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EWS कोटा कानून क्या है, पांच जजों की संवैधानिक बेंच इसमें क्या देखेगी?

EWS कोटा कानून क्या है, पांच जजों की संवैधानिक बेंच इसमें क्या देखेगी?
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सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को संविधान के 103वें संशोधन की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को पांच जजों वाली संविधान पीठ को रेफर करने का फैसला किया. इस संसोधन में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग ( Economically Weaker Section) को आरक्षण देने का प्रावधान किया गया है. आइए जानते हैं ईडब्ल्यूएस कोटे से जुड़े कानून के बारे में और इसे संविधान पीठ को क्यों रेफर किया गया है.
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संशोधन के बारे में ऐसे समझें

जनवरी 2019 में संसद द्वारा पारित संशोधन में प्रस्ताव दिया गया कि संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में खंड (6) सम्मिलित करके सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आर्थिक आरक्षण प्रदान किया जाए. संशोधन में उल्लेख है कि ईडब्ल्यूएस के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10% आरक्षण सुनिश्चित हो.
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2019 के संसोधन में दोनों प्रावधानों में एक अतिरिक्त खंड जोड़ा गया, जिससे संसद को ईडब्ल्यूएस के लिए विशेष कानून बनाने की शक्ति मिलती है. इसमें राज्यों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ी जातियों को लेकर राज्यों को आरक्षण के लिए ईडब्ल्यूएस का गठन करने वाली सूचित करने का भी प्रावधान है.
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एक बड़ी बेंच के संदर्भ में कानूनी चुनौती बेहद महत्वपूर्ण है. संविधान के अनुच्छेद 145(3) में इसकी पूरी प्रक्र‍िया दी गई है. बता दें कि राष्ट्रपति द्वारा संशोधन को अधिसूचित किए जाने के बाद, आर्थिक आरक्षण की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी.
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इस पूरे मामले में  न्यायमूर्ति एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने 103वें संवैधानिक संशोधन द्वारा पेश EWS कोटे की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुनवाई की थी.
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पीठ ने 31 जुलाई 2019 को अपना फैसला सुरक्षित रखा था, अब सुप्रीम कोर्ट को ये तय करना था कि क्या इस मामले को संविधान पीठ के पास भेजा जाए या नहीं. जिसे अब भेज दिया गया है.  बता दें कि संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून संवैधानिक ही रहता है जब तक कि अदालत में अन्यथा साबित नहीं किया जाता है. SC ने 103वें संशोधन में स्टे से इनकार कर दिया था. एक रेफरेंस से ईडब्ल्यूएस कोटे के संचालन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा
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कानूनी चुनौती के आधार क्या हैं

कानून को मुख्य रूप से दो आधारों पर चुनौती दी गई थी. पहला त‍र्क ये दिया गया कि यह संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है. यह तर्क इस दृष्टिकोण से उपजा है कि सामाजिक रूप से वंचित समूहों को दी गई विशेष सुरक्षा मूल संरचना का हिस्सा है.
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इसके अलावा 103वां संशोधन आर्थिक स्थिति के एकमात्र आधार पर विशेष सुरक्षा का वादा करके इससे आगे की बात नहीं बताता. यद्यपि इसकी मूल संरचना क्या होती है, इसकी कोई विस्तृत सूची नहीं है, लेकिन इसका उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून को असंवैधानिक माना जाता है.
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याचिकाकर्ताओं ने इस आधार पर भी संशोधन को चुनौती दी है कि यह सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले का उल्लंघन करता है, जो भारत के इंद्रा साहनी बनाम ओआरएस संघ है. इसमें मंडल रिपोर्ट को बरकरार रखा और आरक्षण को 50% पर सीमित कर दिया. इस मामले में अदालत ने माना कि पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए आर्थिक पिछड़ापन एकमात्र मानदंड नहीं हो सकता है.
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एक और चुनौती निजी, गैर-शैक्षणिक संस्थानों की ओर से की गई है. उन्होंने तर्क दिया है कि अगर राज्य उन्हें अपनी आरक्षण नीति को लागू करने और छात्रों को योग्यता के अलावा किसी भी मानदंड पर लागू करने के लिए मजबूर करता है. इससे किसी व्यापार/पेशे के उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है.

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