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वर्षों से अटका पड़ा है लोकपाल विधेयक

लोकपाल विधेयक पिछले 40 साल से संसद में पारित नहीं हो सका है और राजनीतिक पार्टियां इसके लिए एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं. लोकसभा में आठ बार के प्रयास के बावजूद लोकपाल विधेयक पारित नहीं हो सका है.

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लोकपाल विधेयक पिछले 40 साल से संसद में पारित नहीं हो सका है और राजनीतिक पार्टियां इसके लिए एक दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं. लोकसभा में आठ बार के प्रयास के बावजूद लोकपाल विधेयक पारित नहीं हो सका है.

देश के 17 राज्यों में लोकायुक्त हैं, लेकिन उनके अधिकार, कामकाज और अधिकार क्षेत्र एक समान नहीं हैं. अकसर विधायिका को जानबूझ कर लोकायुक्त के दायरे से बाहर रखा जाता है जो इस तरह की संस्थाएं बनाने के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ है.

जांच के लिए लोकायुक्त का अन्य सरकारी एजेंसियों पर निर्भर होना उनके कामकाज को तो प्रभावित करता ही है, मामलों के निपटान में भी विलंब होता है. वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में 2001 में इसे लोकसभा में पेश किया गया, लेकिन यह पारित नहीं हो सका. उस विधेयक में प्रधानमंत्री के पद को लोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया था. {mospagebreak}

यह विधेयक भ्रष्टाचार निरोधक संथानम समिति के निष्कर्षों का नतीजा था. प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी 1966 में अपनी एक रिपोर्ट में लोकपाल गठित करने की सिफारिश की थी. लोकपाल विधेयक सांसदों के भ्रष्ट आचरण के मामलों में मुकदमे की कार्यवाही तेजी से संचालित करने का अधिकार देता है.

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लोकपाल विधेयक हर प्रमुख राजनीतिक पार्टी के चुनावी एजेंडे में रहने के बावजूद 40 साल से संसद में पारित नहीं हो सका. 2004 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वयं स्वीकार किया था कि आज के समय में लोकपाल की आवश्यकता पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा है. उन्होंने वायदा किया था कि वह बिना देरी किये इस संबंध में कार्रवाई आगे बढाएंगे. सिंह ने इस बात पर भी जोर दिया था कि प्रधानमंत्री के पद को भी लोकपाल के दायरे में लाया जाए, लेकिन केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने यह प्रस्ताव नामंजूर कर दिया.

दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने सिफारिश की थी कि लोकपाल को संवैधानिक दर्जा दिया जाए और इसका नाम बदलकर ‘राष्ट्रीय लोकायुक्त' किया जाए. हालांकि आयोग ने भी प्रधानमंत्री को इसके दायरे से बाहर रखने का सुझाव दिया था. इसी आयोग ने सांसद निधि को समाप्त करने की भी सिफारिश की थी.

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