इजरायल पर नाराज अरब देश क्या NATO का इस्लामिक संस्करण बना लेंगे, कहां आ सकती है अड़चन?

हमास के लोगों को खत्म करने के लिए इजरायल ने कतर की राजधानी दोहा पर अटैक किया. इसके बाद से मुस्लिम देशों में अफरातफरी है. यहां तक कि अरब लीग और इस्लामिक देश मिलकर एक नाटो खड़ा करने की सोच रहे हैं. ऐसा प्रस्ताव साल 2015 में भी आ चुका था. लेकिन अलग-अलग हित रखते देश क्या एक सैन्य छतरी के नीचे आ सकेंगे?

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अरब लीग में नाटो जैसा सशस्त्र बल बनाए जाने की चर्चा है. (Photo- Unsplash) अरब लीग में नाटो जैसा सशस्त्र बल बनाए जाने की चर्चा है. (Photo- Unsplash)

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 15 सितंबर 2025,
  • अपडेटेड 8:30 PM IST

एक तरफ गाजा में युद्धविराम की बात हो रही थी, तभी इजरायली सेना ने कतर की राजधानी दोहा पर हमला कर दिया. उसने ये अटैक कथित तौर पर हमास लीडरशिप को खत्म करने के लिए किया था. टारगेट का तो सफाया नहीं हुआ, उल्टे अरब देश भड़क गए. अब तमाम इस्लामिक देश मिलकर एक सैन्य संगठन बनाने की सोच रहे हैं, जो नाटो की तरह काम करे. वैसे नाटो की नकल की कोशिश यूरोप भी कर चुका. अब अरब लीग कतार में है. लेकिन क्या ये मुमकिन है?

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अरब देशों को कवर करने वाले मीडिया में इस तरह की रिपोर्ट्स हैं. माना जा रहा है कि सशस्त्र बल की अध्यक्षता अरब लीग के सभी देश बारी-बारी से करेंगे. चूंकि प्रपोजल इजिप्ट की तरफ से आया है, और वहीं अरब लीग का मुख्यालय है, लिहाजा पहला नेतृत्व उसे मिल सकता है. माना जा रहा है कि इसमें सबसे ज्यादा सैन्य योगदान भी इसी देश का होगा. उसके बाद सऊदी और फिर बाकी देश हो सकते हैं. नाटो की तर्ज पर हर देश की थल-जल और वायु सेनाओं की एक टुकड़ी पूरी तरह से स्टैंड बाय मोड में रहेगी और जब जरूरत हो, संयुक्त अभियान चलाएगी. 

पहले भी बना था एक गुट

अरब देशों के बीच इस तरह का एक सैन्य गठबंधन पहले भी मौजूद रहा है जो बगदाद संधि के नाम से जाना जाता था. इसका फॉर्मल नाम था- सेंट्रल ट्रीटी आर्गेनाइजेशन या सेंटो. दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद जब दुनिया दो खेमों में बंटी हुई थी, तभी अरब को डर हुआ कि सोवियत संघ उसके यहां दखल देना न शुरू कर दे. इसी डर को खत्म करने के लिए साल 1955 में यह सैन्य संगठन बना. 

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इजरायल और हमास की जंग में गाजा पट्टी तबाह हो चुकी. (Photo- AP)

इसमें इराक, तुर्की, ईरान, पाकिस्तान और यूनाइटेड किंगडम शामिल थे. बैकडोर से उन्हें अमेरिका का सपोर्ट मिला हुआ था. हालांकि वक्त के साथ संगठन कमजोर पड़ने लगा. संगठन में मिस्र जैसे शामिल नहीं थे. वे मानते थे कि यह अमेरिकी साजिश है. शक इसलिए भी गहराया क्योंकि इसमें ब्रिटेन भी शामिल था, जिसका आमतौर पर अरब से खास लेनादेना नहीं था. आखिरकार लड़ते-झगड़ते सत्तर के दशक में यह सैन्य संगठन खत्म हो गया. 

क्या अरब देश मिलकर नाटो जैसा संगठन बना सकते हैं

ये प्रस्ताव पहले भी आ चुका लेकिन बार-बार कमजोर पड़ता रहा. असल में सभी इस्लामिक देशों के हित इतने अलग हैं कि उनमें एकजुटता शायद ही हो सके. जैसे सऊदी और ईरान के बीच कई टकराव रहे. एक अमेरिका के साथ दिखता है, दूसरा उसके खिलाफ. ऐसे में उनका साथ आना मुश्किल है. सैन्य गुट बनने का मतलब ये भी है कि सभी देश आपस में खुफिया जानकारियां शेयर करें. यह स्थिति भी काफी पेचीदा हो सकती है. 

अगर कहीं जोड़-तोड़ करके ऐसा कोई सैन्य संगठन बन भी गया, तो अमेरिका चुप नहीं बैठेगा. वो फिलहाल अरब देशों में अपने पांव जमा रहा है. सैन्य गुट बनने का मतलब है, देशों में एका, यानी अमेरिका के पैर कमजोर पड़ जाना. तो वो साम-दाम-दंड-भेद सारे तरीके अपनाएगा कि संगठन नामभर के लिए बाकी रह जाए. पहली बार जो संगठन बना, उसपर भी यूएस ने लगातार नजर रखी और येन-केन प्रकरेण उसमें फूट डालता रहा. दूसरी तरफ नाटो के साथ वो पूरी तरह कमिटेड रहा. 

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पहले भी कई देशों ने संयुक्त सैन्य संगठन बनाने की कोशिश की. (Photo- Pixabay)

रूस-यूक्रेन जंग शुरू होने के बाद से यूरोप में भी नाटो का विकल्प बनाने पर चर्चा हो रही है. खासकर डोनाल्ड ट्रंप ने सत्ता संभालते ही धमकाना शुरू कर दिया कि अगर यूरोप ने अपना डिफेंस बजट नहीं बढ़ाया, तो यूएस नाटो से अलगाव कर लेगा. बता दें कि नाटो भले ही पश्चिमी देशों का संगठन सही, लेकिन अमेरिका इसमें सबसे ज्यादा मजबूत रहा. इतना कि उसके पैर पीछे खींचने की धमकी पूरे यूरोप को डराने लगी. इसी डर के बीच हाल में यूरोपियन यूनियन के देशों ने भी अपने अलग सैन्य गुट की बात छेड़ी लेकिन योजना आकार नहीं ले सकी. 

कहां अटकी यूरोप की गाड़ी

इसके कई कारण हैं. पहली वजह है- सैन्य बजट. कोई भी देश भारी पैसे खर्च करने से बच रहा है. लेकिन यही अकेला कारण नहीं. ईयू के सदस्य देशों के बीच आपस में ठनी रहती है. ईयू में 25 से ज्यादा देश हैं. सबकी अपनी प्राथमिकता है. ऐसे में संयुक्त यूरोपियन आर्मी बनाना मुश्किल ही लगता है. इसके अलावा, दूसरे वर्ल्ड वॉर के बाद यूरोप काफी हद तक यूएस के भरोसे रहने लगा. वहीं से छोटे से लेकर बड़े फैसले होते रहे. अब एकदम से अलग सैन्य संगठन जैसा फैसला लेना उसके लिए आसान नहीं. साथ ही कहीं न कहीं ये अमेरिका को बिदकाने जैसा भी है. 

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