मध्य प्रदेश में लंबे समय तक मुख्यमंत्री के रूप में काम कर चुके शिवराज सिंह चौहान के आलोचक और प्रशंसक दोनों ही इस बात पर एकमत रहे हैं कि वो भविष्य में देश के कृषि मंत्री होंगे. बेशक, उनके इरादे अलग-अलग थे. भारतीय जनता पार्टी सहित दूसरे दलों के नेता शिवराज को लेकर अक्सर राज्य की राजनीति में अफवाहें उड़ा दिया करते थे. क्योंकि, उनकी अनुपस्थिति में उन्हें अपने लिए बेहतर भविष्य की उम्मीद दिखाई देती थी. वहीं दूसरी ओर उनके समर्थकों ने इसे प्रमोशन के रूप में देखा. बाहर से देख रहे लोगों ने भी इस कदम को एक स्वाभाविक प्रगति के तौर पर ही देखा. कुल मिलाकर कहने का मतलब यह है कि जब सोमवार की शाम 65 वर्षीय शिवराज सिंह चौहान को कृषि और ग्रामीण विकास विभाग मिला तब यह किसी के लिए भी आश्चर्य की बात नहीं थी.
एक ऐसे राज्य में जहां कृषि से लगभग 70 प्रतिशत आबादी जुड़ी हुई है, वहां चौहान ने हमेशा अपनी किसान समर्थक वाली छवि को बनाकर रखा. उन्होंने राज्य में कृषि से संबंधित ऐसे कई कदम उठाए जिन्हें बाद में दूसरों ने भी अपनाया. उनके कार्यकाल में राज्य ने लगातार उच्च कृषि विकास दर दर्ज की. 2013-14 में तो कृषि विकास दर 20.4 प्रतिशत के शिखर पर पहुंच गई थी. हालांकि उसके बाद इसमें कमी जरूर आई, लेकिन तब भी यह राष्ट्रीय औसत से अधिक बनी रही. विडंबना यह रही कि जब राज्य के कांग्रेसी नेताओं ने कृषि उत्पादन के आंकड़ों पर संदेह जताया, तब मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली UPA सरकार ने खाद्य उत्पादन बढ़ाने के लिए मध्य प्रदेश को कई केंद्रीय पुरस्कार दिए.
किसानों का समर्थन पाने में कैसे मिली सफलता
केंद्र द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से अधिक बोनस देने से लेकर कम ब्याज पर कम समय के लिए फसल ऋण देने और गेहूं खरीद के लिए विस्तृत बुनियादी ढांचे का निर्माण करने तक, चौहान ने ऐसे कई काम किए जो पहली बार हो रहा था. साथ ही मध्य प्रदेश ने कृषि के लिए आवंटित बजट में भी काफी इजाफा किया.
मध्य प्रदेश में सबसे बड़ी आबादी किसानों की है और इसमें कोई संदेह नहीं है कि चौहान ने चुनाव में इस वर्ग की महत्ता को देखते हुए किसानों के हितों से संबंधित कई पहल किए. सबसे पहले (15 साल से भी अधिक) उन्होंने जो लोकप्रिय कदम उठाए, उनमें से एक था सरकार को अपनी उपज बेचने वाले गेहूं उत्पादकों के लिए हर क्विंटल पर 100 रुपये का बोनस देने की घोषणा. यह मध्य प्रदेश के किसानों के बीच इतना सफल रहा कि कई लोगों ने प्राइवेट जगहों पर उपज को बेचना बंद कर दिया. उनका उत्साह चौहान के 'किसी भी किसान को वापस नहीं भेजा जाएगा... सरकार द्वारा एक-एक दाना खरीदा जाएगा' वाले सार्वजनिक बयान से प्रेरित था.
बोनस योजना का अप्रत्याशित नतीजा निकला. पड़ोसी राज्यों के किसान अपनी उपज मध्य प्रदेश में ले जाने लगे, जिससे उत्पादन और भी बढ़ गया. सीमा पार से गेहूं की आवाजाही अवैध थी और सरकार को इस पर काम करने और लगाम लगाने में कुछ समय लगा. मध्य प्रदेश की योजना की सफलता ने अन्य राज्य सरकारों को भी इसकी नकल करने के लिए मजबूर किया. इस तरह के लोकलुभावन उपायों ने केंद्र के लिए समस्या खड़ी कर दी. जरूरत से अधिक स्टॉक के बोझ के अलावा, यह वित्तीय रूप से भी नुकसान पहुंचा रहा था. नरेंद्र मोदी सरकार ने आखिरकार इस योजना को बंद कर दिया.
लेकिन तब तक चौहान के नेतृत्व में मध्य प्रदेश में फसलों की खरीद से संबंधित मजबूत ढांचा तैयार हो चुका था. सिंचाई नेटवर्क की वजह से किसानों को एक से ज्यादा फसल उगाने की सुविधा मिली और खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी देखी गई. कांग्रेस के शासनकाल में मध्य प्रदेश की खरीद इतनी कम थी कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के लिए जरूरी स्टॉक भी पूरा नहीं हो पाता था. अब कुल उत्पादन और खरीद के मामले में मध्य प्रदेश की चर्चा पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के साथ होने लगी.
जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली UPA सत्ता में थी, तब चौहान कृषि मुद्दों पर सड़कों पर उतरने से नहीं कतराते थे. उस समय मुख्यमंत्रियों के लिए धरना आयोजित करना असामान्य बात थी. 2013 में, उन्होंने किसानों के लिए विशेष पैकेज की मांग करते हुए अनिश्चितकालीन उपवास की घोषणा की. चौहान के सीएम बनने के बाद मध्य प्रदेश ने बड़े पैमाने पर बासमती चावल उगाना शुरू किया. मात्रा में वृद्धि जरूर हुई, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार तब सुगंधित धान की किस्म के लिए जीआई टैग (Geographical Indication tag) हासिल करने में विफल रही. कानूनी झटके के बाद भी राज्य ने जीआई मान्यता के लिए जरूरी कोशिशों को लगातार जारी रखा.
भाजपा और किसान
हालांकि, चौहान का राज्य में नाराज किसानों से पहला सामना 2017 में हुआ था. जब कमोडिटी की कीमतें गिरीं तब किसान सड़कों पर उतर आए और सरकार से हस्तक्षेप की मांग करने लगे. मंदसौर में ऐसे ही एक विरोध प्रदर्शन में किसान बेकाबू हो गए, जिसके चलते पुलिस को गोली चलानी पड़ी. पुलिस की गोली से मरने वाले पांच किसानों सहित कुल छह किसानों की मौत ने भाजपा सरकार को मुश्किल में डाल दिया.
इस व्यापक विरोध के बाद चौहान ने दावा किया कि एक साल में किसानों को 30,000 करोड़ रुपये वितरित किए गए. हालांकि उन्होंने पूरा ब्योरा नहीं दिया. लेकिन, चौहान ने मुख्यमंत्री कृषक समृद्धि योजना, एमएसपी से ऊपर नकद प्रोत्साहन का वितरण, सूखा राहत और फसल बीमा को उन श्रेणियों में सूचीबद्ध किया जिनके तहत सहायता दी गई थी.
2017 की शुरुआत में शुरू हुआ किसान आंदोलन, जो कई महीनों तक चला, 2018 के अंत में हुए चुनाव में राज्य में भाजपा सरकार की हार का एक मुख्य कारण रहा. भाजपा को थोड़े अधिक वोट मिले लेकिन कांग्रेस को पांच विधानसभा सीटें अधिक मिलीं. हालांकि कांग्रेस 230 सदस्यों वाली विधानसभा में साधारण बहुमत हासिल करने से चूक गई, लेकिन उसने निर्दलीय, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की मदद से सरकार बनाई.
गृह राज्य छोड़ने को राजी नहीं थे चौहान
राज्य में कृषि के क्षेत्र में हुए परिवर्तन के बावजूद, चौहान अपने राजनीतिक करियर के अधिकांश समय में राज्य की सीमाओं को छोड़ने को लेकर तैयार नहीं दिखे. पिछले दिसंबर में विधानसभा चुनाव में मिली भारी जीत के बावजूद जब उन्हें सीएम की कुर्सी नहीं मिली तब उन्होंने केंद्रीय राजनीति में जाने के लिए खुद को तैयार कर लिया. केंद्र में काम करने के दौरान चौहान के अनुभवों का उपयोग देश के अन्य हिस्सों में मध्य प्रदेश में हासिल की गई उपलब्धियों को दोहराने के लिए किया जाएगा. राज्य के एक अन्य नेता नरेंद्र सिंह तोमर ने भी नरेंद्र मोदी सरकार में लंबे समय तक कृषि विभाग संभाला है. एक समय तोमर, जो अब विधानसभा के अध्यक्ष हैं, चौहान को सीएम के रूप में बदलना चाहते थे.
हालांकि चौहान का कद तोमर से कहीं ज्यादा है, लेकिन दिल्ली में सफल होने के लिए उन्हें काफी मेहनत करनी होगी. पहले जब उनके केंद्र में आने को लेकर अटकलें लगाई जाती थीं और चीजें उनके लिए ठीक नहीं चल रही थीं, अब उसके विपरीत चौहान ने आत्मविश्वास के साथ नई जिम्मेदारी संभाली है. अगर पीएम मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में दिखी व्यवस्था को कोई संकेत माना जाए, तो चौहान अब काफी ऊंचे स्थान पर हैं. भाजपा ने मध्य प्रदेश में सभी 29 सीटें जीतीं, जिसमें विदिशा भी शामिल है, जहां चौहान की जीत का अंतर 8.20 लाख से अधिक रहा.