनमें ISI के हाथ होने की संभावना भी जताई गई थी.

11 अप्रैल को, HMT (राज्य-स्वामित्व वाली इलेक्ट्रॉनिक्स फैक्ट्री) के जनरल मैनेजर एचएल खेड़ा की लाश श्रीनगर के फायर स्टेशन के पास सड़क पर पाई गई. उन्हें JKSLF ने अगवा किया था और उसके नेताओं ने उनकी रिहाई के बदले तीन आतंकियों की रिहाई की मांग की थी. जब ये मांगें ठुकरा दी गईं, तो खेड़ा को डेडलाइन खत्म होने के एक घंटे बाद मार दिया गया. 20वीं सदी के अंतिम दशक की शुरुआत में जो हिंसा का साया कश्मीर पर पड़ा, वह घाटी में कई और सालों तक छाया रहा. कश्मीर पर इतिहास का यह अभिशाप 21वीं सदी में और भी मजबूत हो गया.