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क्यों कट्टरता की तरफ मुड़ गए बांग्लादेश के स्टूडेंट्स? सोच में आए इतने बड़े बदलाव को समझ‍िए 

क्यों युवाओं का एक बड़ा हिस्सा अब धार्मिक कट्टरपंथी बन गया? क्यों ये लोग बांग्लादेश की यूनिवर्सिटीज़ पर काबिज हो गए? किसी भी समाज की सोच में इतना बड़ा बदलाव कभी एक वजह से नहीं होता. इसमें पारिवारिक परवरिश, स्कूल-यूनिवर्सिटी की शिक्षा, समाज और संस्कृति में आए बदलाव सब शामिल होते हैं. जानिए वजहें.

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बांग्लादेश में युवाओं द्वारा हिंसक आंदोलन की एक तस्वीर (Representative image)
बांग्लादेश में युवाओं द्वारा हिंसक आंदोलन की एक तस्वीर (Representative image)

1960 के दशक में बांग्लादेश के छात्र आज़ादी की लड़ाई की सबसे बड़ी ताकत थे. लेकिन आजादी मिलने के बाद उनमें आपसी बंटवारा तो हुआ, मगर उनमें से कोई भी धार्मिक कट्टरपंथ की तरफ नहीं गया. बांग्लादेश के 1972 के संविधान में आर्टिकल 38 के तहत साफ लिखा था कि कोई भी धार्मिक या साम्प्रदायिक आधार पर संगठन नहीं बनाया जा सकता. लेकिन ये सुरक्षा ज्यादा समय तक नहीं रही.

15 अगस्त 1975 को राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद एक अध्यादेश लाकर संविधान के उस हिस्से को खत्म कर दिया गया. इसके बाद 1977 के 'पॉलिटिकल पार्टी रेग्युलेशन एक्ट' के तहत फिर से राजनीति शुरू हुई और एक-एक कर साम्प्रदायिक पार्टियां, पाकिस्तान समर्थक ग्रुप्स और धार्मिक नाम वाली पार्टियां फिर से मैदान में आ गईं. सबसे पहले जमात-ए-इस्लामी आई, जिसने खुद को 'इस्लामिक डेमोक्रेटिक लीग' के नाम से पेश किया और फिर पुराना नाम वापस ले लिया.

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छात्रों में कट्टरपंथ की शुरुआती पैठ

भले ही पाकिस्तान समर्थक कट्टरपंथी ग्रुप्स ने नेशनल पॉलिटिक्स में एंट्री ले ली थी, लेकिन उनके छात्र संगठन शुरुआत में खुलेआम यूनिवर्सिटीज में काम नहीं कर पाए. काफी बाद में जमात की स्टूडेंट विंग ने चुपचाप और हथियारबंद तरीके से राजशाही और चिटगांव यूनिवर्सिटी में अपनी जगह बनानी शुरू की. फिर भी, लंबे समय तक वो खुले तौर पर स्टूडेंट पॉलिटिक्स में जगह नहीं बना पाए.

लेकिन जुलाई 2024 तक तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी थी. पहले आया सरकारी नौकरियों में कोटा सुधार का आंदोलन, फिर डॉ. यूनुस का 'मेटिक्युलस डिजाइन' सामने आया और आखिरकार शेख हसीना की सरकार गिर गई. इन घटनाओं ने साफ दिखा दिया कि छात्र राजनीति और युवाओं का बड़ा हिस्सा अब कट्टरपंथ की तरफ झुक गया है.

यहां तक कि ढाका यूनिवर्सिटी, जो हर प्रगतिशील आंदोलन का गढ़ मानी जाती थी, वो भी फंडामेंटलिस्ट छात्रों के हाथ में चली गई. और सबसे हैरान करने वाली बात ये है कि अब लेफ्टिस्ट छात्र भी इनके साथ आराम से खड़े हैं, जबकि 1980 के दशक में यही लेफ्टिस्ट छात्र कट्टरपंथियों के सबसे बड़े दुश्मन थे.

आखिर ये बदलाव क्यों आया?

क्यों युवाओं का एक बड़ा हिस्सा अब धार्मिक कट्टरपंथी बन गया? क्यों ये लोग बांग्लादेश की यूनिवर्सिटीज़ पर काबिज हो गए? किसी भी समाज की सोच में इतना बड़ा बदलाव कभी एक वजह से नहीं होता. इसमें पारिवारिक परवरिश, स्कूल-यूनिवर्सिटी की शिक्षा, समाज और संस्कृति में आए बदलाव सब शामिल होते हैं.  लेकिन राजनीतिक नजरिये से देखें तो दो बड़ी वजहें सबसे अहम रहीं, जिन्होंने छात्रों के बीच कट्टरपंथ को जड़ें जमाने का मौका दिया.

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कैसे छात्र राजनीति गुलाम बन गई

बांग्लादेश की राजनीति में लंबे वक्त तक लीडरशिप की नर्सरी छात्र राजनीति ही रही. पाकिस्तान काल से लेकर 1977 तक, बांग्लादेश में कोई भी छात्र संगठन कानूनी तौर पर किसी पार्टी का हिस्सा नहीं हो सकता था. लेकिन 1977 में सैन्य शासन ने पॉलिटिकल पार्टी रेग्युलेशन एक्ट लागू किया और उसके बाद से छात्र संगठनों को पार्टी विंग के तौर पर मान्यता मिल गई.

इसके बाद से बड़ी पार्टियां सीधे-सीधे अपने हित में छात्र नेताओं को चुनने और आगे बढ़ाने लगीं. फिर भी 1990 तक गैर-फंडामेंटलिस्ट छात्र संगठन कुछ हद तक आज़ाद होकर अपने नेताओं को चुनते रहे.

छात्र यूनियन चुनाव ही असली नर्सरी थे

छात्र राजनीति में असली लीडरशिप छात्र संघ चुनावों से निकलती थी. 1990 तक ज्यादातर यूनिवर्सिटीज़ और कॉलेजों में रेगुलर स्टूडेंट यूनियन इलेक्शन होते थे और वहीं से कई नेता नेशनल पॉलिटिक्स में पहुंचे.  ढाका यूनिवर्सिटी तो खास तौर पर ऐसी जगह थी, जहां से चुने गए स्टूडेंट लीडर अक्सर अपनी पार्टियों में टॉप लेवल तक पहुंच जाते थे.

जमात की स्टूडेंट विंग हाशिये पर

इस्लामी छात्र शिबिर, यानी जमात-ए-इस्लामी की स्टूडेंट विंग, तब भी हाशिये पर थी. उस वक्त छात्र राजनीति तीन धाराओं में बंटी थी – लेफ्ट, सेंटर-लेफ्ट (बांग्ला संस्कृति पर आधारित नेशनलिज्म) और सेंटर-राइट (धार्मिक नेशनलिज्म की ओर झुकाव). इनमें से सेंटर-लेफ्ट सबसे मजबूत था.

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1980 के दशक में जनरल इर्शाद ने सत्ता में आने के बाद लेफ्ट और सेंटर-लेफ्ट को बैलेंस करने के लिए अपनी खुद की स्टूडेंट विंग बनाई, लेकिन जल्दी ही उसे बंद करना पड़ा.

1990 तक तस्वीर बदलने लगी थी. ढाका यूनिवर्सिटी में चुनावों में बीएनपी की स्टूडेंट विंग, जातीयताबादी छात्र दल, ने जीत दर्ज की. ये सेंटर-राइट के लिए बड़ी कामयाबी थी और इसका फायदा बाकी राइटिस्ट ग्रुप्स को भी मिला.

1991 के बाद छात्र यूनियन चुनाव बंद

1991 के बाद हालात और बिगड़े. पब्लिक यूनिवर्सिटीज़ और बड़े कॉलेजों में छात्र संघ चुनाव ही बंद कर दिए गए. यहां तक कि ढाका यूनिवर्सिटी का DUSCU चुनाव, जो दशकों तक लीडरशिप की नर्सरी था, वो भी रोक दिया गया.

1991 से 2024 तक या तो खालिदा जिया सत्ता में रहीं या शेख हसीना, लेकिन दोनों ने छात्र चुनाव बहाल नहीं किए. इसकी वजह साफ थी, दोनों पार्टियां वंशवाद की राजनीति करने लगीं. यही वजह रही कि छात्र राजनीति कमजोर होती चली गई और उसमें नये विजन वाले नेता नहीं निकल पाए.

कट्टरपंथियों के लिए खाली जगह

जब चुनाव बंद हो गए और असली लीडरशिप निकलनी बंद हो गई, तो यह खाली जगह कट्टरपंथियों ने भर दी. वो अनुशासित थे, उनके पास विदेशी फंडिंग थी और वो बड़े संगठनों की छाया में धीरे-धीरे घुसपैठ करने लगे. जब 2024 में हसीना सरकार गिरी, तब साफ हो गया कि सेंटर-लेफ्ट और सेंटर-राइट दोनों की स्टूडेंट विंग कमजोर हो चुकी थीं और कट्टरपंथियों ने उनकी जगह ले ली थी.

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2024 बनाम 1971

आज जब 2024 के विजेता खुद को 1971 के आजादी के हीरो जैसा बताते हैं,  तो असलियत कुछ और होती है. 1971 के छात्र सेक्युलर और आधुनिक सोच वाले थे. जबकि 2024 की नई पीढ़ी खुद को 1947 के पाकिस्तान बनाने वालों की वारिस मानती है. इस पूरी गिरावट के लिए जिम्मेदार दो बड़ी पार्टियां अवामी लीग और बीएनपी ही हैं. वंशवाद की राजनीति में उलझकर उन्होंने असली और विजन वाले नेताओं को जन्म लेने ही नहीं दिया. नतीजा ये हुआ कि छात्र राजनीति अब कट्टरपंथियों की गोद में चली गई.

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(लेखक स्वदेश रॉय नेशनल अवॉर्ड विनिंग जर्नलिस्ट और 'Sarakhon' और The Present World के एड‍िटर हैं)
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