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रूस पर पाबंदियों का दबाव बनाने वाला अमेरिका खुद कितनी बार निशाने पर आ चुका, किन देशों ने लगाए प्रतिबंध?

अमेरिका लगातार यूरोप पर प्रेशर बना रहा है कि वो रूस पर और पाबंदियां लगाए. ये उसका पुराना तरीका है. जब भी किसी देश के साथ तनाव बढ़ा, उसने तुरंत उस पर तमाम आर्थिक-डिप्लोमेटिक प्रतिबंध मढ़ दिए. लेकिन खुद अमेरिका पूरी तरह पाक-साफ नहीं. उसपर भी कई गंभीर आरोप लगते रहे. तो क्या उस पर भी किसी ने प्रतिबंध लगाया?

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डोनाल्ड ट्रंप नाटो देशों से रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की अपील कर रहे हैं. (Photo- PTI)
डोनाल्ड ट्रंप नाटो देशों से रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की अपील कर रहे हैं. (Photo- PTI)

रूस, ईरान और उत्तर कोरिया लंबे समय से अमेरिकी पाबंदियों के बीच जी रहे हैं. अब यूक्रेन युद्ध न रोकने पर यूएस एक बार फिर से रूस पर हमलावर हो गया. उसने खुद तो मॉस्को पर भर-भरकर पाबंदियां लगा दीं, साथ ही अपने साथी यूरोप से भी इसरार कर रहा है कि वो भी ऐसा ही करे. लेकिन यूएस खुद भी प्रतिबंधों से बचा नहीं. कई देश हैं, जिन्होंने उससे हर तरह की बोलचाल और रिश्ता खत्म कर रखा है. लेकिन क्या इससे अमेरिकी ताकत पर जरा भी फर्क पड़ सका? अगर नहीं, तो फिर प्रतिबंधों का मतलब ही क्या है?

अमेरिका ने किनपर प्रतिबंध लगा रखा है

ईरान, रूस, अफगानिस्तान, चीन, वेनेजुएला और उत्तर कोरिया का नाम लिस्ट में टॉप पर रहा. इन सारे देशों के साथ अमेरिका की उठापटक चलती रही. वैसे इनके अलावा भी 20 से ज्यादा देश हैं, जिनपर यूएस ने अलग-अलग तरह से बैन लगा रखा है. 

इससे क्या फर्क पड़ता है

फर्क तो काफी पड़ता है, जो इसपर निर्भर है कि प्रतिबंध किस तरह का है. जैसे, अगर किसी देश ने मानवाधिकार हनन किया, या परमाणु बम बनाने लगे, या कुछ भी ऐसा करे, जिससे वैश्विक शांति भंग हो सकती हो, तो देश उसपर बैन लगाने लगते हैं. सोशल टर्म्स में समझें तो यह बिरादरी-बाहर करने जैसा है. इसके तहत आर्थिक और कूटनीतिक बैन लगाया जाता है. मतलब उस देश के साथ व्यापार बंद या सीमित हो जाता है, साथ ही उसके नेताओं को उस देश में यात्रा की इजाजत नहीं रहती है. बहुत बार सैन्य प्रतिबंध भी लगाए जाते हैं, मसलन, हथियार बेचने-खरीदने पर रोक या डिफेंस सहयोग रोक देना. 

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इसी तरह एसेट फ्रीजिंग भी काम करता है. मिसाल के तौर पर ब्रिटेन ने रूस के बैंकों को अपने वित्तीय ढांचे से अलग कर दिया. इसका मतलब ये कि रूसी बैंक ब्रिटिश बैंकों के साथ लेनदेन नहीं कर सकते. इसका असर आम लोगों पर होता है. रूसी नागरिक तय सीमा से अधिक रकम ब्रिटिश बैंकों से नहीं निकाल सकते. वे नाराज होंगे, जिससे रूस की सरकार पर दबाव बढ़ेगा कि वो यूके या यूएस की बात मान ले. 

white house sanctions (Photo- Pixabay)
वाइट हाउस बाकी देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने के लिए कुख्यात रहा. (Photo- Pixabay)

अगर देश मजबूत है और उसके पास खुद का संसाधन है तो वह टिक जाता है. वो दूसरे देशों के साथ व्यापार करने लगता है. और उन्हीं के साथ सैन्य समझौते करने लगता है. इससे बहुत सारे प्रतिबंधों के बीच भी वो मैदान में लंबा टिक सकता है. जैसे यूक्रेन से युद्ध करने पर रूस पर भी ढेरों बैन लगे लेकिन वो सर्वाइव कर रहा है. वहीं इकनॉमी अगर कमजोर हो तो नुकसान पहुंचाना आसान है. वो अकेला पड़ जाता है. सरकार तब भी अड़ी रहे तो जनता भी सरकार के खिलाफ हो जाती है और उसे झुकना होता है. 

अब बात आती है यूएस की, तो हरेक को प्रतिबंधों को डर दिखाने वाला ये देश खुद भी उससे बचा नहीं. 

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रूस ने उसपर कई बार जवाबी प्रतिबंध लगाए. खासकर साल 2018 में जब अमेरिका ने रूस के खिलाफ सख्त बैन लगाए, तो रूस ने भी अमेरिका के कई संस्थानों, कंपनियों और अधिकारियों पर रोक लगा दी. वैसे इसका असर ज्यादा नहीं पड़ा क्योंकि दोनों के बीच व्यापार बहुत सीमित है.

ईरान लगातार ही अमेरिका के खिलाफ बयान देता रहा. प्रतिबंधों के बदले उसने भी काउंटर सैंक्शन लगाएं लेकिन चूंकि ईरान की आर्थिक ताकत अमेरिका के मुकाबले बहुत कम है तो इससे खास फर्क नहीं हुआ. ये एक तरह का प्रतीकात्मक बैन बनकर रह गया. 

ukraine soldier (Photo- Pixabay)
रूस-यूक्रेन युद्ध में सीजफायर असफल रहने के बाद से डोनाल्ड ट्रंप भड़के हुए हैं. (Photo- Pixabay)

क्यों नहीं हो सका बड़ा असर

इसके अलावा क्यूबा, वेनेजुएला और उत्तर कोरिया ने भी कई पाबंदियां लगाईं लेकिन इन सबका ही ग्लोबल इकनॉमी में भारी योगदान नहीं, न ही सबसे अच्छे कूटनीतिक रिश्ते हैं जो वे बाकियों को भी अपने साथ प्रतिबंध लगाने को राजी कर सकें. लिहाजा प्रतिबंधों के बाद भी अमेरिका पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा.

वैसे भी यह देश इकनॉमिक, सैन्य और कूटनीतिक तौर पर पावर हाउस है. यूएन और वर्ल्ड बैंक से लेकर तमाम इंटरनेशनल संस्थाओं की बड़ी फंडिंग उसी से जाती है. अगर कोई देश अमेरिका से पूरी तरह अलग हो जाए तो उसे वित्तीय मदद, व्यापार और सुरक्षा में भी नुकसान उठाना पड़ सकता है. ऐसे में उसपर पूरा इकनॉमिक बैन  संभव नहीं. 

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बीच-बीच में यूएस ने खुद माना कि कुछ पाबंदियों से उसकी कंपनियों और एनर्जी सेक्टर पर असर हुआ. मिसाल के तौर पर, रूस से एनर्जी के आयात में कमी आई तो यूरोप की इकनॉमी डोलने लगी. इससे अमेरिका को भी गैस और तेल की कीमतों में उठापटक देखनी पड़ी. हालांकि वैकल्पिक तरीकों से उसने इसपर काबू पा लिया. 

जाते हुए एक नजर रूस पर लगे प्रतिबंधों पर भी डाल लें. स्टेटिस्टा रिसर्च डिपार्टमेंट की लगभग दो साल पुरानी रिपोर्ट के अनुसार, मॉस्को पर इस वक्त दस हजार से भी ज्यादा पाबंदियां लगी हुई हैं. कोई और देश होता तो अब तक घुटनों पर आ चुका होता लेकिन रूस के अपने दोस्त हैं, जो उसकी मदद के लिए तैयार रहते हैं. नतीजा ये है कि उसकी इकनॉमी भरभराई नहीं, बल्कि अब तक टिकी हुई है. कई बार देश अपनी जीडीपी के बारे में पारदर्शी नहीं होते, इसलिए असर स्थिति पता नहीं लग पाती. हालांकि रूस का अब तक सीजफायर न करना और युद्ध जारी रखना बताता है कि उसके सिस्टम पर अमेरिकी कोशिशों का खास असर नहीं हुआ. 

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