अगर सिर्फ कह दिया जाए कि यह कुत्तों के लिए संकट का वक्त है तो काफी नहीं होगा. मेरी गली के कुत्ते शोक में हैं. भदवारा भी उनकी तपन को नहीं बुझा पा रहा. आपातकाल की घंटी बज चुकी है. कालकोठरी के दरवाजे खुल चुके हैं और इंतजार में हैं. हवाओं की दिशा बदल चुकी है. पुराने घाव रिसने लगे हैं और पिघल रहा है बबूल का गोंद. चीलों ने अंडे न जाने कब के छोड़ दिए. श्मशानों में सन्नाटा है और शोकगीत मेरी गली में गाए जा रहे हैं. अवसाद और सिर्फ अवसाद. नवदंपति ने छोड़ दिया है संभोग का इरादा. तमाम देवदास लौट आए हैं गंगा के किनारे से अपना श्राद्ध करके और कर रहे हैं मौत का इंतजार. बारिशों से धान नहीं, पैदा हो रहे हैं सिर्फ केंचुए.
केंचुए हमें बर्दाश्त नहीं. गाड़ियों की छतों को पाट देने वाले कबूतर भी नहीं. देर से आने वाली मेड भी नहीं और जल्दी आ जाने वाली ऑफिस की कैब भी नहीं. इस महानगर को कुछ भी बर्दाश्त नहीं. ज़माना ही अब नाक़ाबिल-ए-बर्दाश्त हो चुका है. वो कुत्ते जिनका कोई महबूब ना था, जिन्हें हमने आवारा कह दिया, उनका खुदा भी उनसे अब रूठ गया है क्योंकि महानगर में एक आदेश आया है.
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आदेश आया है कि शहर साफ चाहिए. कुत्तों से रिक्त चाहिए. ये कूचें, ये दरो-दीवार, ये गलियां ये आवारा कुत्तों के लिए थोड़ी हैं. छात्र जीवन में जिस कुत्ते की नींद को हमने श्लोक में जगह दी है आज उसके लिए महानगर में एक कोना भी मयस्सर नहीं है. जो समाज लौंडों की आवारगी को बर्दाश्त नहीं कर पाया, उसे कुत्तों की आवारगी कैसे बर्दाश्त होती.
कुत्तों का बुरा दौर तो रीतिकाल के बाद से ही शुरू हो गया था. शुक्लोत्तर युग के बाद तो 'कुत्ता' एक सामाजिक लेकिन बेहद चुटीली गाली बन गया. नायकों ने कुत्तों को इस योग्य भी नहीं समझा जिनके सामने नृत्य किया जा सके. मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि कामुकता और गुस्से में जिस भीतर के जानवर के जागने की हम बात करते हैं वो कुत्ता तो नहीं होगा.
ये दुनिया दो ध्रुवों में बंटी है. अतिवाद के दो ध्रुव. एक कोने पर हैं डॉग लवर. कुत्तों से उनका प्रेम अतिरेक है. दिक्कत ये है कि वो कुत्तों को इंसान के रूप में देखते हैं. फिर जब एक दिन कुत्ता उन्हें कुत्ते की तरह देख लेता है तो खबर आ जाती है. और दूसरे ध्रुव पर हैं कुत्तों के जानी दुश्मन. इनके मुताबिक कुत्तों को मार देना ही उनका समाधान है. उन्हें मार ही दिया जाना चाहिए.
इन दोनों ध्रुवों के ठीक बीच में है एक भूमध्य रेखा जिस पर रहते हैं शरणार्थी. निहार मुंह सिट्रीज़ीन खाकर उठने वाले महानगर में फंसे उस शरणार्थी के लिए कुत्तों का होना या ना होना समस्या है ही नहीं. उसे तो तलाश है एक नौकरी की. एक प्रेमिका की. एक दोस्त की. घर जाने वाली ट्रेन के एक अदद टिकट की. दवाओं की. किराए के एक कमरे की.
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हमने मुल्क बांटे, राज्यों को तोड़ा, धर्म और जाति के नाम पर तो हम खुद ही बंट गए, ठीक उसी तरह हमने कुत्तों को बांट दिया है. एक तरफ हैं साउथ एक्स में रहने वाले कुत्ते, जिन्होंने न जाने कब से अपने लिए 'कुत्ता' शब्द नहीं सुना. मालिकों ने उन्हें एक नाम दिया है. गाड़ी में चलती हुई एसी के बावजूद एक शीशा खुला रहा सिर्फ इन कुत्तों के लिए. वीगन मालिक ने भी मीट खरीदा सिर्फ इन कुत्तों के लिए. ये कुत्ते कभी सीढ़ियों से नहीं गए. लिफ्ट को भी रुकना पड़ा इन कुत्तों के लिए. इन कुत्तों ने जिसको चाहा उसको सूंघा, जिसको चाहा उसको काटा लेकिन उनके खिलाफ कोई आदेश नहीं आया क्योंकि उनके पास एक मालिक था. 'सबका मालिक एक' नहीं 'सबका एक मालिक'.
दूसरी तरफ हैं जमुना पार के कुत्ते. भजनपुरा के कुत्ते. गोकलपुरी के कुत्ते, खानपुर ढाणी के कुत्ते. आवारा कुत्ते. रोटी के लिए संघर्ष में पूरा दिन खर्च कर देने वाले इन कुत्तों से सभी को समस्या है. लोगों का कहना है कि इनमें रोष है. नाराजगी है. ये काटते तो हैं ही, बिना बात के भौंकते भी बहुत हैं. भौंकना एक नैसर्गिक अवस्था है. अभिव्यक्ति है. इंसान भी जब पूरी ईमानदारी से अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त कर देता है तो लोग कहते हैं, 'ये क्या भौंक रहे हो?' गलियों के आवारा कुत्ते भौंकते हैं भूख में, डर में. वो आपसे कुछ कहना चाहते हैं. वो आपसे कुछ नहीं मागते. आपकी जूठन पर जिंदा रहते हैं और बदले में आजादी चाहते हैं. ये रोष में इसलिए हैं क्योंकि इन खानाबदोश कुत्तों से कोई प्रेम नहीं करता.
फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म है 'कुत्ते',
ये गलियों के आवारा बे-कार कुत्ते
कि बख़्शा गया जिन को ज़ौक़-ए-गदाई
ज़माने की फटकार सरमाया इन का
जहां भर की धुत्कार इन की कमाई
न आराम शब को न राहत सवेरे
ग़लाज़त में घर नालियों में बसेरे
जो बिगड़ें तो इक दूसरे को लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाक़ों से उकता के मर जाने वाले
मज़लूम मख़्लूक़ गर सर उठाए
तो इंसान सब सर-कशी भूल जाए
ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आक़ाओं की हड्डियां तक चबा लें
कोई इन को एहसास-ए-ज़िल्लत दिला दे
कोई इन की सोई हुई दुम हिला दे
कुछ दिनों पहले खबर आई कि मानसून के चलते दिल्ली में सांपों की संख्या बढ़ रही है. गांव में सांप निकलता है, डस लेता है, इंसान मर जाता है, अंतिम संस्कार हो जाता है लेकिन खबर नहीं बनती लेकिन महानगरों में हमें पता है कि हम कितने सापों और कितने कुत्तों के बीच रह रहे हैं. तो क्या वाकई महानगर में कुत्ते ज्यादा हैं तो खबरें ज्यादा हैं? सवाल ये भी है कि क्या सिर्फ शहर के कुत्ते ही खतरनाक हैं. वो पट्टा गांव के कुत्तों के गले में क्यों नहीं है?
वो इसलिए क्योंकि गांव में डॉग लवर्स नहीं होते. लोग अपना बचा हुआ खाना कुत्तों को सिर्फ देते ही नहीं हैं बल्कि उनके लिए अलग से खाना बचाया जाता है. पहली रोटी गाय और आखिरी रोटी कुत्ते की. लड़ाई कॉस्मोपॉलिटन और लोक नहीं है, सारी लड़ाई रोटी की है. गांव के कुत्तों का पेट भरा रहता है इसलिए वो वही करता है जिसके लिए कुत्तों का आविष्कार हुआ था- 'रखवाली'.
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इन तमाम बिंदुओं से सफर करके मैं लौटा हूं अपनी गली में. यहां आज बड़ा सन्नाटा है. वो नजरें जो मेरे हाथों को घूरती थीं, वो दांत जो मुझे काटने को आतुर रहते थे, वो आवाज जिसने मेरी ना जाने कितनी रातें खराब कीं. आज सब कुछ गायब है. सब कुछ नेपथ्य में चला गया. अगर कुछ बचा है तो वो है एक आदेश जिसने महानगर की फिजाओं को बदल दिया है. अदालत ने कुत्तामुक्त राजधानी का सपना देखा है.
इस आदेश के बाद क्या होगा? स्वर्ग जाते युधिष्ठिर अब अपना मार्ग बदल देंगे कि कहीं डॉग लवर होने के जुर्म में पुलिस गिरफ्तार ना कर ले. बसंती अब बेधड़क नाच पाएगी. माना कि 'कमीने' शब्द थोड़ा अकेला पड़ गया है लेकिन धीरे-धीरे वो भी मूव ऑन कर लेगा. और होगी एक कविता, केदारनाथ सिंह की कविता 'पांच पिल्ले',
कुतिया ने जने पांच पिल्ले
पांचों स्वस्थ-सुंदर
नरम
झबरे
गदबदे पिल्ले
अब सूरज की ओर मुंह किये
पांचों खड़े हैं
कूं-कूं करते
चकित-हैरान
मानो पूछ रहे हों
कि लो, हम आ तो गये
अब क्या करें
इस दुनिया का?