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रिश्ते बदले या राजनीति? आजम पर 'मुलायम' क्यों नजर नहीं आते अखिलेश

सपा के मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले आजम खान मंगलवार को 23 महीने के बाद जेल से बाहर आए तो उनके स्वागत के लिए सपा का कोई बड़ा नेता नहीं पहुंचा. इस बात का मलाल आजम खान की बातों में दिखा. लेकिन सवाल यही है कि क्या अखिलेश यादव की राजनीति आजम को लेकर बदल गई है?

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आजम खान के साथ अखिलेश यादव की सियासी केमिस्ट्री(Photo-PTI)
आजम खान के साथ अखिलेश यादव की सियासी केमिस्ट्री(Photo-PTI)

उत्तर प्रदेश की सियासत में एक समय आजम खान की तूती बोला करती थी. समाजवादी पार्टी में आजम की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था. मुलायम सिंह यादव के आंखों के तारे माने जाने वाले आजम की सियासत अब पूरी तरह बदल गई, जब यूपी की सत्ता ने करवट ली और सपा की बागडोर अखिलेश यादव ने संभाली.

सपा के प्रमुख मुस्लिम चेहरे माने जाने वाले आजम खान मंगलवार को 23 महीने बाद सीतापुर जेल से जमानत पर रिहा होकर बाहर आ गए हैं. जिस समय आजम सीतापुर जेल से बाहर निकलकर अपनी गाड़ी में बैठे थे, उसी समय अखिलेश यादव लखनऊ में एक शोरूम का उद्घाटन करने में व्यस्त थे.

लखनऊ से सीतापुर की दूरी 88 किलोमीटर है, लेकिन आजम खान का स्वागत करने के लिए न तो सपा का कोई बड़ा नेता पहुंचा और न ही यादव परिवार का कोई सदस्य. इस बात का एहसास आजम खान ने महसूस किया और अखिलेश यादव का जिक्र आने पर उनकी चुप्पी कई सवाल खड़े कर रही है. क्या आजम को लेकर सपा की सियासत बदल गई है?

आजम खान के स्वागत में गर्मजोशी

आजम खान को जेल से रिसीव करने भले ही सपा का कोई बड़ा नेता नहीं दिखा, लेकिन पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उनका गर्मजोशी से स्वागत किया. 88 किलोमीटर दूर लखनऊ से अखिलेश ने संदेश दिया. अखिलेश ने कहा कि आजम खान जेल से रिहा हो गए हैं. हम समाजवादियों को विश्वास था कि न्यायालय जरूर न्याय करेगा. हमें उम्मीद है कि आने वाले समय में बीजेपी द्वारा कोई भी झूठा मुकदमा दर्ज नहीं किया जाएगा और कोई अन्याय नहीं होगा. सपा की सरकार बनने पर आजम खान के सभी केस वापस लिए जाएंगे.

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वहीं, सपा महासचिव शिवपाल सिंह यादव ने कहा कि बीजेपी सरकार ने आजम खान को गलत केस में फंसाया है, लेकिन कोर्ट ने उन्हें राहत दी है. इसके लिए हम कोर्ट का स्वागत करते हैं. उन पर सैकड़ों केस लगाए गए हैं, समाजवादी पार्टी उनकी पूरी मदद कर रही है और पार्टी उनके साथ खड़ी है. यही नहीं, सीतापुर जेल से लेकर रामपुर तक समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जगह-जगह आजम खान का गर्मजोशी से स्वागत किया. रामपुर तक आजम खान के समर्थक गाड़ियों के काफिले के साथ गए.

आजम खान से मुलायम परिवार की दूरी

आजम खान की जेल से रिहाई पर भले ही अखिलेश यादव सीतापुर नहीं पहुंचे, लेकिन उन्होंने न्याय की जीत बताई और कहा कि सपा की सरकार बनने पर आजम खान पर लगाए गए सभी केस वापस लिए जाएंगे. शिवपाल यादव ने आजम के समर्थन में बयान दिया और कहा कि सपा उनके साथ पूरी ताकत से खड़ी है. यह बात जब पत्रकारों ने आजम खान को बताई, तो वे सिर्फ मुस्कुराकर रह गए, लेकिन उनके लहजे से उनका दर्द बयां हो गया.

मीडिया ने जब उनसे पूछा कि आप सपा और मुस्लिमों के बड़े नेता हैं, तो आजम खान पहले मुस्कुराए और फिर कहा कि हम कोई बड़े नेता नहीं हैं. अगर बड़े नेता होते तो कोई बड़ा नेता लेने आता. बड़े को बड़ा लेने आता है और छोटे को कौन लेने आता है? आजम खान को जेल से बाहर रिसीव करने सपा की मुरादाबाद से सांसद रुचि वीरा पहुंची थीं, जिन्हें आजम खान का करीबी माना जाता है. ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या सपा ने ऐसा किसी रणनीति के चलते किया या फिर कोई मजबूरी है.

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आजम पर सपा की बदल रही सियासत

आजम खान सपा के उन चुनिंदा नेताओं में से हैं, जिन्होंने मुलायम सिंह यादव के साथ समाजवादी पार्टी की नींव रखी. सपा को राजनीतिक बुलंदी पर ले जाने में जितना मुलायम का योगदान था, उससे कम रोल आजम खान का नहीं था. यही वजह है कि मुलायम सिंह ने आजम खान को अपनी आंखों का तारा बनाकर रखा. जिनके सहारे सपा ने एम-वाई समीकरण बनाया, जिसके दम पर तीन बार मुलायम सिंह यादव सीएम बने, तो एक बार अखिलेश यादव सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हुए. लेकिन, आजम खान को लेकर अब सपा की राजनीति बदल गई है, खासकर अखिलेश यादव के हाथों में पार्टी की कमान आने के बाद.

2017 में योगी सरकार आने के बाद आजम खान पर कानूनी शिकंजा कसा और एक के बाद एक सौ से ज्यादा मुकदमे दर्ज हो गए. आजम खान को पहली बार 27 महीने और दूसरी बार 23 महीने जेल में रहना पड़ा. इन 50 महीनों में जेल में रहते हुए अखिलेश यादव सिर्फ दो बार आजम खान से मिलने जेल पहुंचे. आजम पर कानूनी शिकंजा कसा तो अखिलेश यादव प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सवाल उठाते रहे, लेकिन कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं कर सके.

संकट की घड़ी में आजम खान के साथ खुलकर अखिलेश यादव के खड़े नहीं होने के आरोप लगाए गए. जून के आखिर में सीतापुर जेल में आजम से मुलाकात के बाद उनकी पत्नी तंजीम फातिमा ने कहा था कि अब उन्हें सिर्फ 'अल्लाह पर भरोसा' है, उसके सिवा किसी पर भी नहीं. इससे उनकी नाराजगी साफ झलक रही थी.

अब जब आजम खान जेल से 23 महीने बाद बाहर निकल रहे थे, तो अखिलेश लखनऊ में शोरूम का उद्घाटन कर रहे थे. यही वजह थी कि आजम खान ने अखिलेश यादव का जिक्र आने पर खामोशी अख्तियार कर ली और कहा कि अगर वह बड़े नेता होते तो उन्हें रिसीव करने कोई बड़ा नेता आता.

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आजम पर अखिलेश 'मुलायम' क्यों नहीं?

सपा के एक बड़े नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि आजम खान का अखिलेश यादव पूरा सम्मान करते हैं, लेकिन अब राजनीतिक पैटर्न बदल गया है. इसके चलते सपा बहुत खुलकर उनके साथ खड़ी होती नहीं दिखना चाहती, क्योंकि इससे बीजेपी को धार्मिक ध्रुवीकरण करने का मौका मिल जाएगा. मुलायम सिंह यादव के दौर में आजम खान को सियासी अहमियत इसलिए भी मिलती थी, क्योंकि उस समय यादव-मुस्लिम समीकरण अहम हुआ करता था, लेकिन अब राजनीति बदल गई है.

एम-वाई समीकरण के सहारे अब चुनाव नहीं जीते जा सकते हैं, इस बात को समझते हुए अखिलेश ने अपनी राजनीति बदली है और पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) फॉर्मूला बनाया है. बीजेपी चाहती है कि सपा आजम खान के मुद्दे पर अधिक से अधिक एक्शन में दिखे, जिससे वह धार्मिक ध्रुवीकरण कर सके, क्योंकि आजम खान की छवि एक कट्टर मुस्लिम नेता की है. आजम के साथ खुलकर खड़े होने पर सपा को फायदे से ज्यादा नुकसान हो जाएगा.

सपा के रणनीतिकार भी मानते हैं कि आजम खान को सियासी तवज्जो देने से पार्टी के साथ जुड़ रहे दलित-ओबीसी मतदाता छिटक सकते हैं. सपा के पोस्टरों और बैनरों से भी धीरे-धीरे आजम खान बाहर हो गए. यही नहीं, आजम खान के जेल में रहते हुए सपा ने 37 सीटें जीत ली हैं और मुस्लिम वोट उनके साथ मुस्तैदी से खड़ा है. अखिलेश यादव भी बहुत फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं. जेल से बाहर आने के बाद अब्दुल्ला आजम और अब आजम से अखिलेश यादव मिलने नहीं गए या अखिलेश ने खुद ही उनसे दूरी बना रखी है.

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आजम खान और उनका कुनबा अब अखिलेश यादव के लिए लायबिलिटी बन चुका है. हालांकि, यह अनायास ही नहीं है. नगर निकायों के चुनाव में जब रामपुर में आजम के चुनाव प्रचार के बावजूद उनकी उम्मीदवार रामपुर नगरपालिका का चुनाव हार गईं, फिर लोकसभा चुनाव में मोहिबुल्लाह नदवी आजम खान के विरोध के बावजूद समाजवादी पार्टी के लिए लोकसभा की सीट जीत गए.

अखिलेश के लिए आजम का मामला अब केवल मुस्लिम सेंटीमेंट के सवाल से जुड़ा था, जिसके कारण आजम को सियासी तौर से नजरअंदाज करने में हिचक बनी हुई थी. 2024 के बाद यह हिचक दूर हो चुकी है, जिसकी वजह से सपा के बड़े नेताओं ने मंगलवार को आजम खान के स्वागत से दूरी बनाए रखी.

आजम से सपा कितनी दूर, कितनी पास?

आजम खान की रिहाई से रामपुर के साथ-साथ यूपी की सियासत पर असर पड़ना लाजिमी है. आजम खान के समर्थक 23 महीने से साइलेंट मोड में थे, लेकिन अब उनके जेल से बाहर आने के साथ एक्टिव हो गए हैं, लेकिन अभी तक जेल में रहकर जिस तरह से सपा पर प्रेशर पॉलिटिक्स का दांव चलते रहे हैं, अब बाहर आने के बाद रामपुर की राजनीति बदलेगी. उत्तर प्रदेश की मुस्लिम सियासत के सबसे कद्दावर नेताओं में आजम खान एक हैं, उनकी जैसी पकड़ किसी दूसरे नेता की नहीं मानी जाती. ऐसे में सपा उनके साथ खड़ी भी रहना चाहती है और दूरी बनाए भी रखती नजर आती है.

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मुस्लिम सियासत पर नजर रखने वाले मुफ्ती ओसामा नदवी कहते हैं कि सपा ने आजम खान को सियासी मझधार में छोड़ दिया है. आजम खान की अब सपा को जरूरत नहीं है, जिसके चलते ही अखिलेश यादव उनसे दूरी बनाए हुए हैं. सपा मुसलमानों का वोट चाहती है, लेकिन मुस्लिम लीडरशिप नहीं खड़ी करना चाहती है. अखिलेश बीजेपी के साथ मिलकर अपने परिवार को तो बचा लिया, लेकिन आजम को अकेला छोड़ दिया.

वह कहते हैं कि आजम खान का सिर्फ मामला नहीं है, बल्कि मुस्लिम समाज के साथ भी अखिलेश नहीं खड़े. न ही मुसलमानों के एनकाउंटर पर सवाल उठाते हैं और न ही मुस्लिमों के घर पर चलने वाले बुलडोजर एक्शन पर बोलते हैं. अखिलेश के राजनीतिक एजेंडे से आजम और मुसलमान दोनों ही बाहर हो चुके हैं. इस बात को मुस्लिम समाज को समझने की जरूरत है.

वहीं, सपा के विधायक अताउर्रहमान कहते हैं कि आजम खान के साथ सपा मजबूती के साथ खड़ी है. अखिलेश यादव हरसंभव उनकी मदद कर रहे हैं, कानूनी लड़ाई के लिए एक मजबूत टीम लगा रखी है और ऐलान किया है कि सरकार आने पर उन पर लगाए गए सभी मुकदमे खत्म किए जाएंगे. अखिलेश यादव के आजम खान से सियासी रिश्ते नहीं, बल्कि पारिवारिक और भावनात्मक संबंध हैं. इस बात को आजम खान का परिवार बखूबी समझता है.

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 अताउर्रहमान कहते हैं कि आजम खान का पूरा सम्मान और स्वागत दोनों ही सपा ने किया है. सीतापुर जेल से बाहर निकलने के बाद पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं ने जगह-जगह पर गर्मजोशी से उनका स्वागत किया है. इसीलिए यह कहना पूरी तरह गलत है कि सपा उनके साथ नहीं खड़ी है. हालांकि, यूपी की राजनीति अब बदल चुकी है. बीजेपी जिस धार्मिक ध्रुवीकरण का तानाबाना बुन रही है, उसे सपा समझ रही है और उनके किसी भी सियासी जाल में सपा फंसने वाली नहीं है. 2027 में सत्ता से बाहर करना ही सपा का लक्ष्य है. 

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