दिल्ली के तीन मौसम हैं. लू, बाढ़ और प्रदूषण. बीते कई सालों का रिकॉर्ड तोड़ती गर्मी, यमुना को विराट स्वरूप देने वाली बारिश और वो ठंड जिसके लिए नायिका कहती है-
सारी रात जगाये रे
कोहरा कोहरा छाए रे
ये दिल धड़का जाए रे
प्यार तेरा दिल्ली की सर्दी
तो हाज़िरीन साल के वो महीने आ चुके हैं जब दिल्ली में स्मॉग और फॉग के बीच का फर्क धुंधला पड़ जाता है. जब तक चर्चा प्रदूषण से ठंड पर आती है तब तक मार्केट में पिचकारियां बिकने लगती हैं. पॉल्यूशन की जितनी किस्में बाजार में उपलब्ध हैं, सभी दिल्ली में पाई जाती हैं. क्या हवा, क्या पानी. फिर भी घर छोड़ने वाले तमाम प्रवासी पहली ट्रेन दिल्ली के लिए ही पकड़ते हैं.
धरती पर प्रदूषण ना तो एक दिन में आया और ना एक दिन में जाएगा. समस्या बड़ी है. समाधान लंबे हैं और वक्त है बस पांच साल का. कुछ तो करना है. क्या करें? सरकार लगातार काम कर रही है. कम से कम काम करती दिख तो रही ही है. एक के बाद एक कई ठोस कदम उठाए जा रहे हैं. मसलन हाल ही में सरकार ने प्रदूषण पर बड़ी चोट करते हुए तंदूर पर बैन लगा दिया. माना जा रहा है कि यह फैसला दिल्ली के साथ-साथ एनसीआर के लोगों को भी बड़ी राहत देगा.
खांसती दिल्ली बैन के दौर से गुजर रही है. इस खांसी का कोई इलाज नहीं. कफ सिरप भी अब काबिल-ए-एतिबार नहीं बचे. दिल्ली के आवारा कुत्तों में उल्लास है. उन्हें डॉग शेल्टर की कालकोठरी में धकेलने का सपना देखने वाले दिल्ली के लोग आज खुद 50 प्रतिशत वर्क फ्रॉम होम लेकर घर पर बैठे हैं. सरकार ने तंदूर से लेकर अलाव तक, 'आम आदमी' से जुड़ी हर चीज पर प्रतिबंध लगा दिया है.
इस साल पराली प्रदूषण कारकों की सूची से गायब है. ऐसा क्यों है, मुझे नहीं पता. पंजाब और हरियाणा की बाढ़ में सबकुछ बह गया. कुछ किसानों ने खरीदकर पराली जलाने की भी कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. संभवत: अब नए और आधुनिक कारकों ने पराली जैसे परंपरागत प्रदूषक को पीछे छोड़ दिया है. उन धानों को लोगों ने भुला दिया है. उस चिपचिपे धुएं को भी जो आंखों में जलन, फेफड़ों को टार और चेहरे को मॉइस्चर देकर जाता था.
एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालना प्रदूषण से बचने का सबसे सस्ता, प्रभावी और भरोसेमंद समाधान है. लेकिन पड़ोसी राज्यों में अपनी ही पार्टी की सरकार इसे थोड़ा मुश्किल बना देती है. हालांकि व्यक्तिगत स्तर पर ये काम चलता रहता है. दोषों को मढ़ना और श्रेय चोरी हमारी संस्कृति का हिस्सा है. स्कूल से ही हमें इसकी बारीक ट्रेनिंग दी जाती है. दक्षिण दिल्ली में रहने वाले इसके लिए जमुना पार के लोगों को जिम्मेदार मानते हैं. उनका बस चले तो वो भजनपुरा के लोगों की अपान वायु भी रोक दें. तो वहीं जमुना पार वाले ग्रेटर कैलाश की गाड़ियों पर जिम्मेदारी डालते हैं.
इन सबके बीच एयर प्यूरिफायर की मांग और सप्लाई काफी बढ़ गई है. सरकार अब इन्हें स्कूलों में भी लगाने जा रही है. मध्यम वर्ग के लिए एयर प्यूरिफायर काफिर का वो बुत है जिसकी कर्मणता सिर्फ आस्था का विषय है. वो क्या करता है, कैसे करता है, कब करता है किसी को न कुछ दिखता है और न ही कोई अनुमान है. इस बीच बीते दिनों एक और फैसला लिया गया. गाड़ियों के पॉल्यूशन सर्टिफिकेट चेक करने का. सरकार ने इसके लिए एक्यूआई के 500 पार होने का इंतजार किया. इंतजार बेहद लंबे होते हैं. ये इंतजार भी काफी लंबा रहा होगा. मुश्किल भी रहा होगा. पॉल्यूशन सर्टिफिकेट जिसे आमतौर पर हर गाड़ी चालक के पास होना ही चाहिए, उसकी अनिवार्यता के लिए सरकार को पेट्रोल ना देने की धमकी देनी पड़ी.
डीजल टैंकरों से एक्यूआई मीटरों पर छिड़काव भी एक मास्टरस्ट्रोक ही था. टैंकर जैसे ही प्रदूषण करने के बारे में सोचते, पानी का छिड़काव उसे निष्क्रिय कर देता. इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रदूषण के लिए सबसे बड़े जिम्मेदार ये एक्यूआई मीटर हैं. ये ना होते तो हमें इस एक्यूआई की जिरह में पड़ना ही नहीं पड़ता. उससे भी बड़ा स्कैम हैं ग्रैप लेवल. बादलों की तरह ये कब आते हैं. कब जाते हैं. कब बदल जाते हैं कुछ पता नहीं चलता. बदलते ग्रैप लेवल और स्थिर जीवन के बीच है धुआं. ढेर सारा धुआं.
काल है संक्रमण का और लड़ाई है शुद्धता की. जहां प्रकाश भी प्रदूषित है और साहित्य भी. हवा और पानी के लिए तो ये शरीर अब ढल चुका है. अशुद्ध हैं परीक्षाएं. उसके नतीजों की घोषणा करने वाले कागज, उनके पीछे मसला गया गोंद और वो दीवार जिस पर उसे चस्पा होना है. सबकुछ अशुद्ध है. मीट की दुकान पर भिनभिनाती मक्खियों से ज्यादा अशुद्ध हैं वीगन लोग. क्या आपने कभी बरसों से छत पर रखी पानी की टंकी को खोलकर देखा है? अंतरिक्ष सा अंधेरा. तो क्या अंतरिक्ष भी अशुद्ध है? तो क्या हर काली चीज अशुद्ध है? फिर क्या सिर्फ दूध को ही शुद्ध माना जाए? अशुद्ध चीजों से आती है गंध जो बना देती है काले के निकटतम रंगों को भी अशुद्ध. अशुद्ध गहरा नीला. अशुद्ध भूरा. अशुद्ध ग्रे.
तो साथियों दिल्ली खांस रही है. कुत्ते खांस रहे हैं. स्कूल खांस रहे हैं. आईटीओ खांस रहा है. सूजी के बेहद औसत गोलगप्पों में भरा आलू भी खांस रहा है. हर दिन के साथ छाती भारी और भारी होती जाती है. गजलों और कविताओं में भी अब सिर्फ प्रदूषण का जिक्र है. तलवों की जलन अब आंखों में उतर आई है. रंग बदलते एक्यूआई मीटरों के साथ डिटॉक्स होने की राह देखते फेफड़ों का इंतजार लंबा और लंबा होता जा रहा है.