जाति की राजनीति पर उत्तर प्रदेश में आंशिक ग्रहण लग गया है. आंशिक इसलिए, क्योंकि कुछ शर्तें लागू हैं. और, कुछ मामलों में छूट भी दी गई है. राज्य में जातीय आधार पर राजनीतिक रैलियों पर तो पूरी तरह रोक लगा दी गई है. समाज में, और सोशल मीडिया पर जातिगत प्रदर्शन करने की भी अब मनाही है, और पुलिस की कानूनी कार्यवाही में भी कई तरह की पाबंदियां लागू होने जा रही हैं.
यूपी सरकार का ये फरमान इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश के अनुपालन में आया है . ये आदेश ऐसे वक्त लागू किया गया है जब पंचायत चुनाव होने वाले हैं. सभी राजनीतिक दल 2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं - और केंद्र सरकार ने अगली राष्ट्रीय जनगणना के साथ ही कास्ट सेंसस कराने की भी घोषणा कर रखी है.
अपने आदेश में हाई कोर्ट ने कहा है अगर देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाना है तो जाति व्यवस्था को खत्म करना होगा. और, आधुनिक समय में जब पहचान के लिए तकनीकी साधन उपलब्ध हैं, जाति का इस्तेमाल करना समाज को बांटने वाला काम है.
सभी मामलों में तो नहीं, लेकिन यूपी में राजनीति करने वालों के लिए ये चुनावी तैयारियों के सारे समीकरण खराब कर देने वाला है - अपनी जाति की बदौलत सत्ता और विपक्ष की राजनीति करने वाले नेताओं के लिए तो अब सोशल इंजीनियरिंग सबसे मुश्किल टास्क हो जाएगा.
सरकारी आदेश का यूपी की राजनीति पर असर क्या होगा
उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जातियों के जिक्र के बगैर राजनीति भला कैसे हो पाएगी? ये मुश्किल सवाल सभी के सामने खड़ा हो गया है, लेकिन राजनीति में रास्ते तो निकल ही आते हैं. किसे कितना फायदा होगा, और किसे कितना नुकसान ये बात अलग है.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बात बात पर चैलेंज करने वाले चाहे वो अखिलेश यादव हों, या मायावती और उनकी ही लाइन पर दलित राजनीति करते हुए नगीना लोकसभा सीट से संसद पहुंचे चंद्रशेखर आजाद, सभी अपनी जाति के बूते ही राजनीति में आए, खड़े हुए और जमे हुए हैं.
नई व्यवस्था में चंद्रशेखर आजाद जैसे नेता के लिए आगे से अपनी पुरानी टैगलाइन ‘द ग्रेट चमार’ दोहराना संभव नहीं हो पाएगा. क्योंकि, हाई कोर्ट ने जातीय गौरव वाले संकेत और शब्दों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर भी पाबंदी लगा दी है, लिहाजा यूपी सरकार ने भी वो व्यवस्था लागू कर दी है.
आदेश में जातियों के नाम पर रैलियां करने पर भी रोक लगा दी गई है. कोई भी राजनीतिक दल या संगठन ऐसी रैली नहीं कर सकेगा जिसका आधार जाति हो - लेकिन, क्या ऐसा संभव है?
2022 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले मायावती ने पूरे उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण सम्मेलन कराए थे, लेकिन चुनाव आयोग की आपत्ति से बचने के लिए नाम बदल दिया गया था - प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन. लिखा-पढ़ी में कहीं भी ब्राह्मण शब्द का जिक्र नहीं था, लेकिन सतीश चंद्र मिश्रा तो ब्राह्मण मेहमानों को ही होस्ट कर रहे थे.
ब्राह्मण और दलितों की सोशल इंजीनियरिंग करके ही मायावती ने 2007 में बीएसपी की सरकार बना ली थी, लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले ब्राह्मण सम्मेलन कराने के बावजूद महज एक उम्मीदवार ही विधायक बन पाया. बलिया की रसड़ा विधानसभा से एकमात्र बीएसपी विधायक उमाशंकर सिंह वो चुनाव भी अपने दम पर जीते थे.
ये आदेश ऐसे वक्त आया है, जब यूपी में पंचायत चुनावी की तारीख का इंतजार है. पंचायत स्तर पर तो राजनीति ज्यादातर जाति के आधार पर ही होती है. जिस जाति का वोट ज्यादा, उस कास्ट के उम्मीदवार की जीत भी पहले से ही पक्की होती है. विधानसभा और लोकसभा चुनावों में जाति जीत पक्की न भी कर पाए, लेकिन निर्णायक तो होती ही है. अगर एकजुट वोट पड़ा तो जीत, वरना बंट गया तो हार.
मायावती के लिए तो चुनावों में अब दलित की बेटी बोलना भी संभव नहीं हो पाएगा, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती तो समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के लिए हो सकती है. अखिलेश यादव ने तो पीडीए फॉर्मूला खोजा है, जिसे वो 2024 के लोकसभा चुनाव में आजमा भी चुके हैं.
अखिलेश यादव अगले चुनाव में जीत के लिए भी पीडीए को ही मजबूत करने में लगे हैं. हालांकि, पीडीए में पिछड़े और दलित जातियों के साथ धर्म भी है, अल्पसंख्यक. मुश्किल तो होगी ही. लेकिन, राजनीति में रास्ते तो निकल ही आते हैं. जैसे मायावती ने सम्मेलन के लिए निकाला था.
कहने को कांग्रेस तो धर्म निरपेक्ष राजनीति का दावा करती है, और समाज के सभी वर्गों के लिए बराबरी की बात करती है, लेकिन जातीय जनगणना की मुहिम तो राहुल गांधी भी चला रहे थे. अब थोड़े नरम जरूर पड़ गए हैं. वरना, बीते दिनों कई बार तो माफी भी मांग रहे थे, पिछड़ों के लिए कांग्रेस के कुछ न कर पाने के लिए.
और, ठाकुरवाद के आरोप तो योगी आदित्यनाथ के राजनीतिक विरोधी भी उन पर लगाते हैं. लेकिन, वो तो नई व्यवस्था में भी अप्रभावित रहेगा - क्योंकि, वो कोई सार्वजनिक घोषणा या कागजी कार्यवाही का हिस्सा तो है नहीं. अब तो सार्वजनिक तौर पर ऐसे आरोप लगाना भी मुश्किल होगा.
आदेश के बाद क्या क्या बदल जाएगा
1. पुलिस FIR, अरेस्ट मेमो और चार्जशीट जैसे दस्तावेजों से जाति का कहीं भी जिक्र नहीं किया जा सकेगा. आरोपी की पहचान के लिए पिता के साथ मां का नाम भी लिखा जाएगा.
2. NCRB यानी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो क्राइम क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम में जाति वाला कॉलम खाली छोड़ा जाएगा. ये कॉलम को डिलीट करने के लिए एनसीआरबी को पत्र लिखा जाएगा.
3. सरकारी नोटिस बोर्ड और सार्वजनिक स्थलों पर जाति आधारित नारों या महिमामंडन या आलोचना पर पूरी तरह पाबंदी लागू रहेगी.
4. महिमामंडन या नफरत फैलाने वाले डिजिटल कंटेंट के खिलाफ आईटी एक्ट के तहत एक्शन लिया जाएगा.
5. सोशल मीडिया पर भी जाति आधारित नारों या महिमामंडन या आलोचना पर पाबंदी रहेगी.
6. निजी गाड़ियों पर जाति के नाम लिखने जैसे महिमंडन की भी पूरी तरह मनाही होगी.
7. SC/ST एक्ट जैसे मामलों में जाति का उल्लेख आवश्यक होने के कारण संबंधित मामलों में छूट होगी.