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जानिये, किसने की थी मोहनजोदड़ो की खोज

आपने 'मोहनजोदड़ो' के बारे में आपने पढ़ा और सुना होगा. पर क्या आप ये जानते हैं कि सुनियोजित बसे इस शहर की खोज किसने की थी. जानिये मोहनजोदड़ों की खोज करने वाले शख्स के बारे में और मोहनजोदड़ो से जुड़ी रोचक बातों के बारे में...

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discoverer of Mohenjo-daro rakhaldas banerjee
discoverer of Mohenjo-daro rakhaldas banerjee

मोहनजोदड़ो से संबंधित आपने कई किस्से कहानियां सुनी होंगी. ये भी सुना होगा कि यह सिंघु घाटी सभ्यता का सबसे परिपक्व शहर था. यह कितना सुनियोजित बसा हुआ था. खुदाई के दौरान शहर को देखकर यह समझना मुश्किल नहीं था कि मोहनजोदड़ों को बेहद आधुनिक नजरिये के तहत बसाया गया था. मोहन जोदड़ो शब्द का सही उच्चारण है 'मुअन जो दड़ो'. जिसका सिन्धी भाषा में अर्थ है 'मुर्दों का टीला'.

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पर क्या आप ये जानते हैं कि सिन्धु नदी के किनारे सक्खर जिले में स्थित दुनिया के सबसे पुराने नियोजित और उत्कृष्ट शहर की खोज किसने की थी? हम यहां आपको यही जवाब दे रहे हैं...

मोहनजोदड़ो की खोज प्रसिद्ध इतिहासकार राखलदास बनर्जी ने 1922 ई. में की थी. राखलदास बनर्जी का जन्म मुर्शिदाबाद में 12 अप्रैल 1885 को हुआ था. दरअसल, उनका नाम राखलदास वंद्योपाध्याय है, पर लोग उन्हें आर. डी. बैनर्जी के नाम से बुलाते हैं.

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कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ाई करते हुए उनकी मुलाकात हरप्रसाद शास्त्री तथा बंगला लेखक श्री रामेंद्रसुंदर त्रिपाठी और फिर तत्कालीन बंगाल सर्किल के पुरातत्व अधीक्षक डॉ. ब्लॉख से हुई.

इसी समय से राखनदास अन्वेषणों तथा उत्खननों में काम करने लगे थे.

1907 ई. में BA (आनर्स) करने पर इनकी नियुक्ति प्रांतीय संग्रहालय, लखनऊ के सूचीपत्र बनाने के लिए हुई. इसी बीच उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण इतिहास संबंधी लेख भी लिखे.

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साल 1910 में MA करने के बाद ये उत्खनन सहायक (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) के पद पर नियुक्त हुए और लगभग एक साल तक इन्होंने कलकत्ता स्थित इंडियन म्यूजियम में काम किया.

साल 1917 में इन्होंने पूना में पुरातत्व सर्वेक्षण के पश्चिमी मंडल के अधीक्षक के रूप में कार्य किया. लगभग 6 वर्षों तक महाराष्ट्र, गुजरात, सिंध तथा राजस्थान एवं मध्यप्रदेश की देशी रियासतों में पुरातत्व विषयक, जो महत्वपूर्ण काम किए उनका विवरण 'एनुअल रिपोर्ट्स ऑव द आर्क्योलॉजिकल सर्वे ऑव इंडिया' (पुरातत्व सर्वेक्षण की वार्षिक रिपोर्ट) में उपलब्ध है.

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मध्य प्रदेश के भूमरा के उल्लेखनीय प्राचीन गुप्तयुगीन मंदिर तथा मध्यकालीन हैहयकलचुरी-स्मारकों संबंधी शोध राखल बाबू द्वारा इसी कार्यकाल में किए गए. पर उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य था 1922 में एक बौद्ध स्तूप की खुदाई के सिलसिले में मोहनजोदड़ो की प्राचीन सभ्यता की खोज. इसके अतिरिक्त उन्होंने पूना में पेशवाओं के राजप्राद का उत्खनन कर पुरातत्व और इतिहास की भग्न शृंखला को भी जोड़ने का प्रयत्न किया.

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1924 में राखालदास महोदय का स्थानांतरण पुरातत्व सर्वेक्षण के पूर्वी मंडल (कलकत्ता) में हो गया, जहां वे लगभग 2 साल रहे. इस छोटी सी अवधि में उन्होंने पहाड़पुर (जि. राजशाही, पूर्वी बंगाल) के प्राचीन मंदिर का उल्लेखयोग्य उत्खनन करवाया.

इसके बाद वे बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में प्राचीन भारतीय इतिहास के 'मनींद्र नंदी प्राध्यापक' पद पर अधिष्ठित हुए और 1930 में अपनी मृत्यु तक इसी पद पर रहे. जीवन के अंतिम वर्षों वे राखलदास की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं रही, फिर भी उनका लेखन और शोध सुचारु रूप से चलता रहा.

'हिस्ट्री ऑव ओरिसा' जो उनकी मृत्यु के बाद ही पुरी छपी, राखाल बाबू के अंतिम दिनों की ही कृति है.

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