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देवी लक्ष्मी के भाई कैसे बने असुरों के गुरु? कृष्ण ने भी गीता में खुद को कहा है शुक्राचार्य, अक्षय खन्ना निभाएंगे किरदार

अक्षय खन्ना अपनी आगामी फिल्म 'महाकाली' में असुर गुरु शुक्राचार्य का किरदार निभा रहे हैं, जो पौराणिक कथाओं में एक महत्वपूर्ण लेकिन अक्सर गलत समझे गए पात्र हैं. शुक्राचार्य को टीवी और फिल्मों में निगेटिव रूप में दिखाया गया है, लेकिन उनकी असली छवि और महत्व इससे कहीं अधिक गहरा है.

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अक्षय खन्ना 'महाकाली' फिल्म में असुर गुरु शुक्राचार्य के किरदार में नजर आएंगे.
अक्षय खन्ना 'महाकाली' फिल्म में असुर गुरु शुक्राचार्य के किरदार में नजर आएंगे.

बॉलीवुड एक्टर अक्षय खन्ना अपनी अपकमिंग फिल्म 'महाकाली' में एक दिलचस्प पौराणिक किरदार निभाने वाले हैं. फिल्म का जो फर्स्ट लुक पोस्टर सामने आया है, अक्षय खन्ना उसमें सफेद कपड़े पहने (धोती और अंगवस्त्रम) लंबी सफेद दाढ़ी और सिर पर जटा वाले लुक में नजर आ रहे हैं. उनकी एक आंख अलग ही चमक रही है. इस डीटेलिंग के अनुसार अक्षय खन्ना असुर गुरु शुक्राचार्य का किरदार निभाने वाले हैं. शुक्राचार्य एक आंख फूट गई थी, जिसके कारण उन्हें एकाक्ष भी कहा जाता है.

टीवी सीरियल्स में शुक्राचार्य को दिखाया गया है निगेटिव
टीवी सीरियल्स, फिल्मों आदि में शुक्राचार्य का किरदार सिर्फ इतने तक सीमित रहा है कि वह असुर गुरु थे. इस वजह से शुक्राचार्य के किरदार को एक तरीके से विलेन की तरह ही प्रेजेंट किया गया है. उनकी भाव-भंगिमाएं डरावनी, कुटिल हंसी, आसुरी प्रवृत्ति उनके किरदार के चरित्र का हिस्सा रही है.

लेकिन, जितना दिखाया और बताया गया है, या जो भी तथ्य के रूप में हमारे सामने है, शुक्राचार्य उतने निगेटिव नहीं हैं. उनकी छवि का नकारात्मक पक्ष असुरों का गुरु होना है और असुर संस्कृति को भी निगेटिव ही समझा जाता है, लिहाजा शुक्राचार्य भी निगेटिव होते चले गए. असुर का अर्थ है कि जो सुर यानी देवता न हो. इस तरह गंधर्व, यक्ष, नाग, किन्नर और खुद मनुष्य भी असुर हो जाते हैं, क्योंकि ये सभी देवता नहीं हैं.

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शुक्राचार्य की महानता और उनके महत्व का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि जब गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि वह असल में कौन हैं किन-किन रूपों में हैं तो एक जगह वह कहते हैं कि कवियों में मैं शुक्राचार्य हूं.

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनजय: ।
मुनीनामप्यहं व्यास: कवीनामुशना कवि: ।।37।।

कृष्ण कहते हैं कि वृष्णिवंशियों में वासुदेव अर्थात् मैं स्वयं तेरा सखा, पांडवों में धनंजय अर्थात् तू, मुनियों में वेदव्यास और कवियों में शुक्राचार्य कवि भी मैं ही हूं ।।37।।

शुक्राचार्य को भार्गव शुक्राचार्य कहा गया है. यानी वह भृगुवंशी थे. वह उन्हीं महर्षि भृगु के पुत्र थे, जिन्होंने एक समय त्रिदेवों की परीक्षा ली थी. इस परीक्षा के दौरान उन्होंने भगवान विष्णु की छाती पर लात मार दी थी, तबसे भगवान विष्णु भृगुपद छाप को अपने हृदय पर आभूषण की तरह धारण करते हैं. इसी घटना के बाद देवी लक्ष्मी ने सभी ब्राह्नणों को रंक हो जाने और लक्ष्मीहीन हो जाने का श्राप दिया था. तब इस श्राप की काट के लिए महर्षि भृगु ने देवी लक्ष्मी से ही अपनी पुत्री के रूप में जन्म लेने का वरदान मांग लिया था. आज तिरुपति में भगवान वेंकटेश की पत्नी के रूप में भृगु की पुत्री भार्गवी की ही पूजा होती है.

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देवी लक्ष्मी के भाई भी हैं शुक्राचार्य
विष्णु के छठें अवतार के रूप में भगवान परशुराम का जन्म भी भृगुवंश में ही हुआ था. इसलिए उन्हें भी भार्गव परशुराम कहा जाता था. सीता स्वयंवर में वह भृगुपद की छाप ही श्रीराम के हृदय पर देख लेते हैं, तब उन्हें राम अवतार का ज्ञान हो पाता है. भृगु ऋषि की पुत्री होने के कारण देवी लक्ष्मी शुक्राचार्य की बड़ी बहन भी हैं. शुक्राचार्य को शिवजी की विशेष कृपा भी मिली थी, लेकिन इतना सब होने के बावजूद वह पक्षपात के शिकार हुए और उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे.

कहते हैं कि ब्रह्मा के कुल में ही जन्म लेने वाले ऋषि अंगिरस के दो शिष्य थे. कवि उशानां और जीव. जीव असल में अंगिरस के ही पुत्र थे. कवि, जीव से ज्यादा प्रतिभाशाली और विद्वान थे. इससे अंगिरस ऋषि ने अपने पुत्र को आगे बढ़ाने के लिए किसी बहाने से कवि को आश्रम से निकाल दिया. कवि के हृदय को इससे बहुत चोट पहुंची और इस व्यवहार के कारण उसके भीतर भी असंतोष और ईर्ष्या ने घर बना लिया.

यही कवि आगे चलकर शुक्राचार्य बने और जीव ने ब्राह्स्पत्य ग्रंथ लिखकर बृहस्पति उपाधि का नाम धारण किया. बृहस्पति देवताओं के गुरु बने.  

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विष्णुद्रोही के रूप में भी जाने जाते हैं शुक्राचार्य
शुक्राचार्य का जिक्र विष्णुद्रोही के रूप में अधिक होता है. इसकी वजह है कि भगवान विष्णु ने बृहस्पति का देवगुरु के रूप में समर्थन किया था. इसे शुक्राचार्य ने अपना अपमान समझा. उन्होंने असुरों के सही मार्गदर्शन की बात की. उनका कहना था कि अगर बृहस्पति एक योग्य गुरु हैं तो उनके ज्ञान का लाभ सिर्फ देवताओं को क्यों मिले? वह सभी के गुरु क्यों नहीं बनते. वह असुरों को भी अपना शिष्य बनाकर उन्हें भी सही मार्ग पर ले आएं. इस तरह शुक्राचार्य लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुरोधा भी माने जाते हैं.

शुक्राचार्य बार-बार अपनी जिद पर अड़े रहे और ग्रह मंडल की बैठक बाधित करते रहे. तब उन्हें असुरों का गुरु घोषित कर दिया गया. इस तरह वह असुर गुरु शुक्राचार्य हो गए और उनका विष्णु विद्रोह खुलकर सामने आ गया. गुरु शुक्राचार्य ने असुरों को युद्ध, राजनीति और शस्त्रों की कुशलताएं सिखाईं. महाकाव्य महाभारत में उल्लेख है कि शुक्राचार्य ने अनेक मंत्र, रस और औषधियां बनाईं, जिन्हें उन्होंने अपने शिष्यों को सौंप दिया. वह आयुर्वेद और ज्योतिष के भी ज्ञाता थे.

एक बार भगवान विष्णुने देवासुर संग्राम में देवताओं की तरफ से युद्ध में भाग लिया. तब बचे हुए असुर भागकर महर्षि भृगु के आश्रम में जा छिपे. ऋषि भृगु और शुक्राचार्य वहां मौजूद नहीं थे. इसके बजाय, देवी काव्यमाता वहां थीं. इसलिए, असुरों ने उनसे अपनी रक्षा करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने अतिथि धर्म के रूप में स्वीकार कर लिया. ऋषिपत्नी के एक शक्तिशाली अदृश्य ऊर्जा कवच ने आश्रम को घेर लिया और असुरों की रक्षा की. इस कवच को देवता भी भेद नहीं सके.

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सभी देवताओं के प्रयास विफल हो गए. फिर वे भगवान विष्णु के पास मदद के लिए गए. ब्रह्मांड के संतुलन को बनाए रखने के लिए, भगवान विष्णु ने भृगु ऋषि की पत्नी काव्यमाता का सिर काट दिया. जब भृगु ऋषि को इस घटना का पता चला, तो उन्होंने विष्णु को पृथ्वी पर मानव के रूप में जन्म लेने और अपनी पत्नी से अलगाव का दर्द सहने का श्राप दिया. जब शुक्राचार्य को अपनी माता की मृत्यु का पता चला, तबसे वह भगवान विष्णु से घृणा करने लगे और असुरों के बीच विष्णुपूजा को प्रतिबंधित कर दिया. इस तरह शुक्राचार्य असुरों के समर्थक हो गए और उन्होंने उनका गुरु बनकर असुरों का मार्गदर्शन किया. 

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