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कभी नीम-नीम, कभी शहद-शहद... कैसा होता है कुंवारों का करवाचौथ?

शादी के 35-40 साल बाद महिलाओं के लिए करवाचौथ बस एक औपचारिकता भर रह जाता है. लोग गुस्सा होने पर खाना नहीं खाते और खाना न खाने पर और गुस्सा हो जाते हैं. पूरा दिन भूख के मारे चिड़चिड़ाहट में बीत जाता है. रात होने पर उस चेहरे को देखकर व्रत खोलना पड़ता है जो अब चांद से भी पुराना लगने लगा है.

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कुंवारों का करवाचौथ (Photo: AI-generated)
कुंवारों का करवाचौथ (Photo: AI-generated)

बेदम शाह वारसी ने लिखा,

वही हम थे कभी जो रात दिन फूलों में तुलते थे

वही हम हैं कि तुर्बत चार फूलों को तरसती है

कुछ ऐसा ही हाल अक्टूबर का है. जो हवा कल तक राहत-बख़्श थी, वही आज सितमगर हो चली है. और धूप तो मानो वो सपनों की रानी है जिसे राजेश खन्ना ना जाने कब से पुकार रहे थे. अक्टूबर की धूप में उतनी ही गर्मी है जितनी हथेलियों के बीच होती है, जितनी गोद में होती है, जितनी आलिंगन में होती है. कहते हैं करवाचौथ के लोटे की नली से ठंड निकलती है लेकिन इस बार यूनियन कार्बाइड के लोटे के ऊपर रखी कटोरी खिसक गई और सर्दियों की आमद पहले ही हो गई. मेरी याद में करवाचौथ दिवाली का गेटवे रहा है. अलबत्ता करोड़ों एकल युवाओं की तरह मेरा अभी तक तो करवाचौथ से कोई नाता नहीं है. लेकिन घोर वैवाहिक उत्सव होने के बावजूद यह कहना गलत होगा कि करवाचौथ सिर्फ शादीशुदा जोड़ों का त्योहार है.

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स्कूल से लेकर ऑफिसों तक, इस देश के युवाओं की आधी ऊर्जा लड़कियों को हंसाने में खर्च हो रही है. प्रेम के स्वर्ण हिरण की तलाश में निकले लड़के इस धरती की सबसे सेक्युलर जमात है. वो न धर्म की बंदिशों को मानते हैं और न जाति के दंभ को जानते हैं. हर लड़की में उन्हें सिर्फ दो चीजें नजर आती हैं- संभवना और होने वाली जीवनसाथी. कयामत के रोज से पहले अगर कोई लड़की पलटकर मुस्कुरा दे तो लड़के परीक्षा में अपना इकलौता पेन देने से लेकर हत्या कर देने तक की हद तक समर्पित हो जाते हैं. ऐसी ईमानदारी जिसके लिए तीन कुल्हाड़ियां भी कम पड़ जाएं.

सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता- वीरों का कैसा हो बसंत... अगर इस देश के लड़के लिखते तो वीरों के करवाचौथ की कल्पना करते. स्कूलों को ये गुमान था कि वो जीतू के बदन से ऊर्जा की एक-एक बूंद खींच लेंगे और एक हारे-थके सिपाही को घर भेजेंगे. लेकिन जीतू रोज मुस्कान के हिस्से की ऊर्जा बचा लाता. साइकिल से मुस्कान की गली के चक्कर लगाते हुए उसे न भूख महसूस होती, न थकान. और यहीं से शुरू होता है लड़कों के करवाचौथ का अभ्यास.

कुंवारों के मूलत: दो त्योहार होते हैं. 14 फरवरी यानी वैलेंटाइन डे और करवाचौथ. जिन लड़कों को देखकर कोई नहीं मुस्कुराया, उन्होंने वैलेंटाइन डे को 'पाश्चात्य रोग' बताकर खारिज कर दिया. और जिन्हें देखकर वो मुस्कुराई उनके लिए यह दिन फिर किसी दशहरे दीपावली से कम नहीं रहा. 14 फरवरी से जो प्रेम का सफर शुरू हुआ उसे एक वैलिडेशन की जरूरत थी. जरूरत थी कुछ वादों की. कुछ सपनों की. कुछ योजनाओं की और कुछ पप्पू-लप्पू, गोलू-भोलू, गुड्डू-बबलू जैसे नामों की. कुंवारों के प्रेम को ये वैलिडेशन दिया करवाचौथ ने.

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शादी के 35-40 साल बाद महिलाओं के लिए करवाचौथ बस एक औपचारिकता भर रह जाता है. लोग गुस्सा होने पर खाना नहीं खाते और खाना न खाने पर और गुस्सा हो जाते हैं. पूरा दिन भूख के मारे चिड़चिड़ाहट में बीत जाता है. रात होने पर उस चेहरे को देखकर व्रत खोलना पड़ता है जो अब चांद से भी पुराना लगने लगा है. दूसरी तरफ कुवारों के करवाचौथ में एक ताजगी रहती है. ऊर्जा से भरे, प्रेम में डूबे. पहाड़ तोड़कर भी मुस्कुराने का दम रखने वाले. जिस शिद्दत से कुंवारे करवाचौथ मनाते हैं, कालांतर में यह त्योहार अविवाहितों का ही बनकर रह जाएगा.

सोशल मीडिया के उरूज और लोककथाओं के ज़वाल ने लोगों को और करीब आने का मौका दिया है. ये सब बेकार की बातें हैं कि मोबाइल और सोशल मीडिया ने लोगों को दूर कर दिया है. 14-15 साल के युगल अव्वल तो व्रत नहीं रखने, फिर रखने और तोड़ देने की शरारत पर चर्चा करते हैं. धीरे से ये शरारत चिंता में बदल जाती है जब दोनों व्रत करने का हठ कर लेते हैं. यह देखकर लगता है कि मानव सभ्यता पर अभी कोई खतरा नहीं है. हमारी संस्कृति अब भी सुरक्षित हाथों में है. वो महिलाएं जो करवाचौथ को बॉलीवुड और बाजार का त्योहार कहती हैं, उन्हें प्रेम की खातिर स्लीपसाइकिल की धज्जियां उड़ाने वाली इस जेनेरेशन के साथ थोड़ा वक्त बिताना चाहिए.

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करवाचौथ के दिन छिप-छिपकर खाना न खाने की अदा प्रेम का अतिरेक है. उससे भी बड़ा है फोन या वीडियो कॉल पर अपने महबूब को देखकर इस महाव्रत का पारायण करना. ये इस बात की पुष्टि करता है कि हमारा प्रेम किसी लोक या पूजा या भौगोलिक उपग्रह का मोहताज नहीं है. वो एकांत में भी दोजन की अवस्था है. शादीशुदा जोड़ों का करवाचौथ रस्म है लेकिन प्रेम में पड़े कुंवारों का करवाचौथ यज्ञ है, गोवर्धन परिक्रमा है, कैलाश यात्रा है, अहम ब्रम्हास्मि है जिसमें हमारे भीतर का ईश्वर ही हमें भक्ति की ऊर्जा देता है.

फिर एक रोज आती है पूस की रात जब प्रेमचंद के हल्कू और जबरा अलग हो जाते हैं. कसमें, वादे, सपने सब बीच में ही टूट जाते हैं. कुछ दिन अवसाद और कुछ दिन सोशल मीडिया पर उस अवसाद को साबित करने में खर्च होते हैं. सर्दियों में शॉल और दबे रंग के गर्म कपड़े, जिनमें रोएं अब बस आने ही वाले हैं, इस काम को और सुलभ बना देते हैं.

उर्दू सर्दियों की भाषा है इसलिए ज्यादातर लिट फेस्ट दिसंबर-जनवरी में होते हैं. ये समारोह लड़कों को अवसाद से निकलने में बहुत मदद करते हैं. और फिर आती है फरवरी. वही फरवरी जहां से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते. एक पर लिखा है- 'पाश्चात्य रोग' और दूसरे पर 'दीपावली'. ठोकर लगने के बाद हर कोई संभल जाता है सिवाय लड़कों के. हर साल चलनी के दूसरी तरफ के चेहरे बदलते रहते हैं और कुंवारों के करवाचौथ की ताजगी बनी रहती है.

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