इस निराश-हताश देश में भी अमेरिकियों के गुआंतानामो बंदी शिविर जैसी चीज हो, यह क्या कोई भी चाहेगा? इसका जिक्र भर उदारवादी लानतों का तूफान खड़ा कर सकता है. लेकिन जॉर्ज बुश के नैतिक क्रोधोन्माद का यह प्रतीक आज भी, बराक ओबामा के बावजूद वजूद में बना हुआ है.
भारतीय गिटमो का विचार मात्र किसी दक्षिणपंथी युद्धोन्माद की फंतासी हो सकती है या उन लोगों के क्रोध की अभिव्यक्ति जो यह मानते हैं कि भारत राज्य-व्यवस्था के शत्रुओं-सिद्धांत की किताबें उठाए स्वतंत्रता सेनानियों से लेकर बंदूक लहराने वाले क्रांतिकारियों तक-की सबसे सुरक्षित और सबसे माकूल पनाहगाह है. वैसे, जिस देश को हत्यारों के वजूद का एहसास कराने के लिए 9/11 जैसे कांड की जरूरत नहीं पड़ी है, वहां गिटमो का महिमागान बहुत अस्वाभाविक नहीं लगता.
हम इससे गुजरते रहे हैं. अगर यह जीवन भारत को असहनीय नहीं लगता तो इसकी वजह यह है कि हमारे भीतर निर्लिप्तता का जो राष्ट्रीय गुण है, उसके कारण हम उन लोगों के प्रति इतने सहज हो चुके हैं जो स्वतंत्रता के खिलाफ युद्ध करने के लिए यहां की स्वतंत्रता का भरपूर इस्तेमाल करते हैं. इन्हें उस गुआंतानामो का आदर्श उम्मीदवार माना जा सकता है जो हमारे यहां नहीं है.
ये सब उतने ही आजाद हैं जितने सैयद अली शाह गिलानी, जो टोटमी भारत विरोधी हैं. तमाम व्यावहारिक-या इसे हम भविष्य सूचक भी कह सकते हैं?-कारणों से यह बुजुर्ग शख्स घाटी का अयातुल्लाह बन गया है, भले ही उसकी सफेद दाढ़ी ईरान के मूल अयातुल्लाह की दाढ़ी जितनी लहरदार न हो. {mospagebreak}
उनकी राष्ट्रीयता भले ही भारतीय हो, जो एक तकनीकी जरूरत है, लेकिन उनकी आजादी की लड़ाई के व्यापक दायरे में यह एक भौगोलिक अभिशाप और इतिहास संबंधी विपदा है. वे भारत शब्द का उच्चारण इस तरह करते हैं जैसे वह एक विदेशी शैतान हो जो बंधनों में बंधी उनकी आस्था का दुश्मन हो. उनके बयानों और साक्षात्कारों पर सरसरी नजर डालने से यह साफ हो जाता है कि वे भारत से कितनी नफरत करते हैं, जिसे वे एक काबिज ताकत मानते हैं और यह दमन करने वाले के खिलाफ लोगों को वे किस हद तक आंदोलित कर सकते हैं.
पवित्रता को अपमानित करने की खबर पर जिहाद शुरू करने की खुमैनीवादी परंपरा का पालन करते हुए वे अमेरिका में हुए कुख्यात 9/11 कांड की नौवीं बरसी पर कुरान को जलाए जाने की अफवाह का बहाना बनाकर अरक्षित काफिरों के खिलाफ इस्लामी आक्रोश को भड़का डालते हैं. भारत विरोधी आंदोलन के संरक्षक गुरु के तौर पर वे घाटी में पत्थरबाजी पर आमादा, शहादत ओढ़ने की ख्वाहिश रखने वाले आ.जादी के लड़ाकों के दिमागों को संचालित करते हैं.
हम उन्हें बागी, अलगाववादी, कहते हैं. हम उन्हें आतंकवादी क्यों नहीं कह सकते? और उनके साथ वैसा ही आचरण क्यों नहीं कर सकते? क्या इसलिए कि कश्मीर की जनता को शांत करने की अपनी कोशिशों, सर्वदलीय बैठकों की अपनी जद्दोजहद के मद्देनजर सरकार को उनकी जरूरत है? या क्या इसलिए कि उन्होंने भारत-काबिज ताकत-को सौदे पर मजबूर कर दिया है और उसकी सेनाओं-जो इस गणतंत्र की उन चंद चीजों में शुमार है जिनका राजनीतिकरण नहीं हुआ है-को इस सौदे का एक मुद्दा बना दिया है? इन सवालों के जवाब से इस शख्स के बारे में नया कुछ सामने नहीं आएगा जिसने भारत के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है और जिसके लिए हथियार उस स्वतंत्रता से मुहैया होते हैं जो उन्हें भारत का एक नागरिक होने के नाते उपलब्ध है. किसी भी दूसरे आतंकवादी की तरह वे एकआयामी हैं.{mospagebreak}
बहरहाल, उपरोक्त सवालों के जवाब भारत के बारे में बेशक काफी कुछ उजागर करते हैं, जो राजनीतिक औचित्य के आत्मघाती दुश्चक्र में उलझ हुआ है. यही वजह है कि वह गिलानी की मुहिम के असली पाठ को नहीं पढ़ पाता.
यह मान बैठना कि अपने ही देश के खिलाफ उनकी जंग के साथ कोई धार्मिक विशेषण नहीं जुड़ा है, कि पैसा-या मान लें विकास-पवित्र ग्रंथ से ह्ढेरित आजादी के लड़ाके के दिमाग को जीत सकता है, अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी से बचना होगा और रियायत के जरिये अमन हासिल करने के छलावे की शरण लेना होगा. और उन महाशय को तो एक ही रियायत चाहिए-औपनिवेशिक ताकत से कश्मीर की आ.जादी. उनकी मांग है-आत्मनिर्णय का अधिकार. इतिहास हमें कुछ और संकेत देता है-ऐसे विवादों का फैसला विशिष्टतावादी के हाथों होता है.
भारतीय लोकतंत्र की एक सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसमें इतिहास से बाहर जीवित रहने की आश्चर्यजनक क्षमता है. यही वजह है कि हम असली मुद्दे की बार-बार अनदेखी कर जाते हैं, हालांकि जिस शख्स को कायदे से देश के ‘तलाशशुदाओं' की सूची में शामिल होना चाहिए वह कुछ नहीं अनदेखी करता. उसके उकसावे से सड़कों पर बवाल मच जाता है, हिंसा के आंकड़े ऊपर चढ़ने लगते हैं, आजादी और जिहाद में पूरा तालमेल हो जाता है. {mospagebreak}
वे एजेंडा तय करते हैं और नई दिल्ली उसका संज्ञान लेती है. अगर 9/11 के बाद आतंकवाद अपनी ताकत भय के दोहन और आस्था के नकारवाद से हासिल करता है, तो गिलानी को आज सबसे आसक्त और कारगर आतंकवादी माना जा सकता है. और सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि जो उनका शिकार है, वही उनके प्रति आसक्त है.
या हो सकता है कि यह बहुत आश्चर्यजनक बात न हो, अगर हम यह देखें कि आतंक का न्यूनतम राष्ट्रहित में उपयोग करने और अधिकतम राजनीतिक दोहन करने में भारत का रिकॉर्ड कैसा रहा है. गिलानी को जो आजादी हासिल है उसकी तुलना तथाकथित माओवादियों को हासिल विशेषाधिकारों से की जा सकती है जिनके खून-खराबे-खासकर जनजातीय इलाकों में-ने भारत को रक्षात्मक मुद्रा अपनाने को मजबूर कर दिया है.
उनके मामले में भी विकास के उसी उबाऊ तर्क ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले को खोखले सामाजिक नारे में बदलकर रख दिया है. यहां भी जो लोग गांवों के परिवेश को बचाने की खातिर गणतंत्र को चुनौती दे रहे हैं उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है मानो हमारे राष्ट्रीय विकास ने उन्हें अनाथों की श्रेणी में धकेल दिया है.{mospagebreak} घाटी में जो खुदा है उसी की तरह जंगल के खुदा को भी अपने दुश्मन के खिलाफ लड़ाई जारी रखने के लिए जरूरत है उस सांप्रदायिक-से उन्माद की जो वंचित किए जाने के एहसास से पैदा होता है. फिर भी, हम कुछ ऐसे कांग्रेसी नेताओं का हॉरर शो देखने को अभिशप्त हैं जिनकी सामाजिक अंतरात्मा बंद मानसिकता से ग्रस्त है. उन्हें देश गंवाना तो गवारा हो सकता है, चुनाव गंवाना नहीं.
अब वे आतंकवाद का रंग तय करने में जुटे हैं ताकि यह राजनीतिक तौर पर द्गयादा मुफीद हो. यह तो निश्चित ही है कि जब पीड़ित से द्गयादा हमलावर राजनीतिक अहमयित रखता हो तब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि पीड़ित सैनिक है या आम नागरिक, आतंक का समान बंटवारा राजनीतिक जरूरत बन जाती है.
यही वजह है कि ''भगवा'' आतंकवाद अचानक आतंकवाद का जवाब बन जाता है. यह इतना आसन्न आतंक है जिसके धार्मिक रंग का जिक्र करने से हम बुरी तरह कतराते हैं क्योंकि कहीं यह उन लोगों की संवेदना को आहत न कर दे जो इस घिसी-पिटी बकवास का ढोल पीटते रहते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता.
बेशक इसका एक धर्म है, और इसका अनुमोदन हम केवल घिसे हुए वीडियो टेपों में ही नहीं देखते हैं. इन अनुमोदनों को हमने अलग-अलग नाटकीय अंदाजों में न्यूयॉर्क और लंदन में, बाली और मैड्रिड में, मुंबई और जयपुर में, दिल्ली और अहमदाबाद में देखा. हम इन्हें कश्मीर की सड़कों पर भयावह तरीके से निरंतर दोहराया जाता देखते रहते हैं. कट्टरपंथी इस्लामवाद के वैश्विक उभार और सीमाओं को अतिक्रमित करने वाले उसके मंसूबों, और भारत को उनके पुराने भुक्तभोगी के तौर पर देखने के लिए हमें हिंदुत्व के उन्मादी रूपों या मालेगांव जैसी इक्का-दुक्का घटनाओं को जायज ठहराने या उन्हें माफ करने की जरूरत नहीं है.
आतंकवाद का अध्ययन अगर राजनीतिक चश्मे से किया जाएगा तो वह गिलानियों और माओवादियों को और सुरक्षा ही प्रदान करेगा और भारत को और कमजोर ही करेगा. आतंकवाद से पीड़ित भारत जैसा दुर्भाग्यशाली कोई भी देश नहीं होगा जिसे वही लोग कमजोर कर रहे हैं जिन्हें उसकी रक्षा करने की संवैधानिक जिम्मेदारी सौंपी गई है.