कोविड ने वित्तीय तंत्र को जोखिम के रास्ते पर उतार दिया है. दरअसल, सरकार सीधी मदद देने की हालत में नहीं है. 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की चार किस्तों (मार्च-अप्रैल की घोषणाओं को मिलाकर) से यह स्पष्ट हो चुका है कि अर्थव्यवस्था को उबारने की जिम्मेदारी बैंक कर्ज पर छोड़ दी गई है.
राहत की आफत
दरअसल, बैंकों को अंदाज नहीं था कि 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की अगली किस्त उनके नाम नया कर्ज बांटने का फरमान होगी. अब उन्हें कर्ज में डूबे उद्योगों, घटिया एनबीएफसी को सरकार की गारंटी पर कर्ज देना होगा. कल उनसे बड़ी कंपनियों को बेल आउट (बिजली कपनियों की तरह) के लिए भी कहा जा सकता है.
हैरानी की बात यह है कि जो सरकार एक महीने पहले तक उद्योगों को कर्ज की किस्त टालने की छूट दे रही रही थी, वह एक महीने बाद उनसे नया कर्ज लेने के लिए कह रही है.
मार्च 2020 तक कुल 93.8 लाख करोड़ रुपये बैंक कर्ज बकाया था इनमें 56 लाख करोड़ रुपये उद्योगों पर (इसका 83 फीसद बकाया कर्ज बड़े उद्योगों पर) 12 लाख करोड़ रुपये खेती और लगभग 26 लाख करोड़ रुपये के पर्सनल लोन हैं
छोटे उद्योग 10 लाख करोड़ रुपये के बकाये में हैं, वे कर्ज के पुनर्गठन और
माफी की मांग कर रहे हैं. वे नया कर्ज क्यों लेंगे? बेरोजगारी, वेतन में
कटौती के बाद ऑटो, होम लोन की मांग आने की उम्मीद नहीं है. बैंकों को तो डर
है अब किस्तें टूटेंगी.
इन सबके बीच कॉर्पोरेट परिदृश्य दो हिस्सों में बंट चुका है. बेहतर साख
वाली रिलायंस जैसी कंपनियां कर्ज समाप्त कर रही हैं, जबकि जो कंपनियां
कर्ज में दबी हैं वे वसूली रोकने की मांग कर रही हैं. कारोबारी भविष्य पर
पूरी तरह अनिश्चितता है, तो नया कर्ज कौन लेगा?
गौरतलब है कि कोविड से पहले बैंकों और कंपनियों की सबसे बड़ी मुसीबत करीब 9.9 लाख करोड़ के फंसे हुए कर्ज हैं. कुछ कर्जों को दीवालिया कानून के सहारे खत्म करने की कोशिश में बैंकों ने खासी चोट खाई. क्योंकि सरकार ने इसे साल भर के टाल दिया है. (यह कंटेंट इंडिया टुडे हिंदी मैगजीन के संपादक अंशुमान तिवारी की एक रिपोर्ट से लिया गया है.)