देश में घुसपैठियों का मसला रह-रहकर जोर पकड़ता है. एक तरफ अमेरिका और यहां तक कि पाकिस्तान जैसे देश भी अपने यहां घुसपैठ को नहीं सहते, वहीं भारत शरणार्थी पॉलिसी के बगैर भी कई देशों के लोगों को पनाह दिए हुए है. इनमें बांग्लादेश और म्यांमार से आए लोग भी शामिल हैं. हाल में कुछ रोहिंग्या शरणार्थियों को जबरन वापस भेजने के विरोध में सुप्रीम कोर्ट तक याचिका पहुंच गई.
सात मई के बाद से असम और नई दिल्ली से लगभग 140 बांग्लादेशी और रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस उनके देशों की तरफ डिपोर्ट किया गया. डेकन हेराल्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार, इनमें से 40 के करीब रोहिंग्याओं को पोर्ट ब्लेयर होते हुए म्यांमार की तरफ समुद्री सीमा पर छोड़ दिया गया. इसके बाद से ही हंगामा मचा हुआ है. इन्हें लेकर एससी में एक याचिका लगा दी गई, जिसमें याचिकाकर्ता ने उन्हें वापस लौटाने, साथ ही 50 लाख रुपए मुआवजा देकर उन्हें रहने की अनुमति देने की भी मांग की.
इसके साथ ही ये बात उठ रही है कि जहां देश के आम लोग अपनी बात लेकर अदालत तक मुश्किल से जा पाते हैं, ऐसे में अवैध तौर पर प्रवेश किए लोगों के क्या अधिकार हैं?
हम रिफ्यूजी पॉलिसी में शामिल नहीं
भारत रिफ्यूजी कन्वेंशन और 1967 प्रोटोकॉल का हिस्सा नहीं. दरअसल पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बाद करोड़ों की संख्या में लोगों ने दूसरे देशों में शरण ली. लेकिन तब तक इसके लिए कोई औपचारिक गाइडलाइन नहीं बन सकी थी. साल 1951 में लीग ऑफ नेशन्स (अब यूनाइटेड नेशन्स) ने इसपर पूरा काम किया और शरणार्थी पॉलिसी बनाई. हालांकि शुरुआत में ये केवल यूरोपियन शरणार्थियों तक सीमित थी. बाद में साल 1967 में प्रोटोकॉल बना, जो पूरी दुनिया के शरणार्थियों पर लागू हुआ. भारत समेत कई दक्षिण एशियाई देश, जैसे बांग्लादेश, पाकिस्तान, श्रीलंका, मलेशिया और इंडोनेशिया इसका हिस्सा नहीं.

क्यों नहीं किए हमने दस्तखत
तत्कालीन सरकार ने कन्वेंशन 1951 पर साइन नहीं किए क्योंकि वे साउथ एशियाई सीमाओं की अस्थिरता को देख रहे थे, और नहीं चाहते थे कि देश की सुरक्षा खतरे में आए. भारत की सीमाएं वैसे भी काफी पोरस हैं, यानी बॉर्डर पार करके आना-जाना चलता रहता है. ऐसे में कन्वेंशन पर भी दस्तखत कर देने का मतलब था, आंतरिक सुरक्षा के साथ खिलवाड़. फिलहाल देश के पास हक है कि वो तय करे कि किसे रहने दिया जाए, और किसे नहीं. यानी हमपर कानूनी तौर पर कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि रिफ्यूजियों को शरण दें.
फिर शरणार्थी यहां किस हैसियत से रहते हैं
- एक श्रेणी यूएनएचसीआर वाले शरणार्थियों की है. जैसे अफगानिस्तान, म्यांमार और कुछ अफ्रीकी देशों के लोग यूएनएचसीआर से रिफ्यूजी कार्ड लेते हैं. यही संस्था उन्हें यहां मानवाधिकार के हवाले से भारत में ठहरने देने की सिफारिश करती है. वैसे ये पूरी तरह से भारत सरकार पर तय है कि वो इजाजत देगी या नहीं.
- पॉलिटिकल असाइलम वाली आबादी भी है. ये तिब्बती या श्रीलंकाई तमिल रिफ्यूजी हैं. इन्हें कैंपों में रखा जाता है, और नागरिकों जितने अधिकार नहीं मिलते हैं. लेकिन बेसिक हक इनके पास होता है.

कुल मिलाकर, शरणार्थी यहां कानूनी हक से नहीं, बल्कि देश की नरमी के आधार पर रह रहे हैं. ऐसे में सरकार चाहे तो उन्हें डिपोर्ट भी करवा सकती है. अगर सरकार को लगे कि कोई शरणार्थी देश की सुरक्षा के लिए खतरा है, या अवैध रूप से रह रहा है तो उसे वापस भेजा जा सकता है. रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों को लेकर ये मुद्दा अक्सर उठता रहा.
फिर वे सुप्रीम कोर्ट कैसे पहुंच जाते हैं
भले ही शरणार्थी नागरिक न हों, लेकिन वे चूंकि हमारी जमीन पर हैं इसलिए उन्हें भी भारतीय संविधान के तहत कुछ अधिकार मिले हुए हैं, जैसे आर्टिकल 21 के तहत उन्हें जीवन और व्यक्तिगत आजादी का हक मिला हुआ है. कोई भी शख्स चाहे वो नागरिक हो, या बाहरी, जब तक भारत में है, उसे बिना कानूनी प्रक्रिया के न निकाला जाए. इसी तरह से आर्टिकल 14 समानता का अधिकार देती है. देश में मौजूद हर व्यक्ति कानून की नजर में बराबर है. वो कोर्ट जाकर अपनी मांग रख सकते हैं, या फिर उनके बदले कोई और भी ये डिमांड कर सकता है. यहां तक कि अवैध तौर पर आए लोग भी डिपोर्टेशन को चुनौती दे सकते हैं.
कोर्ट के फैसला सुनाए जाने तक क्या होता है
यह पूरी तरह से सरकार पर निर्भर है. कुछ लोगों को डिटेंशन सेंटर में रखा जाता है. वहीं यूएनएचसीआर कार्ड लेकर आए लोग बाहर रह तो सकते हैं लेकिन सरकारी नौकरी सुविधा नहीं ले सकते.