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चिराग ने चाचा पारस को NDA छोड़ने के लिए कैसे किया मजबूर? पासवान फैमिली और LJP में उत्तराधिकार की लड़ाई की पूरी कहानी

पशुपति पारस का यह एलान साफ बताता है कि एनडीए में उनके लिए भविष्य की राजनीति नहीं बची थी और इस गठबंधन से अलग होने का ऐलान करने के अलावा उनके पास कोई और दूसरा विकल्प भी नहीं बचा था. उन्होंने एनडीए से बाहर होने का ऐलान भले ही अब जाकर किया हो, लेकिन इसकी पटकथा लगभग सालभर पहले लिखी जा चुकी थी.

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चिराग पासवान (L)और पशुपति पारस (R). (PTI/File Photo)
चिराग पासवान (L)और पशुपति पारस (R). (PTI/File Photo)

राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री पशुपति कुमार पारस ने आखिरकार सोमवार को यह ऐलान कर दिया कि अब वह और उनकी पार्टी एनडीए का हिस्सा नहीं हैं. बाबा साहब अंबेडकर की जयंती के मौके पर पशुपति पारस ने अपने भविष्य की राजनीति को लेकर खुले मंच से ऐलान किया कि उनकी पार्टी अब वहीं रहेगी जहां सम्मान मिलेगा. एनडीए छोड़ने का ऐलान करने वाले पारस ने महागठबंधन खेमे के साथ जाने को लेकर अपने पत्ते तो नहीं खोल, लेकिन यह दावा जरूर करते रहे कि बिहार की सभी 243 विधानसभा सीटों पर उनकी पार्टी तैयारी कर रही है. चुनाव के पहले जहां कहीं भी गठबंधन होना होगा वह सम्मान के शर्त पर होगा. 

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पशुपति पारस का यह एलान साफ बताता है कि एनडीए में उनके लिए भविष्य की राजनीति नहीं बची थी और इस गठबंधन से अलग होने का ऐलान करने के अलावा उनके पास कोई और दूसरा विकल्प भी नहीं बचा था. उन्होंने एनडीए से बाहर होने का ऐलान भले ही अब जाकर किया हो, लेकिन इसकी पटकथा लगभग सालभर पहले लिखी जा चुकी थी. बीते साल लोकसभा चुनाव के वक्त जब पशुपति पारस को एनडीए गठबंधन में बीजेपी ने एक भी सीट नहीं दी तो वह खूब नाराज हुए थे. पारस ने इस सबके लिए अपने भतीजे और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान को जिम्मेदार ठहराया था और मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था.

हालांकि लोकसभा चुनाव होने तक पशुपति पारस इस इंतजार में बैठे रहे कि शायद भतीजे चिराग और उनकी पार्टी के उम्मीदवारों को चुनाव में सफलता नहीं मिले. पारस को उम्मीद थी की अगर चिराग असफल हुए तो वापस एनडीए गठबंधन में उनका कद बड़ा होने की संभावना बची रहेगी. हालांकि, चिराग पासवान और उनकी पार्टी का स्ट्राइक रेट 100 फीसदी रहा, नतीजा यह हुआ कि चिराग चुनाव जीतकर पहली दफे केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हुए. लोकसभा के नंबर गेम ने चिराग की भूमिका को और खासकर दिया. मोदी कैबिनेट में उन्हें वही मंत्रालय दिया गया जो कभी उनके पिता स्वर्गीय रामविलास पासवान के पास हुआ करता था. एनडीए में चिराग पासवान की वापसी और उनके बढ़ते कद ने पारस की उम्मीदों को बड़ा झटका दिया.

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बीजेपी से नाउम्मीद हो चुके पशुपति पारस ने आखिरकार लालू दरबार का रुख किया. कभी दही–चूड़ा भोज तो कभी इफ्तार की दावत पर लालू यादव से पारस की मुलाकात होती रही. लेकिन उन्हें महागठबंधन में शामिल होने को लेकर कोई ठोस ऑफर अब तक नहीं मिला है. अब बिहार विधानसभा चुनाव में तकरीबन 6 से 7 महीने का वक्त बचा है, ऐसे में पशुपति पारस के सामने यह राजनीतिक मजबूरी रही कि वह खुले तौर पर एनडीए से बाहर आने का ऐलान करें और अपने नए राजनीतिक विकल्प की तलाश करें. पारस के सामने अपनी राजनीति बचाने के साथ-साथ पार्टी को बचाए रखने की भी चुनौती है. संगठन कैसे बिहार के सभी जिलों में बना और बचा रहे यह भी उनके सामने एक बड़ा चैलेंज है. जाहिर है, इसलिए अब पारस सभी 243 से विधानसभा सीटों पर चुनावी तैयारी का दावा कर रहे हैं.

पासवान परिवार और लोक जनशक्ति पार्टी की पूरी कहानी

पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे दिवंगत रामविलास पासवान ने जनता दल से अलग होकर साल 2000 में लोक जनशक्ति पार्टी की स्थापना की थी. उन्होंने जिस दौर में सियासत शुरू की उस वक्त उन्हें अपने दोनों भाइयों का भरपूर साथ मिला. तीन भाइयों में सबसे बड़े रामविलास पासवान के बाद दूसरे नंबर पर आने वाले पशुपति कुमार पारस को पार्टी में संगठन देखने की जिम्मेदारी दी गई. सबसे छोटे भाई रामचंद्र पासवान को रामविलास पासवान के ही एक और संगठन दलित सेना की कमान दी गई. फरवरी 2005 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में लोक जनशक्ति पार्टी ने 29 सीटें हासिल करके लालू यादव का खेल बिगाड़ दिया और बिहार में त्रिशंकु विधानसभा के कारण सरकार नहीं बनने से राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा.

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तब रामविलास पासवान ने यह कहा था कि सरकार की चाबी उनके पास है. जानकार बताते हैं कि त्रिशंकु विधानसभा में सरकार गठन को लेकर जब सियासी दांव पेच शुरू हुआ तो रामविलास पासवान ने अपने भाई पशुपति पारस के अलावे एक और अल्पसंख्यक चेहरे को डिप्टी सीएम बनाने की शर्त रख दी थी. बिहार में डेढ़ दशक से शासन कर रहे लालू यादव को यह शर्त नागवार गुजरी और बिहार सरकार गठन के बगैर राष्ट्रपति शासन की तरफ आगे बढ़ गया था. रामविलास पासवान और उनकी पार्टी को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा. नवंबर 2005 में जब फिर से विधानसभा चुनाव हुए तो उनकी पार्टी 10 विधायकों तक सिमट गई.

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चिराग ने रामविलास को NDA में ​जाने के लिए किया राजी

इस चुनाव में बिहार में एनडीए की जीत हुई और नीतीश कुमार पूर्ण बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बने. रामविलास पासवान के लिए आगे की राह मुश्किल रही. साल 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने आरजेडी के साथ गठबंधन तो किया, लेकिन पार्टी केवल 3 सीटों पर जीत हासिल कर पाई. वहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले रामविलास पासवान ने 12 साल बाद एनडीए गठबंधन में वापस आने का फैसला किया. दिल्ली में रामविलास पासवान जब एनडीए में वापसी का ऐलान कर रहे थे तब इसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका चिराग पासवान की मानी गई. यह वह दौर था जब नीतीश कुमार बीजेपी से गठबंधन तोड़ चुके थे. नीतीश चुनाव में अकेले जा रहे थे और दूसरी तरफ आरजेडी का गठबंधन था.

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रामविलास पासवान के पास नीतीश कुमार के साथ गठबंधन में जाने का विकल्प भी था, लेकिन चिराग पासवान ने बीजेपी के साथ जाने की रणनीति पर काम किया. पार्टी को लोकसभा चुनाव में जीत हासिल हुई. चिराग पासवान पहली दफा चुनाव जीतकर सांसद बने. पार्टी के अंदर चिराग का कद अब पहले से बड़ा हो चुका था. रामविलास पासवान ने संगठन को लेकर जो मॉडल पार्टी में खड़ा कर रखा था, उसमें पारस की भूमिका बेहद खास थी और चिराग के बढ़ते कद के साथ पार्टी में एकाधिकार को लेकर यहीं से विवाद की शुरुआत हुई. पार्टी के नीतिगत फैसलों में रामविलास पासवान के बाद सबसे ज्यादा पशुपति पारस की बात मानी जाती थी. लेकिन धीरे-धीरे यह जगह चिराग पासवान लेते गए. 

पारस के लिए आसान नहीं था चिराग के साथ सामंजस्य बैठाना

पशुपति पारस के लिए चिराग के फैसलों के साथ सामंजस्य बैठा पाना आसान नहीं था, लेकिन परिवार और पार्टी के मुखिया रामविलास पासवान के रहते किसी को कुछ कहने का साहस नहीं था. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में रामविलास पासवान की पार्टी के विधायकों की संख्या पहले से एक और कम हो गई. बिहार में महागठबंधन के मुखिया के तौर पर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. लालू और नीतीश साथ थे लिहाजा एनडीए को करारी हार का सामना करना पड़ा. लोक जनशक्ति पार्टी दो विधायकों पर सिमट कर रह गई. नीतीश कुमार ने 2017 में फिर एनडीए में वापसी की. तब लोक जनशक्ति पार्टी को बिहार की सरकार में शामिल होने का मौका मिला तो पशुपति पारस को नीतीश कैबिनेट में मंत्री बनाया गया.

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सियासी जानकार मानते हैं कि पारस को मंत्री बनाने के पीछे रामविलास पासवान की सोच यह रही कि चिराग के साथ पार्टी में एकाधिकार की जो उनकी लड़ाई चल रही है, यह विवाद वहीं ठहर जाएगा. पारस बिहार सरकार में मंत्री तो बन गए, लेकिन पार्टी में वह अपनी पकड़ छोड़ने को तैयार नहीं थे. रामविलास पासवान का फार्मूला काम नहीं आया और अंदरूनी विवाद बढ़ता गया. साल 2019 का लोकसभा चुनाव सामने था. रामविलास पासवान ने अपने छोटे भाई पशुपति पारस के लिए अपनी हाजीपुर संसदीय सीट छोड़ दी. उन्होंने राज्यसभा जाने का फैसला किया. पशुपति पारस हाजीपुर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे. चिराग पासवान जमुई सीट से दूसरी बार सांसद चुने गए. 

रामविलास पासवान के साथ उनके भाई पशुपति पारस और बेटे चिराग पासवान सभी संसद में थे. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले रामविलास पासवान का अक्टूबर महीने में निधन हो गया. उनके निधन के बाद परिवार और पार्टी में संकट और गहरा गया. पारस और चिराग की लड़ाई अब खुलकर सामने आ चुकी थी. 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान अपनी पार्टी का गठबंधन एनडीए के साथ नहीं कर पाए. नीतीश कुमार से उनके रिश्ते खराब हो चुके थे. लिहाजा उन्होंने एनडीए से अलग होकर विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया. चिराग पासवान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन चुके थे और उन्होंने 143 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए. जदयू के हर कैंडिडेट के खिलाफ चिराग ने अपने उम्मीदवार दिए. विधानसभा चुनाव में एनडीए की जीत हुई, नीतीश वापस मुख्यमंत्री बने. चिराग पासवान की पार्टी को केवल एक विधानसभा सीट पर जीत हासिल हुई.

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इस करारी हार के बाद पारस खुलकर चिराग पासवान पर हमलावर हो गए. चिराग और पारस के बीच टकराव की एक बड़ी वजह नीतीश कुमार भी बने. जून 2021 में आखिरकार वह हो गया जिसकी उम्मीद पासवान परिवार और लोक जनशक्ति पार्टी को करीब से जानने वालों को नहीं थी. चाचा पशुपति पारस पार्टी के चार सांसदों के साथ बगावत कर बैठे और राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे चिराग पासवान को ही लोक जनशक्ति पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. चिराग के साथ परिवार और पार्टी में बगावत का जो खेल खेला गया उसमें नीतीश कुमार के करीबी नेताओं की बड़ी भूमिका मानी गई. पशुपति पारस को केंद्रीय कैबिनेट में भी जगह मिल गई. चिराग पासवान के लिए यह सबसे मुश्किल दौर था. पार्टी परिवार दोनों में टूट का सामना कर रहे चिराग ने आखिरकार जनता के बीच जाने का फैसला किया. पार्टी का सिंबल और नाम दोनों फ्रिज कराया. अपनी नई पार्टी बनाई और चाचा पशुपति पारस को भी नई पार्टी बनाने पर मजबूर कर दिया.

उत्तराधिकार की लड़ाई कैसे जीते चिराग?

पार्टी और परिवार में टूट के बाद एक तरफ जहां चाचा पशुपति पारस केंद्रीय मंत्री बनकर रामविलास पासवान की विरासत का असली उत्तराधिकारी होने का दावा करते रहे, तो वहीं चिराग पासवान विरासत की लड़ाई के लिए बिहार की सड़कों पर संघर्ष करते रहे. चिराग पासवान ने अपने पिता रामविलास पासवान के रहते जिस बिहार फर्स्ट–बिहारी फर्स्ट मिशन की शुरुआत की थी, उसी एजेंडे के साथ वह राज्य के दौरे पर निकल गए. चिराग पासवान की लोकप्रियता युवाओं के बीच लगातार बढ़ती गई. साल 2022 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर से पाला बदला और वह एनडीए गठबंधन छोड़कर राजद के साथ आ गए. नीतीश शासन की नाकामियों को लेकर चिराग पासवान ने जो मुहिम शुरू की थी, उसके साथ अब बीजेपी भी खड़ी नजर आ रही थी. पशुपति पारस भले ही केंद्रीय कैबिनेट में मंत्री बने हुए थे, लेकिन चिराग पासवान की बढ़ती लोकप्रियता और युवाओं के बीच उनकी स्वीकार्यता पर बीजेपी की भी नजर थी.

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विरासत के उत्तराधिकार को लेकर पारस का दावा धीरे-धीरे कमजोर पड़ता गया और चिराग पासवान अपने साथ न केवल पासवान जाति बल्कि दूसरी जातियों के युवाओं को भी गोल बंद करते गए. चिराग ने अपनी राजनीतिक समझ से केवल पासवान जाति की राजनीति नहीं की, बल्कि वह उस पूरे तबके को साथ लेकर आगे बढने में सफल रहे जो नीतीश कुमार के लंबे शासनकाल में हावी अफसरशाही और शासन तंत्र को लेकर नाराज था. नीतीश कुमार 2024 में सभी राजनीतिक पंडितों को फिर से चौंकाते हुए एकबार फिर एनडीए के साथ हो लिए. तब तक चिराग पासवान को भी अंदाजा हो गया था कि बीजेपी के लिए बिहार में नीतीश का साथ सियासी मजबूरी है और यही वजह रही की वह भी धीरे-धीरे नीतीश को लेकर नरम होते गए. पार्टी और परिवार में उत्तराधिकार की लड़ाई में चिराग बड़ी बढ़त हासिल कर चुके थे, लिहाजा बीजेपी ने भी मौके की नजाकत देखकर पशुपति पारस की बजाय चिराग पासवान को एनडीए में तरजीह देनी शुरू कर दी. 

लोकसभा चुनाव के लिए 2024 में जब सीटों का बंटवारा हुआ तो एनडीए में चिराग की पार्टी को 5 सीटें दी गईं. पशुपति पारस को एनडीए में कोई भी सीट हासिल नहीं हुई. भतीजे चिराग ने अपने सियासी दांव से खुद को अपने पिता की राजनीतिक विरासत का वाजिब उत्तराधिकारी साबित किया. साथ ही अपने चाचा पशुपति पारस को इस बात के लिए भी मजबूर कर दिया कि वह एनडीए से इतर कोई नया ठिकाना तलाश कर अपनी राजनीति बचाने का प्रयास करें. बिहार में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी चिराग पासवान की अहम भूमिका मानी जा रही है. बीजेपी यह मानती है कि चिराग जहां खड़े रहेंगे, पासवान जाति का एक मुश्त वोट वहीं पड़ेगा. हालांकि खुद चिराग पासवान के लिए भी आगामी विधानसभा चुनाव कई चुनौती भरा होगा. एनडीए काचेहरा नीतीश कुमार होंगे, उनके दो दशक के लंबे शासनकाल के बाद जो एंटी इन्कम्बेंसी होगी उसकी काट चिराग कैसे निकालेंगे? चिराग पासवान जब पार्टी और परिवार में टूट के बाद संघर्ष कर रहे थे तो उनके साथ सहानुभूति वाला फैक्टर भी काम कर रहा था, लेकिन अब अगर चिराग सत्ता में हैं तो उनके लिए उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती होगी.

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