साल 1967 में डॉ रिचर्ड एल्पर्ट पहली बार भारत पहुंचे. वो हार्वर्ड के एक प्रमुख मनोवैज्ञानिक और साइकोडेलिक डॉ टिमोथी लेरी के साथ यहां आए थे. फिर इस देश की सात्विक और आध्यात्मिक मिट्टी ने उन पर ऐसा जादू चलाया कि वो डॉक्टर से संत बनने की राह पर चल निकले. रविवार देर शाम उनका 88 साल की उम्र में देहांत हो गया, आइए जानें- कौन हैं संत रामदास, कैसा है उनका सफर.
नीम करोली बाबा को बनाया गुरु
साल 1967 में वो साइकेडेलिक शोध के लिए भारत आए थे. यहां वो अपने आध्यात्मिक गुरु नीम करोली बाबा से मिले. नीम करोली बाबा को महाराजजी के नाम से जाना जाता था. महाराज जी ने ही डॉ रिचर्ड एल्बर्ट को उनका नया नाम (राम दास) दिया, जिसका अर्थ भगवान राम का सेवक होता है.
www.ramdass.org में दी गई संत रामदास की बायोग्राफी में इस बात का जिक्र है कि किस तरह अध्यात्म की राह में आते ही उनका जीवन पूरी तरह बदल गया. यहां से उनका धार्मिक जीवन शुरू हो गया और उनकी सोच अब पूरी तरह बदल चुकी थी. "Be Here Now' यानी "अब यहां हो" ये वो शब्द थे जिसने उनके जीवन को पूरी तरह नई राह पर चला दिया था. आध्यात्मिक पहचान मिलने के बाद वो तीन पीढ़ियों के लिए एक मार्गदर्शक बनकर इतनी लंबी यात्रा पर रहे. ऐसे यात्रा जो लाखों लोगों को बंधनों से मुक्त करने में मदद करती रही. वो ईश्वर के सेवक बनकर लोगों को राह दिखाते हरे.
हनुमान भक्ति से शुरू हुआ सफर
बता दें कि साल 1968 के बाद से राम दास हनुमानजी के भक्त हो गए. हनुमान पर उनकी केंद्रित भक्ति या भक्ति योग सहित शक्तिशाली प्राचीन ज्ञान परंपराओं से आध्यात्मिक विधियों और प्रथाओं में वो भीतर तक समाते गए. इसके बाद वो थेरवादिन, महायान तिब्बती और जैन व बौद्ध स्कूलों के बाद सूफ़ी और यहूदी के रहस्यमय अध्ययनों की दिशा में बढ़े. उनके जीवन का सार कर्म योग रहा. संत रामदास की आध्यात्मिक आभा ने लाखों अन्य आत्माओं को आध्यात्मिक अभ्यास और ज्ञान पथ से जोड़ा. उन्होंने लोगों को किसी भी हठधर्मिता के बिना दिव्य प्रेम महसूस करना सिखाया.
जानिए परिवर्तन की कहानी
असल में ये यात्रा साल 1961 में हार्वर्ड से शुरू हुई. जब वो साइकोलॉजिस्ट के तौर मानव चेतना के अन्वेषण मार्ग में आए. इस शोध के दौरान वो psilocybin, LSD-25 और दूसरे साइकेडेलिक केमिकल्स पर शोध कर रहे थे. उनके साथ शोध को आगे बढ़ाने के लिए टिमोथी लेरी, राल्फ मेट्ज़नर, एल्डस हक्सले और एलेन गिन्सबर्ग आदि मनोचिकित्सक भी शामिल थे. इस शोध पर उनकी दो किताबें 'द साइकेडेलिक एक्सपीरियंस (लेरी और मेटज़नर के साथ सह-लेखक, और यूनिवर्सिटी की किताबों द्वारा प्रकाशित द तिब्बती बुक ऑफ द डेड पर आधारित) और दूसरी एलएसडी (सिडनी कोहेन और लॉरेंस शिलर के साथ, न्यू अमेरिकन लाइब्रेरी द्वारा प्रकाशित) आईं. अपने शोध की अत्यधिक विवादास्पद प्रकृति के कारण, रिचर्ड एल्पर्ट और टिमोथी लेरी एक तरह से व्यक्तित्वहीनता की स्थिति में पहुंच गए, इसी के चलते साल 1963 में हार्वर्ड से निकाल दिया गया. तब टिम लेरी और अल्पर्ट मैक्सिको गए. इस तरह वो अध्यात्म की रहस्यमयी यात्रा के सफर में निकल पड़े. वो रासायनिक पदार्थों के माध्यम से मन का विस्तार जो आध्यात्मिक खोज के लिए एक उत्प्रेरक बन गया. उसी दौरान वो भारत में बाबा नीम करौली के सानिध्य में आए और उनका नया सफर शुरू हुआ.
रखी हनुमान फाउंडेशन की नींव
साल 1974 में राम दास ने हनुमान फाउंडेशन बनाया, ये पूरी तरह नॉन प्राफिट आधार पर था जिसका काम सिर्फ सेवा की भावना को बढ़ाना था. यहां से आगे बो और सीता लोज़ॉफ़ द्वारा निर्देशित हनुमान फाउंडेशन ने प्रिज़न-आश्रम प्रोजेक्ट पर काम किया. इसके जरिये जेल के कैदियों को आध्यात्मिक रूप से बदलने का काम शुरू हुआ. इसके बाद स्टीफन लेविन के साथ डेथिंग प्रोजेक्ट के जरिये करुणा की भावना के साथ मौत का सामना करने की चेतना जगाई जा रही थी.
डॉ रिचर्ड एल्बर्ट कौन थे
डॉ रिचर्ड एल्बर्ट का जन्म 1930 के आसपास बोस्टन, मैसाचुसेट्स में हुआ था. वो मनोविज्ञान में हॉवर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन गए. साल 1961 तक 5 साल के मनोविश्लेषण के बावजूद वो बहुत डिप्रेस, परेशान और चिंतित रहते थे. इसके कारण वो भारी मात्रा में धूम्रपान आदि नशा करते थे. बताते हैं कि उन्हें अपने परिवार से भी कोई लगाव नहीं था. शायद मनोविज्ञान के बारे में उनकी समझ से मोहभंग हो गया था. वो लेरी के साथ जुड़ने के बाद और भी ज्यादा इसी तरह की उदासी में डूबते जा रहे थे. फिर बाबा नीम करौली के शिष्य बनने के बाद उनके जीवन में आमूल चूल परिवर्तन आया.