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कौन-सी सब्जी खाना चाहोगे बुधराम?

रांधा नदी अपने बच्चों के लिए जाने कब से आंचल फैलाए हुए है. उसी की ममता ऐसी है कि खेत प्यासे नहीं रहते. उसी ने खेतिहरों को भूख से बचाया. धान की बालियों को अपने दूध से लबालब किया. भुट्टे के खेतों को मोतियों से सजाया. लेकिन वह इतनी खुश तो कभी नहीं रही होगी.

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रांधा नदी अपने बच्चों के लिए जाने कब से आंचल फैलाए हुए है. उसी की ममता ऐसी है कि खेत प्यासे नहीं रहते. उसी ने खेतिहरों को भूख से बचाया. धान की बालियों को अपने दूध से लबालब किया. भुट्टे के खेतों को मोतियों से सजाया. लेकिन वह इतनी खुश तो कभी नहीं रही होगी.

केशकाल के जंगलों में चुपचाप बह रही है रांधा. उसका नाम बस उन्हें ही पता है, जो उसके दुलार पर जी रहे हैं. रांधा ही नहीं, छत्तीसगढ़ में उसकी कई बहनें और सखी-सहेलियां भी हैं, मगर गुमनाम. रांधा पूरी ताकत लगा देती होगी, लेकिन तब भी बुधराम जैसे अपने बच्चों की क्षुधा पूरी तरह शांत नहीं कर पाई.

अपना पानी उनके खेतों तक नहीं पहुंचा पाई. फसल इतनी कम होती कि पांच एकड़ खेत का मालिक बुधराम सोचा करता कि जब नुकसान की खेती ही करनी है तो क्यों न शहर में रोजी-मजूरी कर ले. सात लोगों का पेट पाटना उसके लिए हमेशा बड़ी चुनौती रही. वह खेती छोड़ ही देता, अगर उम्मीद नहीं जागती.

मातेंगा के इस किसान को नई आस तब नजर आई, जब अपने जैसे दुखियारों का दुख दूर होते देखा. उसके जैसे किसानों के खेत अनाज उगलते नजर आए. उसने देखा कि रांधा का पानी खेतों तक पहुंचाना अब किसी के लिए भी बड़ी बात नहीं रही.

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रांधा और उसके जैसे छोटे-बड़े नदी नालों के किनारों के खेत अब बारहों महीना हरियाए होते हैं. इन खेतों में अब मोटरपंपों से धकाधक पानी पहुंचाया जा सकता है. इन पंपों के संगीत में धान की बालियां झूमने लगी हैं.

बुधराम अब खेती छोड़कर कहीं और जाने की सोच ही नहीं सकता. पिछले नौ साल में जीवन में आहिस्ता-आहिस्ता बदलाव शुरू हुआ. सूखे मौसम में जो खेत मुंह चिढ़ाया करते थे, वही खेत अब ठिठोली करते हैं. खिलखिलाते हैं. पूछते हैं, "बोल, का साग खाबे बुधराम?" (कहो, क्या सब्जी खाना चाहोगे बुधराम?)

बुधराम के खेतों में अब धान के साथ सब्जियां भी उगाई जा सकती हैं. तरह-तरह की सब्जियां. इन्हें वह खा भी सकता है और बाजार में बेच कर चार पैसे कमा भी सकता है. उसने सोचा नहीं था कि उसे पंप इतनी आसानी से मिल जाएगा. कुछ कागजों में थोड़ी बहुत लिखा पढ़ी करनी पड़ी और बस, मिल गया पंप.

वह कहता है कि इतना तो करना ही पड़ता और पत्थर तोड़कर उसे उपजाऊ खेतों में बदल देने वाले किसी किसान के लिए ये कोई मुश्किल काम थोड़े ही है. पंप मिल जाने से अब वह दोनों मौसम में धान की फसल ले पाएगा. सरकार पहले ही धान का अच्छा रेट दे रही है और अब तो हर बोरे में 270 रुपये का इनाम भी मिल रहा है. बोनस के रूप में मेहनत के लिए शाबासी मिल रही है. खाद-बीज में मदद कर रही है.

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केशकाल इलाके में बुधराम जैसे ने सरकारी मदद मिल जाने से चमत्कार कर दिखाया है. पहले इस इलाके में एक हेक्टेयर में औसतन 10 क्विंटल ही धान हो पाता था, अब दोगुना होता है. औसतन 20 क्विंटल तक. कोई-कोई तो 80 क्विंटल तक उत्पादन ले रहा है.

इस इलाके में पिछले चार सालों में ढाई सौ किसानों को सरकार ने पंप उपलब्ध कराए हैं. इसी साल 58 लोगों को पंप दिए गए. इनमें बिजली से चलने वाले पंप भी हैं और डीजल पंप भी. डीजल पंपों से कहीं ज्यादा बिजली के पंप किसानों ने लिए हैं, यानी बिजली उनके खेतों तक पहुंच गई है. बुधाराम के खेतों की खुशबू लेनी हो तो कभी आइए केशकाल.

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