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बिहार में मखाना बना चुनावी मुद्दा, कीमतें छू रही हैं आसमान, ग्राउंड रिपोर्ट में जानें किसानों और श्रमिकों का हाल 

राहुल गांधी के दौरे के बाद मखाना की खेती एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन गई है. हमारी टीम ने जमीनी हकीकत को समझने के लिए किसानों और मजदूरों से बात की. रिपोर्ट से पता चला कि मखाना की आसमान छूती कीमतों के बावजूद, सबसे ज्यादा मेहनत करने वाले किसानों को इसका फायदा नहीं मिल रहा है.

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बिहार में मखाना बना चुनाव मुद्दा. (Photo: ITG)
बिहार में मखाना बना चुनाव मुद्दा. (Photo: ITG)

कटिहार में मखाना किसानों के साथ राहुल गांधी की बैठक ने इस सुपरफूड की खेती को चुनावी मुद्दा बनती जा रही है? उन्होंने मखाना किसानों ने सुपरफूड की खेती, कटाई और प्रसंस्करण करने वालों की स्थिति पर जोर दिया. साथ ही उन्होंने सवाल उठाया कि मखाना की आसमान छूती कीमतों से किसे फायदा हो रहा है? इसी मुद्दे को लेकर हमारी टीम ने  ग्राउंड पर किसानों से बातचीत की और हालात को समझने की कोशिश की.

कटिहार के सिमरिया में हाईवे के ठीक बगल में सुल्तान और उनके साथ एक दर्जन अन्य लोग घुटनों तक पानी में डूबे काम कर रहे हैं. उनके हाथों में आधा नाव जैसा लकड़ी का औजार है, जिसे वे 'गंजा' कहते हैं और पास ही एक एल्यूमिनियम का बर्तन रखा था. किसान कीचड़ में उतर कर गंजे की मदद से मखाना के बीच निकाल रहे थे. इन्हें स्थानीय भाषा में गुरिया भी कहा जाता है.

'हम हर रोज करते हैं 6-6घंटे काम'

सुल्तान ने बताया, 'हर एक किलो मखाना या बीज इकट्ठा करने पर मुझे 40 रुपये मिलते थे. हम रोज़ाना लगभग 6-7 घंटे काम करते हैं, मखाने के बीज इकट्ठा करने के लिए पानी के अंदर रहते हैं. मैं बीच में दोपहर का खाना भी खाता हूं, लेकिन मैंने कुछ मिनट के ब्रेक के बाद फिर से काम पर आ जाते हैं. हम गीले कपड़ों में ही दोपहर का खाना खाते हैं.'

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कौन हैं सुल्तान

सुल्तान उन मखाना मजदूरों में से एक थे, जिनकी मुलाकात राहुल गांधी से उनकी 'बिहार वोटर अधिकार यात्रा' के दौरान हुई थी. राहुल गांधी ने मखाना खेतों में उतरकर इस सुपरफूड की खेती को करीब से समझा. सुल्तान ने उन्हें(राहुल गांधी) बताया कि मखाना की कटाई में मशीनें इंसानों की जगह नहीं ले सकतीं.

सुल्तान ने कहा कि वह गुजरात या पंजाब में प्रवासी के तौर पर मजदूरी करने के बजाय अपने राज्य में कठिन काम करना पसंद करते हैं.

उन्होंने कहा कि मखाना के पौधों में कांटे होते हैं, जिनमें मेरे हाथों में घाव हो जाते हैं. सुल्तान अपनी हथेलियां दिखाते हुए कहा, "बिहार में कोई उद्योग नहीं है. मुंबई जैसे शहरों में 12 घंटे काम करना और इतनी ही तनख्वाह पाना हमारे बस की बात नहीं है. उन्होंने कहा कि रात को उन्हें अपनी हथेली पर दवा लगानी पड़ती है, वरना उनके हाथ में असहनीय दर्द होगा. 

सुल्तान के मुताबिक कटिहार में मखाना के खेत में काम करने वाला हर श्रमिक हर रोज लगभग 400-500 रुपये कमा लेता है.

हमारी टीम को पता चला कि सीमांचल स्थित मखाना के खेतों में मुस्लिम समुदाय के लोग भी काम करते हैं, लेकिन भूनने और पॉपिंग यूनिटों में मल्लाह समुदाय के लोगों का दबदबा है. मखाना मल्लाहों की पहचान का अभिन्न हिस्सा है. सामरिया की भूनने और पॉपिंग यूनिटों में दरभंगा के मल्लाह कामगार ही है जो उच्च उत्पादकता सुनिश्चित करने के लिए अपने पारंपरिक कौशल का इस्तेमाल करते हैं.

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दरभंगा के कोकट गांव में हमारी टीम ने मखाना किसानों और मल्लाह समुदाय के श्रमिकों से मुलाकात की. यहां भी श्रमिकों को तालाबों से बीज इकट्ठा करने के लिए 40 रुपये प्रति किलोग्राम मिलते हैं, लेकिन यहां के तालाब गहरे और अधिक कीचड़ भरे हैं और पानी में मछलियां भी हैं जो काट सकती हैं.

40 वर्षीय कपिल मुखिया ने आजतक को बताया कि पांच साल पहले तक हमें प्रति किलोग्राम 25 रुपये मिलते थे. अब मजदूरी बढ़ी है. अब हम लोगों को आमतौर पर 40 रुपये मिलते हैं, लेकिन अंतिम कटाई के दौरान 50 रुपये प्रति किलोग्राम मिल सकते हैं. यही कारण है कि लोगों ने हरे-भरे खेतों के बीच तलाबों में लोगों ने मखाना खेती को बढ़ाने की कोशिशें फिर से तेज कर दी हैं.

श्रमिकों ने बताया कि हार्वेस्टर के बाद ये लोग इन बीजों को उस किसान को सौंप देते हैं, जिसके पास तालाब है या जिसने उसे खेती के लिए पट्टे (लीज) पर लिया है. 20 सालों से इस व्यवसाय से जुड़े राज किशोर मुखिया ने बताया कि उन्हें मखाना के बीज के लिए 250 रुपये प्रति किलोग्राम मिलते हैं.

राज किशोर ने बताया कि हमें नहीं पता कि कीमतें कैसे तय होती हैं. बाजार से कोई बताता है कि बीज इस दर पर बिकेंगे. हम कम कीमत पर किसी को बीज नहीं बेचेंगे, यहां तक कि रिश्तेदारों को भी नहीं. फसल की बुवाई के वक्त तालाब की सफाई, बीज बोने, अतिरिक्त पौधों को हटाने, दवाइयों और श्रमिकों को भुगतान जैसे खर्च किसानों को खुद उठाने होते हैं. जब बीजों के दाम गिरते हैं तो नुकसान भी उन्हें ही (किसानों) उठाना पड़ता है.

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राज किशोर कहते हैं, 'साल 2023 में मखाना के बीजों की कीमतें बहुत कम हो गई थीं. हमने उन्हें खेतों से बाहर ले जाने से इनकार कर दिया.' इधर एक मखाना स्टार्टअप के मालिक ने बताया कि ऐसा संभवतः यूक्रेन-रूस युद्ध के कारण हुआ.

राज किशोर जैसे मखाना किसान रोस्टिंग और पॉपिंग यूनिटों  को बीच या गुरिया बेचते हैं. पॉपिंग यूनिट मालिक के लिए बीज की लैंडिंग कीमत 250 रुपये प्रति किलोग्राम है. हालांकि, उनके हिसाब से रोस्टिंग और पॉपिंग किए गए हर तीन किलोग्राम मखाना बीजों में से उन्हें केवल लावा यानी पॉप्ड मखाना ही मिलता है.

पश्चिम बंगाल से कोकट में अपनी पॉपिंग यूनिट शुरू करने वाले राजीव मुखिया जो मल्लाह समुदाय से हैं, कहते हैं कि बिहारी मखाना की बाजार में कीमत बेहतर है. वे आर्थिक स्थिरता की उम्मीद में अपने गृहनगर लौटे हैं. बीजों को पॉप करने के लिए एक बार सुखाने, छंटाई, दो बार भुनने और फिर लकड़ी के हथौड़े से तोड़ने की प्रक्रिया होती है. इस काम में चार-पांच श्रमिकों की जरूरत पड़ती है. ज्यादा हाथ होने से गर्म चूल्हों और लोहे के बर्तनों के सामने बैठने वालों को राहत मिलती है.


राजीव मुखिया बताते हैं, 'इसमें कितना श्रम और कितने लोग शामिल हैं, देखिए, पॉपिंग के बाद हम इन्हें 10 किलो की जूट की बोरियों में पैक करते हैं जो 8-11 किलो तक भर सकती हैं. हम इन बोरियों को 7500 रुपये में बेचते हैं. बोरी का वजन जितना कम, उतना ज्यादा मुनाफा. मुनाफा इस बात पर निर्भर करता है कि पॉप्ड मखाने कितने बड़े हैं.'

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वहीं, राजीव जैसे लोगों से पॉप्ड मखानों को खरीदने वाली व्यापारी या प्रोसेसर उन्हे थोक में बेचते हैं या और प्रोसेस करके ज्यादा मुनाफा कमाते हैं.

दरभंगा के सबसे पुराने मखाना व्यापारियों में से एक अरविंद जैन बताते हैं, "हम मखाने को उनकी गुणवत्ता के आधार पर छांटते हैं. बड़ा साइज, ज्यादा मुनाफा. व्यापारी आधे जले या खराब आकार के मखानों को अलग करते हैं, जिन्हें मखाना पाउडर के लिए प्रोसेसर को बेचा जाता है.

इस स्तर पर मखाने की कीमत उनके आकार के आधार पर बदलती है. इसी आधार पर दिल्ली जैसे महानगरों के बाजारों में ग्रेड 4 या 5 की मिश्रित किस्म 1800-2200 रुपये प्रति किलोग्राम में बिकती है. जब मखाना व्यापारियों के हाथों में पहुंचता है, तब 'काला पत्थर' से 'काला सोना' बन जाता है.

'स्टॉक करने वाले खुद तय करते हैं कीमत'

जैन और रॉय जैसे लोग मौजूदा हालात के लिए स्टॉकिस्ट को ज़िम्मेदार ठहराते हैं, जहां मखाने की कीमतें आसमान छू रही हैं, लेकिन किसानों और मज़दूरों को इसका फ़ायदा नहीं मिल रहा है. जैन ने सवाल करते हुए कहा, 'स्टॉक करने वाली कंपनियां अपनी मनमर्जी से कीमतों को नियंत्रित करते हैं. नवरात्रि और दिवाली के दौरान कीमतें बढ़ जाती हैं.'

उन्होंने सवाल किया कि जब असली मखाना की फसल का मौसम अभी बाकी है तो ये कैसे संभव है. मखाना की फसल आमतौर पर जुलाई के अंत या अगस्त में शुरू होती है और अक्टूबर तक चलती है.

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उन्होंने कहा कि बड़े व्यापारी जो मखाना का भारी स्टॉक रखते हैं, कीमतों को शेयर बाजार की तरह उतार-चढ़ाव करते हैं. अपनी पॉपिंग यूनिट और मखाना ब्रांड चलाने वाले रोशन मुखिया कहते हैं, 'राजनीति का हमारे काम पर गहरा असर पड़ता है. राहुल गांधी के मखाना खेतों में दौरे के बाद मखाना की कीमतें 100 रुपये प्रति किलोग्राम बढ़ गईं. यूक्रेन-रूस युद्ध के दौरान बीजों की कीमतें गिर गई थीं, जिससे किसान और श्रमिक परेशान हो गए थे.'

'GI टैग मिलने से बदली स्थिति'

ग्राउंड रिपोर्ट में ये भी पता चला कि मिथिला मखाना को जीआई टैग मिलने के बाद स्थिति में लगभग तीन गुना सुधार हुआ है. मल्लाह समुदाय के श्रमिकों और व्यापारियों ने इस बात को स्वीकार भी किया है. बिहार विधानसभा चुनाव कुछ महीने दूर हैं. ऐसे में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और इंडिया ब्लॉक मल्लाह समुदाय को अपने पक्ष में करने की कोशिश में हैं. मछली पकड़ने, नाव चलाने और मखाना खेती से जुड़ा ये अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) समुदाय पिछले कुछ चुनावों में एनडीए को वोट देता रहा है.

मल्लाह नेता मुकेश साहनी इस बार राहुल गांधी और बिहार के विपक्षी नेता तेजस्वी यादव के साथ बिहार में यात्रा कर रहे हैं, ताकि इस वोट बैंक में सेंध लगाई जा सके. इंडिया ब्लॉक एनडीए के इस ईबीसी वोट बैंक में सेंध लगाने की जुगत में है.

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ऐसे में सवाल है कि भारत के सबसे लोकप्रिय सुपरफूड्स में से एक की आसमान छूती कीमतों का फायदा उस स्वदेशी समुदाय तक क्यों नहीं पहुंच रहा, जिसने इसे संरक्षित रखा है. उनके श्रमिक आज भी कीचड़ भरे पानी में, सिर्फ एक छोटे कपड़े में, 40 रुपये प्रति किलोग्राम की मजदूरी के लिए काम कर रहे हैं.

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