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Film Review: फिल्म क्वीन से बॉलीवुड को मिल गई नई 'रानी' कंगना रनोट

फिल्म क्वीन कमाल की है, ये तो आपको स्टार देखकर ही अंदाजा लग गया होगा. फिल्म की कहानी, कंगना रनोट समेत सभी कलाकारों की एक्टिंग, हालात से पैदा होती सहज कॉमेडी और अंत, सब कुछ अर्थ समेटे हुए हैं. आपको ये फिल्म जरूर जरूर देखनी चाहिए.

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फिल्म क्वीन का एक सीन
फिल्म क्वीन का एक सीन

फिल्म: क्वीन
एक्टर: कंगना रनोट, राजकुमार राव, लीजा हेडन
डायरेक्टर: विकास बहल
ड्यूरेशन: 2 घंटे 26 मिनट
स्टार: पांच में साढ़े चार

फिल्म क्वीन कमाल की है, ये तो आपको स्टार देखकर ही अंदाजा लग गया होगा. फिल्म की कहानी, कंगना रनोट समेत सभी कलाकारों की एक्टिंग, हालात से पैदा होती सहज कॉमेडी और अंत, सब कुछ अर्थ समेटे हुए हैं. आपको ये फिल्म जरूर जरूर देखनी चाहिए. लड़कियों को अपने आत्म का विस्तार पाने के लिए और लड़कों को अपने ज्ञान चक्षु खोलने के लिए. ये तो थी शॉर्ट में सलाह उनके लिए, जो भड़भड़ाए रहते हैं कि लंबा लेक्चर न दो, बस बता दो कि जाएं या न जाएं. तो जाइए प्रभु. और जो इत्मिनान से फिल्म का फुल मजा लेना चाहते हैं. उनके लिए पेश ए खिदमत है मेरा आत्मालाप.

फिल्म क्वीन बहुत निष्पाप है. इसकी जो लीड किरदार है, जिसे बंबइया भाषा में हीरोइन कहते हैं. वह कहीं से भी हीरोइन नहीं लगती. हमारे आस पास के मिडल क्लास की एक लड़की लगती है, जो तमाम पुरुषों मसलन, पापा, भइया और बेटों के साये में पलती-बढ़ती है, अगर इसे बढ़ना कह सकें तो. वह तमाम दुनियादारी सीखती है, मगर इस क्रम में उसमें तनिक भी कलुष नहीं आता. दूसरे भी जो किरदार हैं, वह विरुद्धों का सामंजस्य लगते हैं. फिल्म किसी को भी ठहर कर जज नहीं करती. सही-गलत का फैसला नहीं सुनाती और न ही पारंपरिक ढंग से आखिर में औरत की आजादी पर शोर भरा, आडंबरी अर्थ लिए शब्दों से लदा भाषण रगड़ती है आपके दिमाग पर.

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इसकी और परतें खोलने से पहले कहानी के कुछ सिरे गूंथ लें. आसानी रहेगी. रानी दिल्ली के राजोरी गार्डन की है. पापा मिठाई वाले हैं और उनके दोस्त के शब्दों में कहें तो रानी बिटिया बहुत स्वीट है. बिल्कुल चाशनी में पगी. मगर सच ये है कि रानी खुद रानी के शब्दों में तमाम जिंदगी सबकी बात मानती रही. अच्छी बनी रही. और इस क्रम में जैसा कि ज्यादातर होता है, अपना आत्मविश्वास नहीं समेट पाई कभी इस मुट्ठी भर आकाश, जिसे दुनिया कहते हैं, उसे लांघने के लिए. रानी को विजय से प्यार हो जाता है. इसके लिए विजय वह सारे जतन करता है, जो हमारी पीढ़ी ने सीखे हैं. कभी दिल वाले बलून ले जाना, तो कभी पीछा कर अपने प्यार की गहराई का जबरन एहसास कराना.

फिर बारी आती है रानी वेड्स विजय मोमेंट की. मगर विजय बाबू तो अब यूके हो आए हैं. मॉर्डन हो गए हैं कथित रूप से. तो उन्हें अब रानी अपने टाइप की नहीं लगती. और वो फैसला करते हैं बियाह से दो रोज पहले, न बोलने का. रानी पर तो जैसे पहाड़ गिर जाता है. मगर चुप्पी भरे आंसू जब सुबह सूखते हैं, तो सबसे पहले वह अपनी शादी के लिए पैक किए लड्डू खाती है और उसके बाद तय करती है कि पाई पाई जोड़कर उसने जो पैरिस और एम्सटर्डम में हनीमून मनाने की प्लानिंग की है, उसे कंटीन्यू करेगी.

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निहायत पाक और कथित समझदारी से रहित रानी को उसके मम्मी पापा भी जाने देते हैं. शायद इससे बिटिया के दरक चुके दिल को कुछ मरम्मत मिले, ऐसा सोचकर. रानी जब पैरिस पहुंचती है, तो शुरुआती झटकों के बाद खुद को उस दुनिया के हवाले कर देती है, जहां हंसने मुस्कुराने के लिए किसी टेक किसी सहारे की जरूरत नहीं होती. यहां उसकी मुलाकात होती है हाफ इंडियन कन्या विजयलक्ष्मी से. विजयलक्ष्मी एक होटल में काम करती है, मस्ती करती है और पूरी तल्लीनता के साथ अपने बॉयफ्रेंड से हुए बेटे को पालती है. उसके साथ रानी खुलती है, खिलती है और खिलखिलाती भी है.

यहां जब रानी सफर के दूसरे पड़ाव एम्सटर्डम की तरफ रवाना होती है, तो विजय को उसके इस नए रूप के धोखे से दर्शन हो जाते हैं. फिर उन्हें लगता है कि आइला, ये क्या कर दिया मैंने. वह देवदास मोड में आ जाते हैं और अपनी क्वीन को पाने के लिए निकल पड़ते हैं, मैं तेरे पीछे पीछे आऊंगा का राग अलापते हुए उस शहर की तरफ. मगर रानी तो यहां अपने नए बने दोस्तों के साथ जिंदगी के नए और जरूरी मायने सीख रही है. तो क्या रानी वापस राजौरी आकर विजय को गले लगा लेती है...यहीं फिल्म बहुत गंभीरता और सरलता के साथ संदेश देती है.

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इस फिल्म को अपनी बेदाग एक्टिंग से संवारा है कंगना रनोट ने. उन्होंने हमें बताया कि क्यों उन्हें बहुत बहुत ज्यादा गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है. बिना मेकअप के लाजपत नगर मार्केट टाइप कुर्ती और जींस में पहले झिझक चलती और आखिर में दौड़ती रानी एक औरत का सफर है और उसे तसल्लीबख्श जिंदगी मुहैया कराई है कंगना ने. मम्मी पापा की कसम, फैन हो गया मैं इस लड़की की एक्टिंग का.

रानी की कहानी की शुरुआत होती है, टिपिकल दिल्ली अंदाज में. लड़की की मेहंदी चल रही है और वह फिकर कर रही है कि हाय मम्मी ने सूट भी नहीं बदला. चिंटू फोटो भी नहीं खींच रहा, फेसबुक पर कैसे अपडेट करूंगी और विजय यूके से लौटकर कितना स्मार्ट लगने लगा है. ये तमाम चीजें हमें इस चरित्र के सम्मोहन में बांधती हैं. फिर जब वह पैरिस में शराब पीने के बाद अपनी मुस्कान और आंसू के बीच तमाम डर और सोच साझा करती है, तो आप उसके प्यार में पड़ जाते हैं. आखिर में वह जब अपने दम पर फ्रॉकनुमा ड्रेस संभाले शहर की पगडंडी पर भागती है, तो साफ नजर आता है कि आखिर उसके असल सपनों को पर लग गए हैं.

फिल्म में रानी के अलावा विजय के रोल में राजकुमार राव ने भी बहुत उम्दा एक्टिंग की है और शाहिद से शुरू की रवायत को आगे बढ़ाया है. एक भारतीय बालक किस तरह अपने प्यार को प्रभुता में बदल देता है, केयर के नाम पर हावी होता है और जब सब कुछ गंवाने की हद पर आता है, तो कैसे चिरौरी मोड में आ जाता है, इसे क्वीन में बखूबी दिखाया गया है.

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इसके अलावा लीजा हेडन और दूसरे एक्टर्स ने भी अपने अपने रोल बखूबी निभाए हैं. मैंने ऊपर जिक्र किया कि फिल्म में विरुद्धों का सामंजस्य है. एक तरफ रानी की दादी है, जो उसे समझाती है कि बेटा जब हमें लगता है कि सब खत्म हो गया, तब हम गलत होते हैं. फिर जब जिंदगी कुछ बेहतर हो जाती है, तब समझ आता है कि जो हुआ, अच्छा ही हुआ. कुल मिलाकर दिल्ली में रहने के बावजूद खूब चिल्ड आउट दादी. और एक पैरिस में रहने वाली धींगरा अंकल की फैमिली है, जिसकी महिलाएं रानी को देखकर ऐसे मर्सिया पढ़ती हैं, गोया रानी की शादी न टूट गई, जिंदगी की लड़ी ही हमेशा के लिए बिखर गई. एक तरफ विजय की मम्मी हैं, जिनके लिए पैरिस से लौटी रानी एक खुला खत है, जिसका मजमून बस इतना है कि जब बेटा और पापा दफ्तर चले जाएंगे, तो वह चाय पिएंगी साथ में. गप्प लड़ाएंगी और किटी करेंगी. दूसरी तरफ विजयलक्ष्मी है, जो किसी भी गिल्ट को परे धकेल अपने तईं जिंदगी जीने में लगी है.

रानी जब अपनी वर्जिनिटी के बोझ को बिसार लिप टु लिप किस करती है, तो वह भी तमाम अपराध बोध को उन्मुक्त ढंग से विसर्जित कर देती नजर आती है. इसी तरह से वह जब अंत में विजय को गले लगाती है, तो उसमें किसी भी किस्म की बदले की भावना नहीं होती. यह एक किस्म का ऋषियों वाला भाव है, जिसमें सब कुछ जानकर भी निष्छल बने रहने की पवित्र जिद हावी रहती है.

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डायरेक्टर विकास बहल ने कहानी की कसावट में कहीं भी कमी नहीं छोड़ी. फिल्म की लेंथ देखकर एकबारगी लगता है कि कहीं कहीं प्लॉट को जबरन कई सिरों में फैलाया गया होगा. मगर ऐसा होता नहीं. रफ्तार और घुमाव लगातार बने रहते हैं. हां कुछ एक विदेशी किरदारों की कहानी सुनाकर रानी के दुख और उबार को जो संदर्भ मुहैया कराने की कोशिश की गई है, उससे बचा जा सकता था.

अमित त्रिवेदी का म्यूजिक लगातार देव डी की याद दिलाता है. रानी के वियोग के दौरान बजा रांझा हो या आखिर में उसके उभार के दौरान बजा 'किनारे मिल गए', सब कहानी की सघनता को बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं.

फिल्म 'क्वीन' जरूर देखिए. ये बताती है कि मैंने होठों से लगाई तो हंगामा हो गया गाने वाली औरत जरूरी नहीं कि आजादी के नाम पर आत्मघात के रास्ते की तरफ ही बढ़े. ये फिल्म आपको बेहतर इंसान बनाने में मदद करेगी. बिना किसी लेक्चर के. इस कहानी की कई परतें और हर परत एक बारीक निगाह की मांग करती है. इस साल की बिलाशक सबसे बेहतरीन फिल्मों में से एक को मिस करना मारक होगा. अस्तु.

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