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ऐसा भी है एक मंदिर जहां देवी की पूजा होती है लाठियों से

उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में एक ऐसा मंदिर है जहां देवी के दर्शन करने के लिए चैत्र शुक्ल नवमी के दिन सैकड़ों श्रद्धालु तलवार भाले बल्लम लाठी आदि हथियार लेकर आते हैं और जबरन दर्शन कर प्रसाद लूटने का प्रयास करते हैं. सदियों पूर्व पडी परम्परा अब भी निभाई जाती है.

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उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में एक ऐसा मंदिर है जहां देवी के दर्शन करने के लिए चैत्र शुक्ल नवमी के दिन सैकड़ों श्रद्धालु तलवार भाले बल्लम लाठी आदि हथियार लेकर आते हैं और जबरन दर्शन कर प्रसाद लूटने का प्रयास करते हैं. सदियों पूर्व पडी परम्परा अब भी निभाई जाती है.

दिल्ली-आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर मथुरा से करीब 30 किमी दूर स्थित नरी सेमरी गांव के काली मंदिर में जमकर लाठियां चलती हैं. इस मंदिर की स्थापना का इतिहास भी बड़ा रोचक है.

इस मंदिर का निर्माण एक क्षत्रिय ने कराया और आज तक सेवापूजा भी उसके वंशज ही करते है जो आसपास के चार गांवों में बसे हुए है.

कहा जाता है कि आगरा का ध्यानू भगत नगरकोट स्थित देवी का बहुत बड़ा भक्त था. वह हर साल देवी के दर्शन करने के लिए वहां जाता था. देवी ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर कोई वरदान मांगने को कहा. उसने देवी को ही मांग लिया. देवी ने भी एक शर्त रख दी कि वह रास्ते भर पीछे मुड़कर नहीं देखेगा. अगर ऐसा किया तो देवी अंर्तध्‍यान हो जाएगी.

शर्त मानकर ध्यानू आगे-आगे और देवी पीछे-पीछे चलने लगीं. सेमरी गांव की सीमा में पहुंचकर स्वयं को आश्वस्त करने के लिए ध्यानू ने एक बार जो पीछे मुड़कर देखा तो देवी गायब हो गईं और उसे मायूस होकर खाली हाथ घर लौटना पड़ा.

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कुछ समय पश्चात सेमरी गांव के बाबा अजीत सिंह उर्फ अजीता को स्वप्न में भान हुआ कि मां माली की एक प्रतिमा गांव के बाहर अमुक स्थान पर दबी पड़ी है. उन्होंने उस स्थान की खुदाई कर देवी की उक्त प्रतिमा निकाली और संवत् 1313 में धूमधाम से उसकी स्थापना करा दी.{mospagebreak}ध्यानू भगत को जब यह समाचार मिला तो वह प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल तृतीया के दिन देवी की पूजा अर्चना करने के लिए वहां पहुंचने लगा. लोगों ने देखा कि जब वह मां की आरती करता है तो बड़े.बड़े थालों में रखे दीपकों की लौ आरपार हो जाने के बाद भी उन पर बिछाया गया कपड़ा नहीं जलता. धीरे-धीरे इस चमत्कार का समाचार लोगों में फैलता गया और श्रद्धालुओं की संख्या में प्रतिवर्ष सैकड़ा का इजाफा होता गया.

अब स्थिति यह हो जाती है कि उस दिन मंदिर में तो क्या पूरे मेला परिसर में पैर रखने के लिए जगह नसीब नहीं होती. नवमी के दिन लट्ठ पूजा के कारण आम श्रद्धालु आसपास तक नहीं फटकते. लट्ठ पूजा करने वाले लोगों के चले जाने के बाद ही वे पूजा करने आते हैं.

लट्ठ पूजा की परम्परा भी बड़े ही अजीबोगरीब अंदाल में चालू हुई. हुआ यह कि एक बार सूर्यवंशी ठाकुर मंदिर पर हमला कर देवी की प्रतिमा उठा ले गए. उनसे प्रतिमा वापस लाने में चंद्रवंशी होने के कारण नरी साखी रहेड़ा और अरवाई के ठाकुरों ने सेमरी नगला देवीसिंह नगला बिरजी और दद्दीगढ़ी के ठाकुरों की खासी मदद की.

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बस इसी बात पर वे लोग भी देवी की सेवा.पूजा पर अपना हक जताने लगे. चैत्र शुक्ल नवमी को होने वाली मुख्य पूजा में शामिल होने का उन्होंने कई बार प्रयास किया और उनका यही प्रयास परम्परा बन गया.

अब वे प्रतिवर्ष दोपहर से शाम तक एक.एक कर सेमरी गांव में स्थित मंदिर पर मय हथियारों के चढ़ाई करते है और लट्ठपूजा की परम्परा निभाकर चले जाते हैं.

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