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विश्व

1962 में भारत के खिलाफ PAK ने क्यों नहीं दिया चीन का साथ?

1962 में भारत के खिलाफ PAK ने क्यों नहीं दिया चीन का साथ?
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भारत-चीन के बीच लद्दाख की गलवान घाटी में सोमवार देर रात हुई हिंसक झड़प में भारत के कमांडिंग ऑफिसर समेत 20 जवान शहीद हो गए. इस हिंसा में चीन के भी 40 जवानों के मारे जाने और कई गंभीर रूप से घायल होने की खबर है. दोनों देशों के बीच युद्ध की स्थिति बनते देख अब सवाल उठता है कि क्या इस लड़ाई में पाकिस्तान चीन का साथ देगा या 1962 के युद्ध की तरह खुद को अलग रखेगा?

Photo: Getty Images
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भारत-चीन के बीच साल 1962 में हुए युद्ध में भी पाकिस्तान ने मौका भुनाने की कोशिश की थी. हालांकि भारत के पक्ष में अमेरिका की आवाज बुलंद होने के बाद पाकिस्तान को मजबूरन पांव पीछे खींचने पड़े थे. अमेरिका की सिक्योरिटी एंजेंसी के पूर्व अधिकारी ब्रूस रीडल ने अपनी किताब JFK’s Forgotten Crisis: Tibet में इसका खुलासा किया था.

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ब्रूस रीडल के मुताबिक, 1962 में अमेरिका ने खुद पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अयूब खान से भारत-चीन के बीच हुए युद्ध का फायदा नहीं उठाने का आश्वासन मांगा था. उस वक्त अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की भूमिका काफी अहम रही थी.

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1962 में भारत-चीन युद्ध में पाकिस्तान के पास कश्मीर हथियाने का मौका था. ब्रूस रीडल ने अपनी किताब में इसका जिक्र किया है. उन्होंने लिखा कि पाकिस्तान स्पष्ट रूप से भारत के साथ युद्ध शुरू करने में सक्षम था, लेकिन 1962 में उसने दोनों देशों के बीच चल रहे तनाव का लाभ ना उठाने का फैसला किया.

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28 अक्टूबर 1962 को भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने भारत-चीन के बीच चल रहे युद्ध में अमेरिकी सेना से मदद मांगी थी. इसके बाद पाकिस्तान में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत वॉल्टर मैककोनोगी ने पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अयूब खान से मुलाकात की थी. उन्होंने आयूब खान से आग्रह किया कि वे नेहरू को ये संदेश भेजें कि पाकिस्तान इस लड़ाई में नहीं कूदेगा.

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हालांकि इसके जवाब में आयूब खान ने कहा कि भारतीय जमीन को कब्जाने के लिए अमेरिका और पाकिस्तान मिलकर काम करते हैं. बिल्कुल वैसे जैसे चीन कर रहा है. आयूब खान के इस प्रस्ताव को अमेरिका ने ब्लैकमेल माना और दोनों के बीच बातचीत से मसले का हल नहीं निकला.

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इसके बाद भारत में अमेरिकी राजदूत जेके गैलब्रैथ ने मामले को लेकर वॉशिंगटन और कराची को एक टेलीग्राम भेजा. इसमें उन्होंने कहा कि ईश्वर की खातिर पाकिस्तान अमेरिकी के किसी भी संदेश से कश्मीर को बाहर रखे. इसके बाद अमेरिका ने तुरंत गैलब्रेथ की योजना पर मुहर लगाई और नेहरू को आयूब खान को एक पत्र लिखने को कहा.

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इस घटना के बाद ये स्पष्ट हो चुका था कि अमेरिका और ब्रिटेन पाकिस्तान के एक भी गलत कदम को शत्रुतापूर्ण और आक्रामक कार्रवाई के रूप में देखेंगे. पाकिस्तान की किसी भी कार्रवाई को 'सीटो' और 'सेंटो' संधि के तहत गलत माना जाएगा. अमेरिका ने पाकिस्तान से कहा कि 1950 के बाद से माओ द्वारा किया गया चीनी हमला सबसे खतरनाक कदम था और अब अमेरिका इसका जवाब देने का मन बना चुका है.

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किताब में यह भी खुलासा किया कि जैसे ही भारत ने चीन से अपना अधिकृत क्षेत्र खोना शुरू किया, नेहरू ने तुरंत युद्ध में अमेरिका की मदद मांगी और कैनेडी को पत्र लिखकर कहा कि वह चीनियों को हराने के लिए लड़ाकू जेट विमान उपलब्ध कराएं. नेहरू ने लिखा, 'हमें खुद से और अपने दोस्तों से बहुत अधिक प्रयास की आवश्यक्ता है.'

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इसके बाद नेहरू ने 19 नवंबर को राजदूत के जरिए एक और चिट्ठी राष्ट्रपति कैनेडी तक पहुंचाई, जिसमें उन्होंने आग्रह किया कि 'पीपल्स लिब्रेशन आर्मी ऑफ चाइना' को हराने के लिए अमेरिका हवाई युद्ध में उनका साझा सहयोग करे.  प्रधानमंत्री नेहरू ने राष्ट्रपति कैनेडी से अपील की कि वे चीनी समुदाय के खिलाफ एक नए युद्ध की शुरुआत करें.

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रीडल के मुताबिक, तिब्बत में हमले के लिए नेहरू ने अमेरिकी हवाई सेना से 12 स्काव्ड्रोन्स और बी-47 बॉम्बर्स के 2 स्काव्ड्रॉन्स की मांग की थी. नेहरू ने कहा था, 'हमें कम से कम 12 सुपरसोनिक स्क्वाड्रोन्स की जरूरत है. देश की सुरक्षा के लिए हमारे पास कोई मॉडर्न रडार नहीं है. अमेरिकी वायु सेना के कर्मियों को इन फाइटर्स और रडार इंस्टोलेशन को स्थापित करना होगा.'

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अपने पत्र में नेहरू ने कैनेडी को यह भी आश्वासन दिया कि इन जहाजी बेड़ों और हाथियारों का इस्तेमाल वह पाकिस्तान के खिलाफ कभी नहीं करेगा. इसका एकमात्र उद्देश्य चीन की घुसपैठ को नाकाम करना होगा.

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