
रेट्रो रिव्यू सीरीज के तहत, हम पुराने हिंदी सिनेमा के ऐसे नायाब रत्नों को दोबारा देख रहे हैं, जिन्होंने अपने समय में समाज के नियमों को चुनौती दी. बंबई का बाबू भी ऐसी ही एक फिल्म है, जो अपराध और सजा की पारंपरिक सोच से हटकर कुछ नया कहती है.
फिल्म का नाम: बंबई का बाबू (1960)
मुख्य कलाकार: देव आनंद, सुचित्रा सेन, अचला सचदेव, धूमल, नजीर हुसैन, राशिद खान
निर्देशक: राज खोसला
बॉक्स ऑफिस पर स्थिति: फ्लॉप
कहां देखें: यूट्यूब पर उपलब्ध
क्यों देखें: क्योंकि इसकी कहानी अपने समय से काफी आगे थी. देव आनंद का एक ऐसा किरदार जो हीरो होते हुए भी नैतिक रूप से ग्रे है. सुचित्रा सेन की शानदार अदाकारी, खासकर ब्लैक-एंड-व्हाइट सिनेमा में उनकी आखिरी यादगार परफॉर्मेंस. एस.डी. बर्मन का शानदार और विविधता से भरा संगीत.
फिल्म का संदेश: इस दुनिया में सबसे मुश्किल होता है अपने ही जमीर को धोखा देना.
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सुचित्रा सेन कांगड़ा घाटी की एक हरी-भरी वादी में पेड़ से फूल तोड़ने की कोशिश कर रही हैं. घास में लेटे हुए देव आनंद उन्हें टकटकी लगाकर देखते हैं—उनके होंठ थोड़े खुले हैं और आंखों में शरारत की चमक है. सिनेमैटोग्राफर जल मिस्त्री का कैमरा जैसे सुचित्रा सेन पर ठहर ही जाता है. कभी उनकी खूबसूरत अदाओं की हल्की झलक दिखाता है, तो कभी उनकी मोहक मुस्कान की झलक से दर्शक को छेड़ता है.
फिर, प्यार में डूबे देव आनंद एक फूल तोड़ते हैं और उसे सुचित्रा के बालों में सजा देते हैं.
"ये तुमने क्या कर दिया? तुम्हें पता है कि कुंवारी लड़कियां फूल नहीं लगातीं," सुचित्रा सेन संजीदगी से पूछती हैं. देव आनंद मुस्कुराते हुए जवाब देते हैं, "फूल औरत की खूबसूरती बढ़ाते हैं." सुचित्रा की आंखें हैरानी से फैल जाती हैं, उनमें उलझन साफ झलकती है. वह कांपती आवाज में कहती हैं, "औरत में और बहन में फर्क होता है."
यहीं से फिल्म का असली टकराव शुरू होता है. देव आनंद को उस लड़की से प्यार हो जाता है, जिसे सब उसकी बहन मानते हैं (जबकि वो असल में नहीं है). अगर इस कहानी को किसी कमजोर लेखक, निर्देशक या कलाकारों की टीम ने दिखाया होता, तो शायद इसमें छिपा नैतिक संकट दर्शकों को असहज कर देता, यहां तक कि इसे देखना भी अपराधबोध से भर देता. लेकिन राज खोसला— जो हिंदी सिनेमा के सबसे कम आंके गए निर्देशकों में से एक हैं, ने इस नाजुक विषय को इतनी गहराई और समझदारी से पेश किया कि यह फिल्म एक कलात्मक मास्टरपीस बन जाती है. यह एक कठिन सवाल से शुरू होकर उस इकलौते नैतिक और संतोषजनक जवाब तक पहुंचती है, जो कहानी के साथ न्याय करता है.
राज खोसला ने चार दशकों तक अपने करियर में कई यादगार फिल्में दीं. उनकी शुरुआत 'सीआईडी' जैसी सुपरहिट से हुई और उनका करियर शिखर पर पहुंचा 'मैं तुलसी तेरे आंगन की' जैसी क्लासिक फिल्म से, जिसमें नूतन ने मुख्य भूमिका निभाई. अपने शुरूआती वर्षों में, खोसला की फिल्मों की खासियत ये थी कि उनके किरदार वह नहीं होते जो वे दिखते हैं—और यहीं से कहानी में टकराव जन्म लेता था.
साधना के साथ बनी उनकी थ्रिलर ट्रायोलॉजी इसका बेहतरीन उदाहरण है, 'मेरा साया' में साधना को डाकुओं की साथी समझा जाता है, लेकिन असल में वो नहीं है. वो कौन थी में उसे भूत माना जाता है, लेकिन वो भी झूठ साबित होता है. अनीता में उसे मरा हुआ माना जाता है, पर असलियत कुछ और ही होती है. बंबई का बाबू भी इसी थीम को थोड़ा मोड़कर आगे बढ़ाता है. इसमें देव आनंद (बाबू) एक अपराधी है जो बचपन में बिछड़े बेटे का नाटक करता है और नजीर हुसैन (शाहजी) और सुचित्रा सेन के परिवार में घुस जाता है. असल में वह सिर्फ एक भगोड़ा हत्यारा होता है, जो गांव के एक गुंडे की योजना के तहत बूढ़े शाहजी की जमा-पूंजी हड़पना चाहता है.
राज खोसला अपने महिला केंद्रित सिनेमा के लिए भी मशहूर थे. उनकी फिल्मों की नायिकाएं अक्सर नैतिक रूप से बहुत मजबूत होती थीं, भले ही उनके फैसले कभी-कभी तकलीफदेह नतीजों की ओर ले जाते हों. मैं तुलसी तेरे आंगन की में नूतन अपने पति की नाजायज संतान के अधिकारों के लिए खड़ी होती हैं, जबकि उनका अपना बेटा इसे अन्याय मानता है.
बंबई का बाबू में सुचित्रा सेन नैतिकता की असली मिसाल बनकर उभरती हैं. जब उन्हें देव आनंद की पहचान पर शक होता है, तो वह उस रिश्ते की मर्यादा बनाए रखने की पूरी कोशिश करती हैं, जिसे वह अपना मान चुकी हैं. यही संघर्ष फिल्म में तनाव और भावनात्मक गहराई लाता है. लेकिन इन टकरावों को सीधे न दिखाकर, निर्देशक राज खोसला इन्हें खूबसूरत रूपकों और संकेतों के जरिए दर्शाते हैं.
सुचित्रा सेन ने बहुत कम हिंदी फिल्मों में काम किया, और बंबई का बाबू भी उन्हें मिलनी नहीं थी. शुरुआत में यह फिल्म मधुबाला ने साइन की थी, लेकिन तबीयत खराब होने के कारण उन्हें फिल्म छोड़नी पड़ी. लेकिन अब इस फिल्म को बिना सुचित्रा सेन के कल्पना करना भी मुश्किल है. फिल्म में वह पहले एक चंचल, खुशमिजाज लड़की के रूप में नजर आती हैं, जो अपने ‘भाई’ की घर वापसी से बेहद खुश है. लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वह एक दृढ़ नारी के रूप में सामने आती हैं, जो सही और नैतिक फैसला लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है. ये गुण उनके असल जीवन की गरिमामयी छवि से भी मेल खाते हैं.

एक बेहद नाटकीय दृश्य में, वह देव आनंद को राखी बांधने की कोशिश करती हैं, जबकि देव आनंद अपने प्रेम की गहराई बयां करने की कोशिश करता है. इस सीन में खोसला ने सुचित्रा को सफेद साड़ी में दिखाया है, जो उनकी फिल्मों की खास पहचान बन गई थी और देव आनंद को काले कपड़ों में, जिससे दोनों किरदारों की नैतिक स्थिति का गहरा विरोधाभास सामने आता है. एक और सीन में, देव आनंद चुपचाप सुचित्रा के कमरे में आता है, जहां वह आइने के सामने खड़ी होती हैं—यह दृश्य आंतरिक उलझनों और अपूर्ण इच्छाओं का प्रतीक बन जाता है.
आंखों के कोने से देव आनंद को देखते हुए, सुचित्रा सेन चुपचाप अपना दुपट्टा कंधों पर संभाल लेती हैं. ऐसे छोटे-छोटे इशारे इस जटिल कहानी को एक काव्यात्मक और भावनात्मक रूप दे देते हैं, जिससे दर्शक सुचित्रा और देव आनंद दोनों से जुड़ जाते हैं, उनके मानसिक संघर्ष को महसूस करते हैं. कहानी इस मोड़ तक पहुंचती है जहां कोई भी अंत उचित लगता- चाहे वह मिलन हो या बिछड़ाव.
क्या दोनों की शादी होगी? क्या बाबू और भी गहरे अंधेरे में डूब जाएगा?
फिल्म का अंत होता है मुकेश के अमर गीत "चल री सजनी अब क्या सोचे" से, जो एक बेहद साहसी और उस समय के लिए अनोखा फैसला था. यह गीत, जो अपने आप में विरह और स्वीकार्यता का प्रतीक है, देव आनंद और सुचित्रा सेन के बीच एक छोटी सी बातचीत के साथ जुड़ा हुआ है. यह क्लाइमेक्स न सिर्फ फिल्म को भावनात्मक ऊंचाई देता है, बल्कि इसे एक कालजयी कृति बना देता है.
सुचित्रा सेन अपनी आंखों से भावों को जाहिर करती हैं. देव आनंद चुपचाप सुनते हैं, जब वह कांपती हुई आवाज में बोलती हैं. अंत में जो बातें कही नहीं जातीं, वही सबसे ज्यादा असर छोड़ती हैं. दिल में कहीं गहराई तक उतर जाती हैं. शायद आपकी आंखें भी नम हो जाएं. फिर भी आप उनके आत्मसम्मान की सराहना किए बिना नहीं रह पाते, उस हिम्मत की, जिससे वे पश्चाताप के रास्ते पर चलते हैं, और उस ताकत की, जिससे वे अपने दिल की नहीं, जमीर की सुनते हैं.
नोट करने लायक बात: फिल्म का संगीत हर इंसानी भावना को छूता है- जुदाई का दर्द, मिलन की खुशी, प्रेम, उलझन और यहां तक कि गुस्सा भी. एस.डी. बर्मन और मजरूह सुल्तानपुरी ने मिलकर कई अमर गीत रचे हैं. लेकिन इस एलबम की एक खामी भी है- इसका एक बेहतरीन गीत पूरी तरह ओरिजिनल नहीं है.
'देखने में भोला', जिसे आशा भोसले ने गाया है, पंजाबी रंग में रंगा एक धूमधड़ाका गाना है. इसकी धुन ओ.पी. नैयर के अंदाज जैसी है- तेज लय, पंजाबी गिद्दा की याद दिलाने वाली तालियां और चक्करदार ठुमके. सुनते ही मन में पंजाबी लोक-नृत्य की तस्वीरें उभर आती हैं. मगर अफसोस की बात ये है कि ये गाना असल में एक तेलुगु गीत की नकल है, और एस.डी. बर्मन ने इसके मूल संगीतकार को कोई श्रेय नहीं दिया.
काश, बर्मन दा का नैतिक कंपास भी सुचित्रा सेन के किरदार जैसा होता, तो बंबई का बाबू का संगीत सुनने का अनुभव इस चोरी की बात से कड़वा न होता.