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Retro Review: कागज के फूल- जब गुरु दत्त की उम्मीद हार में बदल गई

हमारी Retro Review सीरीज के तहत, हम एक बार फिर से कागज के फूल (1959) की बात कर रहे हैं, यह गुरु दत्त की आखिरी डायरेक्ट की गई फिल्म थी, और उनके दुखद अंत की एक झलक भी.

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कागज के फूल (1959)
कागज के फूल (1959)

हमारी Retro Review सीरीज के तहत, हम एक बार फिर से कागज के फूल (1959) की बात कर रहे हैं, यह गुरु दत्त की आखिरी डायरेक्ट की गई फिल्म थी, और उनके दुखद अंत की एक झलक भी.

फिल्म: कागज के फूल (1959)

स्टार कास्ट: गुरु दत्त, वहीदा रहमान, जॉनी वॉकर

निर्देशन: गुरु दत्त

संगीत/गीत: एसडी बर्मन, कैफी आजमी

बॉक्स ऑफिस: फ्लॉप (लेकिन अब एक कल्ट क्लासिक)

कहां देखें: YouTube

क्यों देखें: फेम और असफलता की गहराई से परख के लिए

कहानी से सीख: दर्द जिंदगी का हिस्सा है, लेकिन ये अंत नहीं है.

गुरु दत्त की फिल्मी सोच

फिल्में अक्सर या तो मनोरंजन के लिए बनाई जाती हैं या सोचने पर मजबूर करने के लिए. गुरु दत्त की फिल्में दोनों ही काम करती हैं. उन्होंने बाजी (1951) और आर पार (1954) जैसी हिट फिल्मों से शुरुआत की, जो आम लोगों को खूब पसंद आईं. लेकिन गुरु दत्त के अंदर का कलाकार कुछ और चाहता था. वो जिंदगी के बड़े सवालों से जूझना चाहता था, जैसे जिंदगी का मतलब क्या है, इंसान की अहमियत क्या है, और एक कलाकार की समाज में क्या जगह है.

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यूरोपियन डायरेक्टर्स जैसे इंगमार बर्गमैन और फेडेरिको फेलिनी से प्रेरित होकर, गुरु दत्त ने मिस्टर एंड मिसेज 55 (1955) की सफलता के बाद, गहराई से सोचने वाली फिल्में बनानी शुरू कीं.

इस सोच से निकलीं दो यादगार फिल्में: प्यासा (1957) और कागज के फूल (1959).
दोनों ही फिल्मों में एक जैसे सवाल थे- जिंदगी का मकसद क्या है, और जब समाज आपको ठुकरा देता है तो आप कैसे जवाब देते हैं. लेकिन दोनों के जवाब बिल्कुल अलग थे.

वही सवाल, दो अलग जवाब

प्यासा में विजय (गुरु दत्त) एक कवि है, जिसे पैसे की भूखी दुनिया ठुकरा देती है. फिल्म के अंत में, जब सब उसे मरा हुआ समझ रहे होते हैं, वो अपनी ही श्रद्धांजलि सभा में आकर बोलता है- "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?" वो लोगों की झूठी तारीफ को ठुकरा देता है और असली इंसानियत की मिसाल बनी गुलाबो के साथ चला जाता है.

वहीं, कागज के फूल में कहानी तो वही है. समाज एक कलाकार को नकार देता है- लेकिन जवाब बहुत अलग है. सुरेश सिन्हा (गुरु दत्त) नाम का निर्देशक, जो कभी बहुत कामयाब था, अब हार मान लेता है. वो अकेलेपन, शराब और अफसोस में डूब जाता है.
फिल्म के आखिरी सीन में, वो शांति (वहीदा रहमान) से दूर भाग जाता है, जो उससे प्यार करती थी. और वापस उसी खाली स्टूडियो में चला जाता है जहां वो कभी राजा था. वहां, निर्देशक की कुर्सी पर अकेले ही उसकी मौत हो जाती है.

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उम्मीद से खुद को मिटाने तक

प्यासा का विजय एक ऐसा कलाकार है जो झुकने को तैयार नहीं होता. वो अपने उसूलों के साथ खड़ा रहता है. कागज के फूल का सुरेश सिन्हा अंदर से टूट चुका है. वो हार मान लेता है, और कहता है- "अब मुझसे नहीं होगा." गुरु दत्त खुद भी बहुत संवेदनशील इंसान थे. प्यासा के समय उन्होंने नींद की गोलियों से जान देने की कोशिश की थी.
फिल्म हिट तो हुई, लेकिन अवसाद और शराब ने उन्हें अंदर से खा लिया. कागज के फूल उनकी जिंदगी का आईना है- जहां हर सीन उनके दिल की तकलीफ को दिखाता है.

एक सीन में, सुरेश शांति से लंबे समय बाद मिलता है और शराब का गिलास उठाकर कहता है- "जब शोहरत, पैसा, प्यार... सबका नशा उतर जाए, तब बस यही बचता है." ये डायलॉग सिर्फ एक सीन नहीं, बल्कि गुरु दत्त की टूटी शादी, वहीदा रहमान से जुड़ाव और शराब की लत की कहानी है. एक और सीन में, समुद्र किनारे चल रहे सुरेश के कदम लहरें मिटा देती हैं, ये दिखाता है कि इंसान की मौजूदगी कितनी अस्थायी है.

गुरु दत्त की विरासत

अगर वो जिंदा होते, तो 9 जुलाई 2025 को 100 साल के होते. लेकिन 1964 में, महज 39 साल की उम्र में उन्होंने नींद की गोलियों से अपनी जान ले ली और वो अंत कागज के फूल के सुरेश सिन्हा जैसा ही था. गुरु दत्त की फिल्में, खासकर प्यासा और कागज के फूल, एक खुली किताब हैं. इनमें उन्होंने अपने अंदर के सवालों को लोगों के सामने रखा- "जिंदगी का मतलब क्या है? और क्या ये जीने लायक है?"

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उनका अंत भले ही दुखद था, लेकिन उनकी ईमानदारी और फिल्में हमें हिम्मत देती हैं कि हम भी दुनिया से लड़ें और अपनी पहचान बनाएं. गुरु दत्त की 100वीं जयंती पर सबसे बड़ा सम्मान यही होगा कि हम विजय को अपना आदर्श मानें, और जिंदगी की मुश्किलों को मुंहतोड़ जवाब दें- "ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?"

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