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चर्चा में इंफोसिस का ऑफिस बॉय... जो अब बन गया है CEO

इंफोसिस का एक ऑफिस बॉय इन दिनों चर्चा में है. क्योंकि, उसने अपने सपनों को ऐसी उड़ान दी कि अब खुद एक कंपनी का सीईओ बन बैठा है. एक ऑफिस बॉय से सीईओ बनने तक की इस शख्स की कहानी काफी दिलचस्प है. जानते हैं कौन है ये शख्सियत और कैसे अपनी जिंदगी में इतना बड़ा बदलाव ले आया.

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आईटी कंपनी में ऑफिस बॉय का काम करने वाले शख्स ने गांव में बैठकर ऐसे शुरू किया डिजाइनिंग स्टार्टअप (Photo - Instagram/@dadasaheb_bhagat)
आईटी कंपनी में ऑफिस बॉय का काम करने वाले शख्स ने गांव में बैठकर ऐसे शुरू किया डिजाइनिंग स्टार्टअप (Photo - Instagram/@dadasaheb_bhagat)

इंफोसिस के दफ्तर में काम करने वाला एक ऑफिस बॉय दूसरों को कंप्यूटर और लैपटॉप पर काम करता देख, इनके जैसा बनने का सपना देखने लगा. इस सपने को पूरा करने की राह में सबसे बड़ी बाधा इस शख्स की शिक्षा थी. क्योंकि उसने सिर्फ 10वीं तक ही पढ़ाई की थी. फिर भी उसने अपने जुनून को अकार देने की ठानी और आज वह एक कंपनी का सीईओ है.  

यहां बात हो रही है महाराष्ट्र के दादासाहेब भगत की, जिन्होंने सिर्फ 10वीं तक पढ़ाई की है. कभी वो इंफोसिस के दफ्तर में ऑफिस बॉय का काम करते थे. उन्होंने  4000 रुपये मंथली सैलरी से काम की शुरुआत की. आज वह एक डिजाइन टेम्पलेट कंपनी के संस्थापक और सीईओ हैं. एक ऑफिस बॉय से सीईओ बनने तक की इनकी कहानी काफी दिलचस्प है.   

सिर्फ 10वीं तक की है पढ़ाई
दादासाहेब भगत महाराष्ट्र के बीड के एक सूखाग्रस्त गांव से ताल्लुक रखते हैं. वह यहीं पले-बढ़े. यह एक ऐसा इलाका है, जहां सूखे जैसी स्थिति बन गई थी. इस वजह से वहां खेती करना मुश्किल था. उनके परिवार में शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जाती थी. उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई की और फिर आईटीआई का कोर्स किया. 

4000 रुपये महीने की नौकरी से की शुरुआत
बेहतर भविष्य की तलाश में वह पुणे चले गए.  वहां 4,000 रुपये मासिक वेतन पर काम करने लगे. कई मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक,  उन्हें इंफोसिस में ऑफिस बॉय की वैकेंसी का पता चला. वहां उन्हें 9,000 रुपये सैलरी की नौकरी मिल गई. यह सैलरी उनके वर्तमान वेतन से दोगुना था. इसलिए बिना कुछ सोचे उन्होंने वहां काम करना शुरू कर दिया. 

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इन्फोसिस का दफ्तर साबित हुआ टर्निंग प्वाइंट 
इन्फोसिस में , उनके रोजमर्रा के कामों में दफ्तर की साफ- सफाई, सामान लाना और कंपनी के गेस्टहाउस में काम निपटाना शामिल था. यह काम थका देने वाला था. फिर उन्होंने आरामदायक दफ़्तर में कंप्यूटर पर काम करने वाले लोगों को देखा. इस काम ने उन्हें प्रभावित किया. क्योंकि यहां शारीरिक श्रम नहीं करनी पड़ती थी और पैसे भी अच्छे मिलते थे. 

यहां मिली कंप्यूटर पर काम करने की प्रेरणा 
दादासाहेब यह जानने के लिए काफी उत्सुक हो गए कि ऐसा काम कैसे मिल सकता है. उन्होंने कुछ इंप्लाइज से बात की. तब उन्हें पता चला कि कंप्यूटर पर काम करने के लिए आमतौर पर अच्छी और टेक्निकल डिग्री की जरूरत होती है. वहीं कुछ लोगों ने बताया कि अच्छी एकेडमिक डिग्री नहीं भी है तो ग्राफिक डिजाइन और एनीमेशन जैसे टेक्निकल कोर्स करने के बाद भी कंप्यूटर पर सिर्फ दिमाग लगाने वाला काम मिल सकता है. 

क्योंकि  रचनात्मक क्षेत्र में ऐसे कोर्स में महारथ हासिल करने वाले और अपने काम में परफेक्ट लोगों को वरीयता मिलती है. फिर क्या था. इस जानकारी ने दादा साहेब को अपने स्कूल के दिनों की याद दिला दी. जब उसके माता-पिता घर से दूर काम करते थे, तो भगत एक मंदिर के चित्रकार के बगल वाले बोर्डिंग स्कूल में रहता था.

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जब आई पुराने जुनून की याद
उस चित्रकार को काम करते देखकर, उसके मन में चित्रकारी के प्रति प्रेम पैदा हो गया थ. तब उनमें चित्रकारी को लेकर भी जुनून पैदा हुआ था, जिसे बाद के वर्षों में वह भूल गए थे. अब उन्हें वह पुराना जुनून फिर से याद आ गया. कुछ कर दिखाने के कमिटमेंट के साथ दादासाहेब ने दिन में ग्राफिक्स डिजाइन सीखते हुए, रात में ऑफिस बॉय की नौकरी जारी रखी.

एक साल के अंदर ही, उन्होंने खुद को एक सफाईकर्मी से एक पेशेवर डिजाइनर में बदल लिया. अब वह कंप्यूटर साफ करने के बजाय उनके साथ काम करने लगे थे. अब कॉर्पोरेट नौकरी के पीछे भागने के बजाय, भगत ने अपना रास्ता खुद बनाने का फैसला किया.

ऐसे बन गए फ्रीलांस डिजाइनर
उन्होंने एक डिजाइनर के रूप में फ्रीलांसिंग शुरू की और बाद में अपनी खुद की डिजाइन कंपनी शुरू की. लेकिन सफलता रातोंरात नहीं मिली. उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. इसमें  आर्थिक चुनौती, सीमित संसाधन और दूसरों के संदेह  शामिल थे. 

इन सबके बाद कोविड-19 महामारी आ गई. इस वजह से उन्हें  पुणे में अपना डिजाइनिंग का काम बंद करके अपने गांव लौटना पड़ा. गांव आने पर भी उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने इसे एक अवसर के रूप में देखा. गांव में जीवन सरल और सस्ता था, लेकिन अक्सर बिजली गुल रहती थी और इंटरनेट कनेक्टिविटी भी खराब थी.

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गांव से शुरू हुई एक स्टार्टअप की कहानी
भगत और उनकी टीम ने इसका एक रचनात्मक समाधान निकाला. उन्होंने पास की एक पहाड़ी पर, एक गौशाला के पास, एक छोटा सा ऑफिस बनाया. यहां मोबाइल सिग्नल ज़्यादा तेज था. इन्हीं साधारण संसाधनों से डिजाइन टेम्प्लेट का जन्म हुआ. छोटे स्तर पर ही सही लेकिन उन्होंने एक ऐसा स्टार्टअप तैयार किया यह एक ऐसा प्लेटफ़ॉर्म है जो डिजाइनरों और व्यवसायों के लिए रेडी टू यूज टेम्प्लेट उपलब्ध कराता है.

पीएम भी कर चुके हैं तारीफ
इस ग्रामीण परिवेश से काम करते हुए, भगत ने स्थानीय युवाओं को ग्राफिक डिजाइन का प्रशिक्षण देना शुरू किया और उन्हें डिजिटल स्किल विकसित करने में मदद की. उनकी इनोवेटिव  सोच ने जल्द ही मीडिया का ध्यान आकर्षित किया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी ध्यान भी खींचा. पीएम ने मेक इन इंडिया पहल को मूर्त रूप देने के लिए उनकी प्रशंसा की.

शार्क टैंक तक पहुंची कहानी
जैसे-जैसे डिज़ाइन टेम्प्लेट का विस्तार हुआ, भगत की सफलता की कहानी दूर-दूर तक पहुंचने लगी. इस उपलब्धि ने उन्हें शार्क टैंक इंडिया तक पहुंचा दिया. शो में, उन्होंने boAt के संस्थापक और CMO अमन गुप्ता के साथ एक सौदा किया. इसमें उन्होंने अपनी कंपनी में 10 प्रतिशत इक्विटी ₹ 1 करोड़ में बेची.

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इंडियनएक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में दादा साहेब ने बताया था कि यह बहुत ही रोमांचक था. इसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी. मैं अंदर गया, मैंने बोलना शुरू किया, लेकिन पहले दो वाक्यों के बाद ही मेरा दिमाग खाली हो गया. फिर मुझे पानी दिया गया और कहा गया कि बिना किसी फॉर्मलिटी के मैं अपना प्रेजेंटेशन दूं. मुझे फिर से सामान्य होने में लगभग 10 मिनट लगे.

कंपनी का नाम है डिजाइन टेम्पलेट 
आज, दादा साहेब का डिजाइन टेम्प्लेट कैनवा जैसे अंतरराष्ट्रीय डिजाइन प्लेटफॉर्म के साथ प्रतिस्पर्धा करता है और भारतीय यूजर्स के अनुकूल क्रिएटिव ऑप्शंस उपलब्ध कराता है. भगत का लक्ष्य स्थानीय क्रिएटर्स, छात्रों और छोटे व्यवसायों को सशक्त बनाने वाले उत्पाद बनाकर भारत को डिजिटल डिज़ाइन में आत्मनिर्भर बनाना है.

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