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इंडियन सिनेमा की पहचान बन सकती थी 'मांझी-द माउंटेन मैन'

'मांझी-द माउंटेन मैन' की पहले दिन की कमाई देखकर केतन मेहता को खीझ उठ रही होगी सोच रहे होंगे कि अगर पहले पता होता कि ओपनिंग 1.40 करोड़ से होगी तो अच्छी फिल्म ही बना लेता.

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'मांझी-द माउंटेन मैन'
'मांझी-द माउंटेन मैन'

फिल्म का नाम: मांझी-द माउंटेन मैन
डायरेक्टर: केतन मेहता
स्टार कास्ट:
नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांशु धूलिया, पंकज त्रिपाठी
अवधि: 124 मिनट
सर्टिफिकेट: U
रेटिंग: 3 स्टार
जॉनर:
बायोपिक, ड्रामा

'मांझी-द माउंटेन मैन' की कमाई देखकर केतन मेहता सोच रहे होंगे कि अगर पहले पता होता कि ओपनिंग 1.40 करोड़ से होगी तो अच्छी फिल्म ही बना लेता. दलित शोषण, प्रेम, और प्रेरणा में पॉलिटिक्स का तड़का लगाकर खिचड़ी क्यों बनाता. केतन मेहता को यह भी महसूस हो रहा होगा कि भले ही नवाजुद्दीन आज लोगों की नजर में बढ़िया एक्टर हों लेकिन वो स्टार नहीं हैं. आज भी लोग शाहरुख के रोमांस, सलमान की बॉडी और अक्षय के एक्शन से ऊपर नहीं उठ पाए हैं और फिर बिना आइटम सॉन्ग के दर्शकों से फिल्म देखने की उम्मीद करना ही बेजा है.

बहरहाल देखा जाए तो केतन मेहता ही नहीं बॉलीवुड के एक और दिग्गज डायरेक्टर ने इस साल अपना महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पूरा किया था जी हां अनुराग कश्यप. 'बॉम्बे बेलवेट' के साथ भी अनुराग ने यही गलती की थी जो केतन मेहता ने 'मांझी-द माउंटेन मैन' के साथ की. गलती थी आर्ट और कॉमर्शियल सिनेमा को मिलाने का प्रयास. अब इन दोनों के बाद 'क्वीन' से राजा बने विकास बहल भी बड़ी शानदार फिल्म ला रहे हैं ट्रेलर तो शानदार है लेकिन फिल्म कितनी शानदार होगी यह देखना मजेदार होगा. खैर हम वापस लौटते है केतन मेहता की 'मांझी-द माउंटेन मैन' पर और जानते है फिल्म में क्या कमियां रह गईं जिनपर अगर काम किया जाता तो निश्चित तौर पर 'मांझी-द माउंटेन मैन' अवॉर्ड्स दिलाने के साथ-साथ वर्ल्ड लेवल पर इंडियन सिनेमा की साख भी बढ़ाती.

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डायरेक्शन
केतन मेहता अपनी बेहतरीन आर्ट फिल्मों के लिए जाने जाते हैं. फिर चाहे वह फिल्म 'सरदार' हो या 'रंगरसिया'. फिल्म 'मांझी-द माउंटेन मैन' की बात की जाए तो केतन मेहता ने पूरी कोशिश की कि वह फिल्म को आर्ट और कॉमर्शियल का मिक्स्चर बनाएं लेकिन मिक्स्चर के चक्कर में केतन ने एक अवॉर्ड विनिंग स्टोरी का कबाड़ा कर दिया. अलग-अलग मुद्दों को फिल्म में शामिल करने के चक्कर में उन्होंने कहानी की मूल स्टोरी को हल्का कर दिया. फिल्म एक विषय पर केन्द्रित नहीं दिखती है जिसकी वजह से फिल्म में खालीपन शुरू से आखिर तक बना रहता है. फिल्म की कहानी को रोचक तरीके से दिखाने के लिए उन्होंने सीन्स का सीक्वेंस आगे पीछे भी किया लेकिन वह सीक्वेंस जस्टिफाइड नहीं लगते बल्कि चुभते हैं. फिल्म में कुछ सीन्स गैरजरूरी भी लगते हैं जो मूल कहानी का वजन हल्का करते हैं. कुल मिलाकर कहा जाए तो केतन मेहता की काबिलियत की तुलना में फिल्म का डायरेक्शन कमजोर है.

एक्टिंग
फिल्म में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने दशरथ मांझी के किरदार के साथ-साथ मांझी के पागलपन और जुनून को भी आत्मसात किया है जो किसी भी एक्टर के लिए आसान बात नहीं होती. नवाजुद्दीन के डायलॉग बोलने के अंदाज और आवाज के उतार-चढ़ाव की समझ से नवाजुद्दीन ने साबित कर दिया कि वह शानदार भी हैं और जबरदस्त भी. राधिका आप्टे ने फगुनिया की मासूमियत को बेहतरीन ढंग से जिया और दिखा दिया कि वह हर तरह के रोल के लिए तैयार हैं. फिल्म में मुखिया का किरदार निभा रहे तिग्मांशु धूलिया ने अपने रोल के साथ न्याय किया. हालांकि उनकी एक्टिंग में नएपन की कमी जरूर महसूस होती है. फिल्म के अन्य किरदारों में अशरफ उल हक ने कमाल की एक्टिंग की है. अशरफ ने मांझी के पिता का किरदार बहुत ही तबियत से निभाया है. फिल्म में पंकज त्रिपाठी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में एक्टिंग की है वहीं गौरव द्विवेदी ने पत्रकार का किरदार वखूबी निभाया है गौरव के किरदार की सबसे बेहतरीन बात यह रही कि उनका किरदार समय के साथ मैच्योर होता दिखाई देता है.

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स्क्रीनप्ले
स्क्रीनप्ले जाखर महेन्द्र और केतन मेहता ने मिलकर लिखा है. स्क्रीनप्ले में कहानी को घुमा फिरा के दिखाने के चक्कर में कहानी का प्लॉट कन्फ्यूजिंग हो गया है. फिल्म में तीन प्लॉट एक साथ चलते हैं जो एक दूसरे से कनेक्ट नहीं कर पाते हैं. चाहे वह मांझी के पड़ोसी की बीवी की हत्या का सीन हो या फिर मांझी का पैदल दिल्ली आना. फिल्म में नक्सली आंदोलन का सीन भी अटपटा लगता है. स्कीनप्ले अधूरेपन से जूझता है और मांझी की जुनूनी मोहब्बत की कहानी बयां नहीं कर पाता है. फिल्म देखते वक्त कई बार महसूस होता है कि फिल्म बॉलीवुड स्टाइल में बनाई गई एक डॉक्यूमेंट्री है.

एडिटिंग
हालांकि इस तरह की कहानी को पर्दे पर उतारना आसान नहीं होता लेकिन प्रतीक चेतालिया ने फिल्म में कई जगह लापरवाही भी बरती है. फर्स्ट हाफ में फिल्म फ्लो में नहीं लगती है, सीन अटपटे से लगते हैं. फिल्म में पहाड़ तोड़ने के प्रोसेस और सीन्स पर ज्यादा काम नहीं किया गया है जिससे शुरूआत से आखिर तक दिमाग में एक ही सवाल रहता है कि यह पहाड़ कैसे कोई एक हथौड़े से तोड़ सकता है जिसका जवाब पहाड़ टूट जाने के बाद भी नहीं मिलता है. अगर कहानी सच्ची ना होती तो शायद ही फिल्म देखकर कोई यकीन कर पाता कि पहाड़ तोड़ा जा सकता है. फिल्म के एक सीन में मांझी सांप के जहर से बचने के लिए अपना अंगूठा काट डालता है लेकिन कुछ सीन्स के बाद लगता है कि अंगूठा वापस उग गया है. इसी तरह फिल्म का क्लाइमेक्स भी नीरस लगता है.

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सिनेमेटोग्राफी
सिनेमैटोग्रार राजीव जैन ने उस समय के गांव को कैमरे में कैद कर हमारे सामने परोसने की एक सफल कोशिश की है. लेकिन फिल्म में पहाड़ छोटा बड़ा होता रहता है . जब मांझी पहाड़ चढ़ता है तो बिल्कुल नहीं लगता कि वह पहाड़ चढ़ना इतना मुश्किल था लेकिन कैमरे में पहाड़ बहुत विशालकाय दिखता है. हालांकि सूखे के वक्त गांव वालों के पलायन का सीन और मांझी का पानी के लिए तड़पने वाले सीन राजीव जैन की काबिलियत का अहसास कराते हैं. लेकिन कैमरे के साथ मांझी की कहानी और भी बेहतर ढंग से कही जा सकती थी.

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