कर्नाटक विधानसभा चुनावों में तीनों प्रमुख राजनीतिक दल- कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस सबसे बड़ी पार्टी बनने और अपने दम पर सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं. हालांकि, पहले नंबर पर तो एक ही पार्टी आ सकती है. अधिकतर एग्जिट पोल और ओपिनियन पोल भी राज्य में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बन सकती है. ऐसे में दूसरे और तीसरे नंबर पर रहने वाली पार्टियों के नेताओं के पास बहाने भी तैयार होंगे. आइए हम आपको बताते हैं कि अपेक्षानुसार परिणाम न आने पर ये पार्टियां क्या-क्या बहाने बना सकती हैं.
बीजेपी के लिए बड़ा चुनाव
बीजेपी ने इन चुनावों में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में सघन प्रचार में हिस्सा लिया और दर्जनों जनसभाओं और रैलियों को संबोधित किया. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह यहां पर डेरा डाले हुए थे. वह जनसभाओं के अलावा रोड शो करते और मंदिरों-मठों में भी जाते देखे गए. राज्य में बीजेपी के कम से कम 10 कैबिनेट मंत्री, 11 राज्य मंत्री और चार राज्यों के मुख्यमंत्री पहुंचे थे. बीजेपी साफ तौर पर कह चुकी है कि कर्नाटक ही कांग्रेस का आखिरी गढ़ साबित होगा. ऐसे में बीजेपी के लिए यह चुनाव किसी भी तरह कांग्रेस से कम अहम नहीं है. अगर बीजेपी इतने बड़े स्तर पर चुनाव प्रचार के बावजूद हारती है तो जानते हैं कि उसके पास क्या तर्क हो सकते हैं.
पहला बहाना-
सबसे बड़ा सवाल मोदी लहर पर उठाया जाएगा. ऐसे में बीजेपी के पास तर्क हो सकता है कि विधानसभा चुनावों का परिणाम केंद्र सरकार की नीतियों पर मैनडेट नहीं होता है. बीजेपी कह सकती है कि केंद्र और राज्यों के चुनावों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं.
दूसरा बहाना-
हारने की सूरत में बीजेपी के पास दूसरा तर्क हो सकता है कि कांग्रेस ने चुनावों से ठीक पहले सांप्रदायिक कार्ड खेला था. बीजेपी कह सकती है कि चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस ने अनैतिक तरीका अपनाया. आपको बता दें कि चुनावों से ठीक पहले कर्नाटक विधानसभा ने राज्य के प्रभावशाली वोटर तबके लिंगायत समुदाय को लुभाने के लिए इसे अलग धर्म की मान्यता देने का प्रस्ताव पास करके केंद्र के पास भेजा था. बीजेपी ने चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के इस कदम को समाज तोड़ने वाला कदम बताया था. लिंगायत समुदाय राज्य की 76 सीटों पर निर्णायक भूमिका में है.
तीसरा बहाना-
2013 में राज्य में सत्ता गंवाने वाली बीजेपी को पिछले विधानसभा चुनावों में सीटों और वोट शेयर का काफी नुकसान हुआ था. ऐसे में बीजेपी के सामने 2013 विधानसभा चुनावों की तुलना में इस बार बेहतर प्रदर्शन करने की चुनौती बहुत बड़ी नहीं होगी. पिछली बार बीजेपी 19.9 वोट शेयर के साथ 40 सीटें ही ला सकी थीं. इस बार अगर बीजेपी पहले नंबर की पार्टी नहीं भी बन सकी और इससे बेहतर प्रदर्शन कर सकी तो वह कह सकती है कि उसके प्रदर्शन में सुधार तो आया ही है.
चौथा बहाना-
सरकार नहीं बना पाने की स्थिति में अगर मोदी-शाह की जोड़ी पर सवाल उठे तो पार्टी के सीएम कैंडिडेट बीएस येदियुरप्पा के सिर पर हार का ठीकरा फोड़ा जा सकता है. आपको बता दें कि येदियुरप्पा ने 2008 में बीजेपी को राज्य में ऐतिहासिक जीत दिलाई थी और इस जीत को ही दक्षिणी राज्यों में बीजेपी की एंट्री माना जाता है. भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद येदियुरप्पा ने 2011 में सीएम पद से इस्तीफा दे दिया था और 2012 में बीजेपी छोड़ दी थी. हालांकि, 2014 के लोकसभा चुनावों से पहले वह बीजेपी में शामिल हो गए थे. हारने की सूरत में बीजेपी कह सकती है कि चुनाव से पहले ही सीएम पद के उम्मीदवार की घोषणा करना गलत कदम था, क्योंकि कई राज्यों में बीजेपी ने चुनाव परिणाम सामने आने के बाद सीएम बनाए हैं.
कांग्रेस का 'आखिरी किला'
कांग्रेस के लिए भी ये चुनाव अपना आखिरी किला बचाने से कम अहम नहीं हैं. इन चुनावों में न केवल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जमकर प्रचार किया, बल्कि दो साल बाद यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी भी किसी चुनावी जनसभा को संबोधित करती दिखाई दीं. इसके अलावा पूर्व पीएम मनमोहन सिंह समेत कई राज्यों के कांग्रेसी नेताओं ने इन चुनावों में जमकर प्रचार किया. गुजरात विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन को देखते हुए राहुल गांधी कर्नाटक में भी मंदिरों, मठों, चर्चों, मस्जिदों में भी गए. ऐसे में अगर कांग्रेस कर्नाटक चुनावों में बीजेपी से पीछे रह जाती है तो जानते हैं कि उसके पास क्या तर्क हो सकते हैं.
पहला बहाना
कांग्रेस कह सकती है कि राज्य में एंटी इन्कमबेंसी फैक्टर का असर देखने को मिला है. राहुल गांधी अभी कांग्रेस अध्यक्ष बने हैं और हार की सूरत में जिम्मेदार उन्हें नहीं ठहराया जा सकता है. यानी हार का ठीकरा कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व पर न डालकर स्थानीय नेतृत्व को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. सीएम सिद्धारमैया इसकी जिम्मेदारी ले सकते हैं. ऐसी सूरत में कांग्रेस का तर्क होगा कि राज्य की जनता ने सिद्धारमैया के काम के खिलाफ मैनडेट दिया है. राज्य में टिकट बंटवारे में सिद्धारमैया की पसंद का ध्यान रखा गया है, ऐसे में हारने पर जिम्मेदारी भी उन्हीं को लेनी पड़ सकती है.
दूसरा बहाना
कांग्रेस का दूसरा तर्क हो सकता है कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने तो खूब मेहनत की, लेकिन कार्यकर्ता उनकी मेहनत को मुकाम तक नहीं पहुंचा सके. राहुल गांधी ने चुनावों से पहले कहा था कि कर्नाटक चुनावों में आम कार्यकर्ता को टिकट दिए जाएंगे और ऐसा कई सीटों पर देखने को मिला भी. कई अहम सीटों पर यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई के युवा चेहरों को खड़ा किया गया है.
तीसरा बहाना
हार की सूरत में कांग्रेस का एक तर्क बीजेपी पर उम्मीदवारों को तोड़ने का आरोप हो सकता है. इसकी बानगी शिकारीपुरा में देखने को मिली. कांग्रेस के पास बीजेपी के सीएम उम्मीदवार बीएस येदियुरप्पा के खिलाफ खड़ा करने को कोई कद्दावर नेता ही नहीं मिला, क्योंकि सभी संभावित उम्मीदवार बीजेपी में शामिल हो गए थे और कांग्रेस को मजबूरन अपने ब्लॉक स्तर के नेता गोनी मालतेश को सिद्धारमैया के खिलाफ मैदान में उतारना पड़ा.
जेडीएस के पत्ते नहीं खुले
कर्नाटक में सभी की नजरें जेडीएस के अगले कदम पर टिकी होंगी. जेडीएस को राज्य में किंगमेकर बताया जा रहा है. चुनाव परिणाम सामने आने के बाद जेडीएस की बातचीत किसके साथ मुकाम पर पहुंचती है, यह देखना होगा. कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों ने चुनाव प्रचार के दौरान भी जेडीएस को लुभाने की पूरी कोशिश की, हालांकि पार्टी ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं. पार्टी के शीर्ष नेता एचडी देवगौड़ा ने कहा है कि उनकी पार्टी राज्य में किंगमेकर नहीं किंग बनकर उभरेगी. अगर ऐसा न हो सका और जेडीएस ने कांग्रेस या बीजेपी को अपना समर्थन दिया तो आइए जानते हैं कि उनके नेताओं के पास क्या तर्क हो सकते हैं.
जेडीएस और बीजेपी: पहला बहाना
राज्य में बीजेपी के सबसे बड़ी पार्टी बनने और जेडीएस के उसे समर्थन करने पर जेडीएस नेता कह सकते हैं कि राज्य की जनता ने सीएम सिद्धारमैया के खिलाफ मैनडेट दिया है. ऐसे में उनका बीजेपी के साथ जाना जनता के वोट का सम्मान करना है.
दूसरा बहाना
बीजेपी के साथ जाने में जेडीएस का दूसरा तर्क यह हो सकता है कि केंद्र में बीजेपी की सरकार है और राज्य के बेरोकटोक विकास के लिए यह सही रहेगा कि राज्य में भी बीजेपी को ही सरकार बनाने का मौका मिले.
जेडीएस और कांग्रेस: पहला बहाना
अगर जेडीएस कांग्रेस के साथ जाने का फैसला करती है तो उसका तर्क हो सकता है कि वह एक सेक्युलर पार्टी है और बीजेपी के साथ हाथ मिलाना सही नहीं होगा.
दूसरा बहाना
इसके अलावा जेडीएस नेता कुछ समय पहले यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गांधी द्वारा दिए गए डिनर में शामिल हुए थे. ऐसे में जेडीएस थर्ड फ्रंट के नाम पर और 2019 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस के साथ जा सकती है.