राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय ‘देश के वयोवृद्ध व्यक्ति’ के नाम से चर्चित दादा भाई नौरोजी ने न केवल पहले भारतीय प्राफेसर बनने का गौरव हासिल किया बल्कि उन्होंने यह भी बताया कि ब्रिटिश शासन में भारत कैसे गरीब होता चला गया.
शिक्षा पूरी करने के बाद नौरोजी एलिफिंस्टन इंस्टीट्यूट में महज 27 वर्ष की अवस्था में गणित और प्राकृतिक दर्शन के प्रोफेसर बने थे. वह कालेज के प्राफेसर बनने वाले पहले भारतीय थे.
जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के इतिहासकार रिजवान कैसर के अनुसार नौरोजी के समक्ष स्वाधीनता का सवाल नहीं था, वह स्वयंशासन में विश्वास करते थे. वह ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत विधायिका, सरकारी महकमों आदि में भारतीयों की अधिकाधिक भागीदारी में विश्वास करते थे.
कैसर का कहना था कि नौरोजी वैचारिक रूप से नरमपंथी थे और 19 वीं सदी में पारसी समुदाय के एक शीर्ष नेता था.
नौरोजी का जन्म एक गरीब पारसी परिवार में चार सितंबर, 1825 को हुआ था. जब वह महज चार वर्ष के थे तब उनके पिता नौरोजी पालनजी दोरदी चल बसे लेकिन उनकी मां मानेक बाई ने कठिनाइयों के बावजूद उन्हें अंग्रेजी शिक्षा दिलाई. उन्होंने एलिफिंस्टन इंस्टीट्यूशन में पढ़ाई की और आगे चलकर प्रोफेसर बने.{mospagebreak}
नौरोजी 1852 में ही राजनीतिक मैदान में उतरे और उन्होंने 1853 में ईस्ट इंडिया कंपनी के लीज के नवीनीकरण का पुरजोर विरोध किया. उन्होंने इस संबंध ब्रिटिश सरकार को कई आवेदन भेजे लेकिन ब्रिटिश सरकार ने लीज का नवीनीकरण कर दिया.
नौरोजी ने भारत की समस्याओं के बारे में गवर्नरों और वायसराय को कई आवेदन लिखे. उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटिश जनता और संसद को भारत की पीड़ा से अगवत कराया जाना चाहिए और और वह 1855 में 30 वर्ष की अवस्था में इंग्लैंड चले गए.
इंग्लैंड में नौरोजी कई सुविज्ञ सोसायटियों से जुड़े और भारत की दुर्दशा पर भाषण दिए एवं लेख लिखे. उन्होंने पहली दिसंबर, 1866 को ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की स्थापना की जिसके सदस्य भारतीय मूल के उच्चाधिकारी और ब्रिटिश सांसदों तक पहुंच रखने वाले लोग थे.
स्वदेश लौटने पर वह 1874 में बड़ौदा के प्रधानमंत्री बने और 1885 से 88 तक मुम्बई विधानसभा के सदस्य रहे. उन्होंने ए ओ ह्यूम के साथ मिलकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में अहम भूमिका निभाई. वह 1886 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने.{mospagebreak}
दादा भाई नौरोजी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तीन बार-1886, 1893 और 1906 में अध्यक्ष रहे. नौरोजी ने 1891 में ‘पोवर्टी एंड अन ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ पुस्तक लिखी. वह एक बार फिर ब्रिटेन चले गए. वहां वह 1892 के आम चुनाव में लिबरल पार्टी की ओर से सांसद चुने गए.
नौराजी ब्रिटिश संसद में पहले भारतीय सांसद बने. जब उन्होंने बाइबिल पर हाथ रख कर सांसद पद की शपथ लने से इनकार कर दिया तब उन्हें खुर्दे अवेस्ता पर हाथ रखकर शपथ लेने की अनुमति मिली.
संसद में उन्होंने अपने भाषणों में भारत की दयनीय अवस्था के बारे में अपने विचार रखे. एक अन्य इतिहासवेत्ता महेश रंगराजन ने कहा कि इसी पुस्तक के माध्यम से नौरोजी ने ब्रिटिश सरकार की इस दलील को खारिज किया कि उसके शासन से भारत में विकास हो रहा है. उन्होंने भारत की स्थिति में बारे में ब्रिटेन में जनमत तैयार किया.{mospagebreak}
नौरोजी 1906 में फिर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने. नौरोजी हालांकि नरमपंथी नेता थे लेकिन उन्होंने पार्टी को नरमपंथियों और गरमपंथियों के बीच विभाजित होने से रोका. उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में पहली बार कांग्रेस की ‘स्वराज’ की मांग सार्वजनिक रूप से रखी. वह विरोध के अहिंसक और संवैधानिक तरीकों में विश्वास करते थे.
वह गोपाल कृष्ण गोखले और महात्मा गांधी के लिए पथप्रदर्शक रहे. रंगराजन के अनुसार महात्मा गांधी नौरोजी के विचारों से काफी प्रभावित थे जो उनके यंग इंडिया मैगजीन में दिखती है. नौरोजी 30 जून 1917 को चल बसे.