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बॉलीवुड में श्रीदेवी की शानदार वापसी

इंग्लिश विंग्लिश में अपने बेजोड़ अभिनय से श्रीदेवी ने पकी उम्र की एक हिंदुस्तानी महिला को अचानक केंद्र में ला दिया है.

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माथे पर बड़ी-सी बिंदी लगाने वाली महिला और बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने आधी आबादी का दिल जीतने के लिए पिछले माह आधे-अधूरे मन से एक बात कह डाली थी कि पुरुष अपनी पत्नियों को घरेलू कामों के लिए पैसे दिया करें. श्रीदेवी की बिंदी तीरथ से छोटी जरूर है, लेकिन घरेलू खटराग में फंसी अधेड़ हिन्दुस्तानी महिलाओं को हलके में लेने वाले परिवारों के सामने उन्होंने बड़ी लंबी लकीर खींच दी है. ''मुझे प्यार नहीं, सिर्फ इज्जत चाहिए.”

इंग्लिश विंग्लिश में उनका बिलकुल यही डायलॉग है, जो 5 अक्तूबर को सिनेमाघरों में आई है. मुक्ति के इस नए रास्ते के बरक्स पश्चिमी धारणा यह है कि अधेड़ उम्र की अभिनेत्रियां सिर्फ भावनाओं के उच्छवास से ही खुद को मुक्त महसूस कर सकती हैं. बहरहाल, फिल्म में श्रीदेवी का पात्र यानी शशि गोडबोले नाम की महिला घर से एक छोटा-सा कारोबार चलाती है. वह लड्डू बनाती और बेचती है. उसे लगता है कि उसके व्यस्त एक्जिक्यूटिव पति को सिर्फ उसकी देह और खाने से मतलब है. उसकी बेटी उस पर चिल्लाती है क्योंकि मां को अंग्रेजी नहीं आती. उसका बेटा तो खैर अभी छोटा ही है.

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मिसेज गोडबोले एक-एक कर सबका जवाब देती है—चार हफ्ते के भीतर न्यूयॉर्क में एक कोर्स करके वह अंग्रेजी सीख जाती है जबकि वहीं एक फ्रेंच खानसामा उसकी कत्थई आंखों में डूबकर उसके प्रेम में पड़ जाता है (मशहूर फ्रेंच-अल्जीरियाई अभिनेता मेहदी नेब्बू ने यह भूमिका निभाई है). उम्र की पचासवीं दहलीज पर खड़ी श्रीदेवी की देहयष्टि कभी इतनी खूबसूरत और सधी हुई नहीं रही जैसी आज है, जब वे 15 साल बाद बड़े परदे पर लौट रही हैं. इससे बेहतर कहानी उनके लिए और क्या हो सकती थी. यही वक्त का तकाजा भी है.

एक छोटे से कस्बे की लड़की का बड़े से महानगर में आकर कामयाब हो जाना कई बार दोहराई जा चुकी एक घिसी-पिटी कहानी है. फिल्म हीरोइन की चौतरफा नाकामी कह रही है कि इस कहानी को अब दफना ही दिया जाना चाहिए. उसकी जगह अब एक कामयाब देसी और अधेड़ महिला ने ले ली है जो साड़ी और ट्रेंच कोट के खूबसूरत मिश्रण में लिपटी स्टारबक्स की कॉफी लिए मैनहटन को पार कर रही है. फिल्म के निर्माता आर. बल्की कहते हैं, ''जो कोई मर्यादा में रह कर सुखी रहना चाहता है, यह फिल्म हर उस शख्स के लिए है.”

इस कहानी को बल्की की पत्नी गौरी शिंदे ने लिखा है और निर्देशन भी उन्हीं का है. ऐसा आम तौर पर बॉलीवुड में नहीं होता. दरअसल विज्ञापन निर्माता 38 वर्षीया गौरी की यह कहानी उनकी 62 वर्षीया मां वैशाली शिंदे का बीता जीवन है. उनकी मां को अंग्रेजी के साथ बहुत हाथापाई करनी पड़ी, जैसा फिल्म में शशि करती है. वे घर से मसाले का कारोबार चलाती थीं.

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यह फिल्म दरअसल अपनी मां को गौरी की श्रद्धांजलि है, और यही चीज श्रीदेवी को फिल्म में खींच लाई. श्रीदेवी कहती हैं, ''मैं चार साल की उम्र से काम कर रही थी, इसलिए मैंने अपनी बेटियों को बड़ा करने के लिए जो ब्रेक लिया, वह काफी काम का रहा. मैं अपने शो के साथ दुनियाभर में घूमी हूं, लेकिन मैंने वास्तव में कुछ देखा नहीं है. मैं जब सक्रिय थी तब मैंने वे सारे काम किए जो अन्यथा मैं नहीं कर सकती थी.”

गौरी कहती हैं कि श्रीदेवी से बेहतर अभिनेत्री मिलना इस पात्र के लिए संभव नहीं था. वे कहती हैं, ''श्रीदेवी समझती थीं कि इस महिला का चरित्र क्या है. हमारे जैसी ही एक महिला जिसे खुद को लेकर असुरक्षा बनी रहती है.” लेकिन एक ऐसी महिला जो खुद को माहौल के हिसाब से ढालना भी जानती है.

समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन परदे पर श्रीदेवी की उपस्थिति के संदर्भ में इसी प्रवृत्ति को उनकी 'संकटमोचक’ शख्सियत का नाम देते हैं. चाहे वे चालबाज की पेशेवर डांसर रही हों या फिर मिस्टर इंडिया की पत्रकार, वे हाजिरजवाब थीं और स्थितियों को अनुकूलित कर लेने की क्षमता भी उनकी उतनी ही तीक्ष्ण थी.

श्रीदेवी अब इतनी समझदार हो गई हैं कि वे अपने से आधी उम्र की हीरोइनों की नकल करने की कोशिश नहीं कर रहीं. हालांकि परदे से बाहर वे कहीं ज्यादा करीने से वैसे काम कर सकती हैं. वे कहती हैं, ''इतने लंबे वक्ïत तक दूर रहने के बाद मैं ऐसी भूमिका चाहती थी जो आसान हो और चुनौतीपूर्ण भी.” 80 के दशक की जरूरतों के हिसाब से वे आदर्श नायिका थीं. हीरो के इशारे पर उछल-कूद कर सकती थीं, नाच सकती थीं, हंस सकती थीं. लेकिन आज उन्हें वह करने की जरूरत नहीं है. उनकी मुक्ति अब एक लड्डू में ही हो सकती है.

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