क्या ईरान की बढ़ती ताकत ही बन गई दुश्मन? पहली बार इजरायल के खिलाफ जंग में नहीं उतरे मुस्लिम देश

मिडिल ईस्ट में अपनी ताकत बढ़ाने के मकसद से ही ईरान परमाणु हथियार हासिल करना चाहता है, जो न सिर्फ इजरायल और अमेरिका बल्कि सऊदी अरब और यूएई जैसे देशों के लिए चिंता का विषय बन चुका है. इजरायल की तरफ मुस्लिम देश भी नहीं चाहते कि ईरान परमाणु हथियार बनाए, क्योंकि इससे सबसे ज्यादा खतरा उन्हीं देशों को हो सकता है. 

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ईरान के सुप्रीम लीडर खामेनेई ईरान के सुप्रीम लीडर खामेनेई

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 23 जून 2025,
  • अपडेटेड 7:25 PM IST

इजरायल से सीधी जंग लड़ते हुए ईरान को दस से ज्यादा दिन हो चुके हैं और उसे इस संघर्ष में काफी नुकसान हुआ है. इजरायली हमलों में ईरान के परमाणु ठिकाने तबाह हो गए हैं, यहां तक कि उसके कई सैन्य कमांडर्स और न्यूक्लियर साइंटिस्ट की भी जान गई है. इसके अलावा युद्ध में अमेरिका की एंट्री से हालात और भी गंभीर हो गए हैं. अमेरिका ने ईरान के तीन प्रमुख न्यूक्लियर साइट फोर्डो, नतांज और इस्फहान पर बंकर बस्टर बम गिराकर उन्हें तबाह करने का दावा किया है. इसके बावजूद कोई भी मुस्लिम देश खुलकर ईरान का समर्थन नहीं कर रहा है.

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निंदा तक सीमित ईरान का साथ

इजरायल के खिलाफ अब तक ईरान ने जो भी जंग लड़ी हैं, उनमें मुस्लिम देशों ने सैन्य कार्रवाई तक में उसका साथ दिया है. अप्रैल 2024 जब दमिश्क में ईरानी दूतावास पर इजरायली हमला हुआ तो ईरान ने 'ऑपरेशन ट्रू प्रॉमिस' चलाकर इजरायल पर मिसाइलें और ड्रोन अटैक किए. इस संघर्ष में लेबनान, यमन और इराक ने खुलकर उसका साथ दिया. यमन के हूती विद्रोहियों ने जवाबी कार्रवाई करते हुए लाल सागर में इजरायली जहाजों को निशाना बनाया, लेबनान ने भी इजरायल पर मिसाइलों से हमला किया था. लेकिन यह पहली बार है जब ईरान अकेला पड़ा गया है और मुस्लिम देश सिर्फ निंदा करके अपना पल्ला झाड़ रहे हैं.

इजरायल और अमेरिका के हमलों के बाद पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और तुर्की जैसे देशों ने ईरान पर हमले के निंदा तो की, लेकिन कोई भी देश उसके साथ खड़े होने को तैयार नहीं है. मुस्लिम वर्ल्ड की तरफ से ईरान पर बमबारी की तीखी निंदा की गई है. जॉर्डन ने इजरायल के हमलों के खिलाफ आवाज उठाई और इसे क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरा बताया, सऊदी अरब ने 'इजरायली आक्रामकता' की निंदा की, तुर्की ने 'इजरायल की लूटपाट को खत्म करने' की वकालत की, जबकि इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) सहित विभिन्न मुस्लिम राजनयिक समूहों ने यहूदी देश के खिलाफ 'अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई' की मांग की. लेकिन इस निंदा के बावजूद कई देशों के हित अमेरिका और इजरायल के साथ जुड़े हुए हैं.

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ईरान शिया बहुल देश है, जबकि ज्यादातर मुस्लिम देश जैसे यूएई, कतर, सऊदी अरब, जॉर्डन और मिस्र में सुन्नी आबादी ज्यादा है. शिया और सुन्नी के बीच बंटवारे का इतिहास रहा है और इसी विभाजन का असर क्षेत्रीय राजनीति पर भी पड़ता दिख रहा है. वहीं दूसरी तरफ ईरान और सऊदी अरब बीच संबंध अच्छे नहीं हैं और इसकी वजह भी शिया-सुन्नी मतभेद हैं. दो साल पहले चीन की मध्यस्थता के बाद दोनों के बीच संबंध पटरी पर जरूर आए हैं लेकिन ऐतिहासिक दरार अब भी बनी हुई है.

ईरान की ताकत बनी खतरा

सऊदी अरब समेत बाकी मुस्लिम देश ईरान को अपने लिए एक ऐसे खतरे के तौर पर देखते हैं जो पूरे क्षेत्र में अपनी सत्ता और प्रभाव बढ़ाना चाहता है. इसके लिए ईरान की प्रॉक्सी पॉलिसी को जिम्मेदार माना जाता है, जिसके तहत वह क्षेत्र में हिजबुल्लाह, हमास और हूती जैसे विद्रोही गुटों को समर्थन देता है. इन गुटों की वजह से सुन्नी देश अपने प्रभाव को कम आंकते हैं और ईरान को खुले तौर पर समर्थन देने से बचते हैं.

मिडिल ईस्ट में अपनी ताकत बढ़ाने के मकसद से ही ईरान परमाणु हथियार हासिल करना चाहता है, जो न सिर्फ इजरायल और अमेरिका बल्कि सऊदी अरब और यूएई जैसे देशों के लिए चिंता का विषय बन चुका है. जैसे इजरायल और अमेरिका लगातार ईरान के परमाणु कार्यक्रम का विरोध करते आए हैं, ठीक उसी तरह सुन्नी देश भी नहीं चाहते कि ईरान परमाणु हथियार बनाए, क्योंकि इससे सबसे ज्यादा खतरा उन्हीं देशों को हो सकता है. 

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अमेरिका से दुश्मनी का डर

ईरान न सिर्फ परमाणु हथियार को लेकर महत्वाकांक्षी है बल्कि उसकी बढ़ती सैन्य ताकत, हथियारों का जखीरा, मिसाइल और ड्रोन  टेक्नोलॉजी पूरे मिडिल ईस्ट में उसे एक मजबूत खिलाड़ी बनाती है. ईरान के पास वेस्ट एशिया में मिसाइलों का सबसे बड़ा जखीरा है और वह इसका प्रदर्शन इजरायल पर किए जवाबी हमलों में लगातार कर रहा है. ईरान की इस ताकत को बाकी मुस्लिम देश अपने लिए खतरे के तौर पर देखते हैं.  

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सऊदी अरब, जॉर्डन और UAE जैसे देशों के वेस्ट, खास तौर पर अमेरिका के साथ मजबूत आर्थिक और सैन्य संबंध हैं. इसके अलावा इजरायल के साथ भी इनके रिश्ते बेहतर हैं. ऐसे में ईरान का खुलकर समर्थन करना, इन देशों के लिए अमेरिका और इजरायल से दुश्मनी मोल लेने के बराबर है.

भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान भले ही ईरान पर हमले की निंदा करे लेकिन यह वही देश है जो दो दिन पहले तक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लिए नोबेल शांति पुरस्कार की मांग कर रहा था. ऐसे में वह दोहरी नीति अपनाकर किसी से भी रिश्ते खराब नहीं करना चाहता. इसके अलावा बॉर्डर पर ईरान के साथ झड़पें और तस्करी दोनों के बीच तनाव की वजह भी रही है. 

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आर्थिक विकास और घरेलू मुद्दे

आर्थिक प्रगति करने वाले सऊदी अरब, यूएई और कतर जैसे देशों के लिए ईरान से ज्यादा अमेरिका अहमियत रखता है, क्योंकि इन देशों के विकास के लिए कारोबारी रिश्ते अहम हैं. ऐसे में विद्रोही गुटों के समर्थन देने के आरोपी ईरान जैसे देश का साथ क्षेत्रीय स्थिरता के लिए संकट की स्थिति पैदा कर सकता है.

इसके अलावा मुस्लिम वर्ल्ड के कई देश अपने घरेलू मुद्दों से जूझ रहे हैं, फिर चाहे वह पाकिस्तान हो या फिर ईरान या लेबनान. उनके लिए आंतरिक मुद्दों के सुलझाना प्राथमिकता है और वह ईरान का साथ देकर बाहरी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं.

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