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समर ट्र‍िप के नाम पर फॉरेन टूर, स्कूलों का चोचला! पढ़ाई की मांग या पेरेंट्स का टेंशन? इसे समझना होगा

पीढ़‍ियों से चली आ रही दादी-नानी के घर छुट्ट‍ियांं मनाने के कल्चर को बदलने में हमारी जीवनशैली के साथ साथ स्कूलों का भी रोल सामने आता है. आज पब्ल‍िक स्कूल जो इंटरनेशनल करीकुलम फॉलो कर रहे हैं, उनके लिए बच्चों को ट्र‍िप में ले जाना पढ़ाई का हिस्सा-सा बन गया है. लेकिन इसकी आड़ में जिन मासूमों के चेहरे उदास हो जाते हैं, उनका क्या? यह सवाल तो उठना ही चाहिए.

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प्रतीकात्मक फोटो
प्रतीकात्मक फोटो

राजस्थान के कोटा शहर में एक ऐसा मामला सामने आया जिसमें एक बच्चा 100 रुपये लेकर घर से भाग गया. जब वो मिला तो रीजन बताया कि दोस्त समर ट्र‍िप पर गए थे, वो नहीं जा सका था. एक सभ्य समाज के तौर पर हम सबके लिए ये वजह सोचने वाली है. अब वो दिन कहां गए जब बच्चे छुट्ट‍ियों में नानी-दादी के घर जाया करते थे. 

पीढ़‍ियों से चली आ रही इस कल्चर को बदलने में हमारी जीवनशैली के साथ साथ स्कूलों का भी रोल सामने आता है. आज पब्ल‍िक स्कूल जो इंटरनेशनल करीकुलम फॉलो कर रहे हैं, उनके लिए बच्चों को ट्र‍िप में ले जाना पढ़ाई का हिस्सा-सा बन गया है. लेकिन इसकी आड़ में जिन मासूमों के चेहरे उदास हो जाते हैं, उनका क्या? यह सवाल तो उठना ही चाहिए. 

दिल्ली के मयूर विहार इलाके की एक अभ‍िभावक बताती हैं कि मेरी बेटी के स्कूल ने समर ट्रिप के लिए 11 हजार 500 रुपये मंगाए थे. स्कूल बच्चों को शिमला लेकर जा रहा था, लेकिन हमने नहीं भेजा. स्कूल से बच्चों को सिखाकर भेजा गया था जिससे वो अपने अभिभावकों पर दबाव बना सकें. पहले सुनने में आया था कि 41 छात्रों की कक्षा में से 20-22 बच्चे जा रहे हैं लेकिन ट्रिप पर सिर्फ दो गए. 

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द्वारका दिल्ली की एक अभ‍िभावक ने बताया कि उनके बच्चे के स्कूल ने प‍िछले साल बच्चों को नासा का ट्र‍िप ऑफर किया था. इसके लिए अभ‍िभावकों से 1.5 लाख रुपये का खर्च बताया गया था. लेकिन हम लोग भेज नहीं पाए. कुछ बच्चे गए भी थे. मेरा बच्चा भी विदेश खासकर अमेरिका जाने के नाम से बहुत रोमांचित था, लेकिन मना करने के बाद बहुत उदास हुआ था. इसी साल दिल्ली के एक स्कूल ने बच्चों को वियतनाम ट्र‍िप भी ऑफर की है. 

सहमति पत्र पर करने होते हैं हस्ताक्षर 
जून के इस वियतनाम ट्र‍िप के लिए प्रत‍ि बच्चा 1,20,000 रुपये का खर्च बताया गया. इसकी इटनरी में बच्चों को घुमाने-फिराने से लेकर एकेडमिक नॉलेज के लिए घुमाने की बात कही गई. स्कूल ने इटनरी के साथ अभ‍िभावकों से सहमत‍ि पत्र पर साइन करने को भी कहा था. इसमें साफ लिखा था कि मैं अपने बच्चे को अपनी इच्छा से भेज रहा हूं. दिल्ली पेरेंट्स एसोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम कहती हैं कि इस कंसेंट फॉर्म के साथ ही एक तरह से स्कूल अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं. अगर लंबी ट्र‍िप के दौरान बच्चे को चोट लगती है या कोई घटना होती है तो कंसेंट फॉर्म के अनुसार स्कूल इसमें पार्टी नहीं बन सकते. 

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स्कूल ने प्लान किया अमेरिका ट्र‍िप 
अपराजिता बताती हैं कि तकरीबन छह साल पहले मेरी बेटी के स्कूल ने अमेरिका का छह दिन का ट्र‍िप प्लान किया था. यह सवा लाख का ट्र‍िप था जिसकी इटनरी में नासा का टूर शामिल था. हमारे लिए ये संभव नहीं था तो मैंने नहीं भेजा था. लेकिन मैं इतना कह सकती हूं कि इससे बच्चों में हीन भावना आती है. वो सोचते हैं कि हमारे दोस्त जा रहे हैं लेकिन हम नहीं जा पा रहे. बच्चों में जो आपनी कट थ्रोट कंपटीशन की भावना पनपनी शुरू होती है, इसकी शुरुआत स्कूल से ही होती है. इसका साइड इफेक्ट होता है कि दूसरे बच्चों में शो ऑफ करना शुरू हो जाता है. गर्मी की छुट्ट‍ियां बच्चों को स्कूल से ब्रेक होती हैं, लेकिन स्कूल तब भी ब्रेक नहीं लगाते. 

EWS बच्चों के लिए होती है यातना 
अपराजिता कहती हैं कि इस तरह की ट्र‍िप से बच्चों को ग्रुप में बांट देने से छोटी उम्र में हीन भावना आ जाती है. ये हीन भावना भविष्य की ग्रोथ के लिए हानिकारक है. आप इंटरनेशनल ट्र‍िप छोड़ दीजिए. स्कूल के जो लोकल ट्रिप्स होते हैं, उसके लिए भी बच्चों से 1000 से 2000 रुपये चार्ज करते हैं. इसमें सबसे बुरा ईडब्ल्यूएस कैटेगरी के बच्चों के साथ होता है. उन बच्चों को भी पैसा देना जरूरी होता है जोकि कई बार पेरेंट्स नहीं दे पाते. इसलिए ये बच्चे हमेशा सफर करते हैं, जहां लगभग पूरी क्लास जाती है, वो वंच‍ित रह जाते हैं. 

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क्या है स्कूलों का पक्ष? 
अनएडेड रिकग्नाइज्ड प्राइवेट स्कूल दिल्ली के जनरल सेक्रेटरी भारत अरोड़ा कहते हैं कि अव्वल तो ऐसे स्कूलों की संख्या बहुत कम है. रही बात ट्र‍िप की तो कई टूर तो गवर्नमेंट फंडेड होते हैं जिसमें पूरा खर्च सरकार देती है. इस तरह के टूर काफी संख्या में होते हैं. वहीं कुछ सेल्फ फंडेड होते हैं जिसका खर्च पेरेंट्स उठाते हैं. इसमें शामिल होने का कोई किसी तरह का दबाव नहीं होता है. लेकिन जब अभ‍िभावक स्कूल के इंटरनेशनल करीकुलम से बच्चों को पढ़ाते हैं तो उन्हें पता होता है कि बच्चों को वृहद और व्यवहारिक ज्ञान के लिए ट्र‍िप से फायदा होता है. 

करीकुलम का हिस्सा 
भारत अरोड़ा आगे कहते हैं कि इस तरह की सेल्फ फंडेड ट्र‍िप में ज्यादा से ज्यादा 20 बच्चे ही जाते हैं क्योंकि बहुत से अफोर्ड नहीं कर पाते. इसलिए फॉरेन की ट्र‍िप बहुत कम स्कूल कराते है. उदाहरण के लिए जल्द ही सरकार की स्कीम में स्काउट के तौर पर बच्चे जर्मनी जाएंगे. लेकिन ट्र‍िप एक तरह से करीकुलम से जुड़ा हुआ हिस्सा है. बच्चों को लाल किला, पार्क, गुरुद्वारे ले जाया जाता है. लेकिन फॉरेन ट्र‍िप का विकल्प कुछ स्कूल स्वेच्छा से शामिल होने के लिए देते हैं. मसलन 
ताइवान की एक टिकट एक लाख रुपये की है, पेरेंट्स के पास ऑप्शन होता है. बहुत से पेरेंट्स न सिर्फ अफोर्ड करते हैं, बल्क‍ि वो भेजने को तैयार भी रहते हैं. 

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बच्चों को एकरूपता सिखाना जरूरी 
भोपाल के जाने-माने मनोचिकित्सक कहते हैं कि स्कूलों में यूनिफॉर्म का चलन और एक जैसी किताबें होने के पीछे एक ही वजह होती है, वो है एकरूपता. जब अलग अलग बैकग्राउंड से आने वाले बच्चे स्कूल में एक जैसे दिखते हैं तो वो वर्ग भेद को महसूस नहीं करते. स्कूल में हर बच्चा बराबर होता है, चाहे वो जिस हैसियत से आया हो. इसलिए कोई भी ऐसा आयोजन जो उनमें भेदभाव पैदा करता है, वो मानसिक विकास के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता. बच्चों में भेदभाव से कुंठा, नाराजगी और जलन पैदा होती है, जो आगे चलकर उनके व्यक्त‍ित्व में विकार पैदा करने में सहायक होती है. 

 

 

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